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जानें, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की इस छोटी सी स्टूडेंट सोसायटी ने कैसे दिलाई थी भारत को आजादी

Cambridge Majlis of Cambridge University

अंग्रेजी हुकूमत ने अपनी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी का इस्तेमाल एक ऐसे जरिए के रूप में किया, जिससे वे भारत में अपने शासन के भावी आधार का निर्माण कर सकें। उन्होंने अपने विश्वविद्यालयों में भारत के उन छात्रों को प्रवेश देने की पेशकश की, जो राजा, अधिकारी, व्यापारी और वकीलों के बच्चे थे। उन्होंने भारतीयों को यह लोभ सिर्फ इसलिए दिया ताकी, उन्हें अपने काबिल सहायक मिल सकें और वे अपने उपनिवेशिक आकाओं की बोली बोल सकें।

हालांकि, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में किसी भी अन्य महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थान की तरह खुले विचारों को काफी बढ़ावा दिया जाता था और ऐसा ही एक मंच था ‘कैम्ब्रिज मजलिस’, (Cambridge Majlis) जिसे साल 1891 में स्थापित किया गया था। इस प्रतिष्ठित सोसायटी ने भारतीय उपमहाद्वीप के विद्यार्थियों को वाद-विवाद, विमर्श और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए एक शानदार मंच प्रदान किया।

नतीजतन, शहर में विश्वविद्यालय और दक्षिण एशियाइयों के बीच संबंध मजबूत होते गए। शुरुआती दिनों में, डॉ. उपेंद्र कृष्ण दत्त इस मजलिस का हिस्सा बने, जिनका ब्रिटेन में रह रहे भारतीयों पर गहरा असर था। ‘मजलिस’ मूल रूप से एक फारसी शब्द है, जिसका हिन्दी अर्थ है ‘सभा’। इसका गठन एक सोसायटी क्लब और डिबेट क्लब के रूप में किया गया था, ताकि भारतीय उपमहाद्वीप के छात्र कुछ स्तर पर एक्टिविज्म में शामिल हो सकें। सोसायटी का यूनिवर्सिटी से कोई औपचारिक संबंध नहीं था।

उम्मीदों से परे निकले छात्र

अंग्रेजी हुकूमत को उम्मीद थी कि यूनिवर्सिटी उनके उपनिवेशिक शक्तियों को मजबूत करने के लिए वफादार नौकरशाहों को पैदा करेगी, लेकिन कैम्ब्रिज मजलिस (Cambridge Majlis) जैसी सोसायटियों ने पंडित जवाहरलाल नेहरू (ट्रिनिटी कॉलेज), सुभाष चंद्र बोस (फिट्जविलियम कॉलेज), अरबिंदो घोष (किंग्स कॉलेज), डॉ. सैफुद्दीन किचलू (पीटरहाउस), सैयद महमूद, गुरुसदय दत्त (इमैनुएल कॉलेज), डॉ. शंकर दयाल शर्मा (फिट्जविलियम कॉलेज), मोहन कुमारमंगलम, फजल-ए-हुसैन और केएल गौबा जैसे कई वकीलों को जन्म दिया, जिन्होंने आगे चलकर भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी।

कैम्ब्रिज मजलिस (Cambridge Majlis) ने अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स, ईएम फोर्स्टर, मोहनदास करम चंद गांधी, गोपाल कृष्ण गोखले, सरोजिनी नायडू, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे कई बड़े नेताओं, लेखकों और विचारकों की मेजबानी की।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के इंडिपेंडेंट स्टूडेंट न्यूजपेपर ने एक नोट में लिखा था, “यह वह जगह थी, जहां भविष्य के क्रांतिकारी पहली बार मिले थे और आधी सदी से भी कम समय में भारतीय उपमहाद्वीप में क्रांति की भावना पैदा की।”

एक बंटवारे ने स्वदेशी आंदोलन को दिया जन्म

वास्तव में, कैम्ब्रिज मजलिस (Cambridge Majlis) के सदस्यों के लिए बंगाल विभाजन निर्णायक मोड़ साबित हुआ। तब भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने अपनी विभाजनकारी नीतियों के तहत बंगाल को दो अलग प्रशासनिक क्षेत्रों में बांट दिया, जो मुस्लिम बहुल्य पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुसंख्यक पश्चिम बंगाल था। इस बंटवारे ने स्वदेशी आंदोलन को जन्म दिया, आगे चलकर यह महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन का भी केन्द्र-बिंदु था।

साल 1905 में हुए बंगाल विभाजन ने क्रैंबिज यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे भारतीय छात्रों को भी स्वदेशी आंदोलन के लिए प्रेरित किया और कई छात्र भारत को अंग्रेजों से आजादी दिलाने के लिए स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। बताया जाता है कि 1909 तक इस विश्वविद्यालय में सौ से भी कम भारतीय छात्र बचे थे, जो अंग्रेजों के लिए एक गंभीर चिन्ता का विषय बन गया।

मार्च 1909 में, भारत के तत्कालीन राज्य सचिव लॉर्ड मॉर्ले ने मास्टर ऑफ डाउनिंग कॉलेज, कैम्ब्रिज को एक पत्र लिखा और भारत की आजादी की लड़ाई में विश्वविद्यालय के छात्रों की बढ़ती संख्या को लेकर चेतावनी दी।

“कट्टरतावादी सोच वाले चरमपंथी किसी दिन हमें भारत छोड़ने पर विवश कर देंगे”

इस पत्र में उन्होंने लिखा, “यदि भारत सरकार के नज़रिए से यह मुद्दा गंभीर नहीं होता, तो मैं आपको इस तरह से पत्र लिखने का साहस नहीं करता।” इस पत्र को लिखने से तीन हफ्ते पहले उन्होंने हाउस ऑफ लॉर्ड्स को चेतावनी दी थी, “चरमपंथी जो कि कट्टरतावादी सोच रखते हैं, वे किसी दिन हमें भारत छोड़ने पर विवश कर देंगे।” इसलिए मार्ले इस गंभीर समस्या को ब्रिटिश विश्वविद्यालयों की मदद से जड़ से खत्म करना चाहते थे।

जैसा कि इस नोट में लिखा गया है, “कइयों ने एक क्रांतिकारी, तो कुछ ने आजादी के पैरोकार के रूप में विश्वविद्यालय छोड़ा। भले ही 1930 और 40 के दशक में विश्वविद्यालय के नजरिए से इसे राजद्रोह माना जाता हो। यह कुलीन समूह, जो भारतीय उपमहाद्वीप में फैला था, पहली बार कैम्ब्रिज में ही मिला था।” 

ये छात्र कौन थे?

उस दौर में कैम्ब्रिज में पढ़ने के लिए आने वाले अधिकांश भारतीय छात्र उच्च वर्ग से आते थे। वे उन परिवारों से आते थे, जिनका अंग्रेजी हुकूमत से कोई न कोई संबंध रहा हो या लाभ मिल रहा हो। दूसरे शब्दों में, इन छात्रों को आम भारतीय जनता की चुनौतियों और अंग्रेजों की बर्बरता की कोई समझ नहीं थी।

बहरहाल, उन्होंने भारत में अंग्रेजी शासन की चुनौतियों और खतरों को समझने के लिए काफी वाद-विवाद व परिचर्चा की और चुनौती देने का फैसला किया। उनके अंदर आजादी का बीज, कैम्ब्रिज मजलिस में बोया गया था। साथ ही, यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि इस मंच के जरिए उन्होंने न सिर्फ ब्रिटिश राज की चिन्ताओं पर चर्चा की, बल्कि प्रासंगिकता और रुचि के अनुसार कई अन्य विषयों पर भी चर्चा की।

जतिन्द्र मोहन सेनगुप्ता ऐसे ही एक छात्र थे। वह मूल रूप से चटगांव के रहने वाले थे और वह एक बड़े जमींदार परिवार से वास्ता रखते थे। उनके पिता ब्रिटिश विधान परिषद के सदस्य भी थे। 

Both Jawaharlal Nehru and Subhas Chandra Bose attended the Cambridge Majlis. They would go onto become integral parts of the freedom struggle. (Image courtesy Free Press Journal)

कौन थीं एडिथ एलेन ग्रे, जिन्हें नेल्ली सेनगुप्ता कहा जाने लगा?

जतिन्द्र , पंडित नेहरू से 2 साल बड़े थे और वह 1908 में कैम्ब्रिज मजलिस (Cambridge Majlis) के अध्यक्ष बने। अध्यक्ष पद पर अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने भारत पर ब्रिटिश हुकूमत के विमर्श को एक नई धार दी। जिसके बाद पुलिस ने उन्हें ग्रेज इन में गिरफ्तार कर लिया।

साल 1909 में जतिन, बैरिस्टर बनकर भारत लौटे और कोलकाता उच्च न्यायलय में वकालत शुरू कर दी। 1911 में वह कांग्रेस से जुड़े और 1921 में वकालत छोड़, पूरी तरह से आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की महत्वपूर्ण कड़ी थे और उनके कंधों पर बंगाल मामले की जिम्मेदारी थी। इसमें उन्हें अपनी ब्रिटिश मूल की पत्नी एडिथ एलेन ग्रे का पूरा सहयोग मिला, बाद में उन्हें नेल्ली सेनगुप्ता के रूप में जाना गया। 

सोसायटी से निकले कई स्वतंत्रता सेनानी

जतिन्द्र सेनगुप्ता, हमेशा मजदूरों के हितों के लिए काम करते रहे और कई हड़ताल में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। उन्होंने सूर्य सेन जैसे क्रांतिकारियों का कोर्ट में बचाव करने के अलावा, 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का समर्थन किया और चटगांव विद्रोह के दौरान पुलिस की बर्बरता का सबूत पेश किया। जिसके बाद उन्हें 1932 में बंदी बना लिया गया और डेढ़ साल बाद उनका 22 जुलाई 1993 को रांची जेल में निधन हो गया। तब वह महज 48 साल के थे। 

हालांकि, उनकी मौत के बाद भी नेल्ली, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहीं और आजादी के बाद कई सामाजिक कार्यों में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। आजादी के बाद, सोसायटी में कई देशों के छात्रों का मिलना जारी रहा। यहां तक कि भारत और पाकिस्तान (1947 और 1965) के बीच दो युद्धों के दौरान भी यह जारी रहा। लेकिन, 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान परिस्थितियां काफी खराब हो गईं और इसका पतन हो गया। 

हालांकि,  मार्च 2019 में यह सोसायटी फिर से पुनर्जीवित हुई और इसे री-लॉन्च किया गया। 

हमें पता हो या न हो, इस सोसायटी ने हमारे कई महान स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक मंच प्रदान किया है।

मूल लेखः रिनचेन नोर्बू वांगचुक

संपादन- जी एन झा

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