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कौन हैं, नेताजी की हर कदम पर मदद करने वाली महिला सेनानी, जिनके लिए रेलवे ने तोड़ी परंपरा

the women fighters who helped Netaji at every step, for whom the Railways broke the tradition

किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के नाम पर किसी गली, पार्क, बस स्टेशन या रेलवे स्टेशन का नाम रखे जाने का मतलब होता है, उनके काम और योगदान को सम्मान देना। लेकिन, अधिकतर यह सम्मान पुरुषों को ही क्यों दिया जाता है? भारत के लगभग हर शहर, कस्बे और यहां तक कि विदेशों में भी महात्मा गांधी के नाम पर एक सड़क है। अकेले भारत में ही उनके नाम पर 60 से अधिक सड़कें हैं।

लेकिन एक दो मामलों को छोड़ दें, तो महिलाओ के नाम पर बमुश्किल ही कोई सड़क या किसी जगह का नाम नजर आएगा। पूर्वी रेलवे भी काफी लंबे समय तक इसी परंपरा को निभाता रहा। अपनी मिट्टी के सपूतों को श्रद्धांजलि देने के लिए, उनके नाम पर स्टेशन का नाम रखा जाता है। 

हालांकि सन् 1958 में थोड़ा बदलाव लाते हुए, भारतीय रेलवे ने देश की एक बेटी को श्रद्धांजलि देने का फैसला किया, और उनके नाम पर हावड़ा जिले (पश्चिम बंगाल) में एक स्टेशन का नाम ‘बेला नगर रेलवे स्टेशन’ रखा। बेला मित्रा, ऐसा सम्मान पाने वाली भारतीय इतिहास की पहली महिला बनीं।

नेताजी की भतीजी थीं बंगाल की ‘झांसी रानी’

Bela Mitra (L); Netaji at the camp in Bras Basah Road, reviewing an Indian National Army female combat regiment (R)

सन् 1920 में, कोडालिया के एक संपन्न परिवार में जन्मी बेला को बेला मित्रा, अमिता या बेला बोस के नाम से जाना जाता था। उनके पिता सुरेंद्र चंद्र बोस, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई थे। बेला,  प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी ‘नेताजी’ की भतीजी थीं। 

बेला और उनकी छोटी बहन इला बोस के लिए नेताजी हमेशा प्रेरणा का स्रोत बने रहे। जब 1941 में, नेताजी को नजरबंद किया गया था, उस समय वहां से उन्हें भगाने में बेला ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। बहुत कम उम्र में बेला ने खुद को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ लिया था। साल 1940 में, रामगढ़ में कांग्रेस विधानसभा छोड़कर उन्होंने नेताजी के साथ जुड़ने का फैसला किया।

जब भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) का गठन हुआ, तो उन्होंने ‘झांसी रानी’ ब्रिगेड की कमान संभाली। उनके पति हरिदास मिश्रा भी, उनकी तरह क्रांतिकारी थे। वह एक गुप्त सेवा सदस्य के रूप में आईएनए में शामिल हुए और बाद में उन्हें खुफिया प्रमुख बना दिया गया।

देश के लिए, जोखिम में डाली जान

बेला को आईएनए के विशेष अभियान की देख-रेख के लिए कलकत्ता (अब कोलकाता के रूप में जाना जाता है) भेज दिया गया था। उन्हें नेशनलिस्ट ग्रुप के साथ रेडार के अंतर्गत होने वाले कम्यूनिकेशन का प्रभारी बनाया गया था। इनमें से एक ऑपरेशन में, आईएनए ने भारत में पूर्व एशिया से लेकर देश के उत्तर पूर्वी हिस्से तक गुप्त सेवा दल की तैनाती की।

हरिदास, इस ऑपरेशन के प्रमुख सदस्य थे, लेकिन वह ब्रिटिश सरकार द्वारा पकड़े गए। इसके बाद, बेला ने इस ऑपरेशन की कमान संभाली और इसे सफल बनाने में अहम भूमिका निभाई। वह, सदस्यों के साथ संचार की निगरानी करती थीं, और उनके तैनाती और आवास का कार्यभार भी संभालती थी। उन्होंने कई प्रमुख क्रांतिकारियों को सुरक्षित जगह भेजने के लिए अपनी शादी के गहने तक बेच दिए थे।

सन् 1944 में, उनकी मदद से एक गुप्त प्रसारण सेवा की स्थापना भी की गई। उन्होंने रेडियो ऑपरेटर्स और जासूसों की एक टीम का नेतृत्व किया, जो भारत और सिंगापोर के बीच गुप्त संचार स्थापित करने के लिए अपने स्वयं के ट्रांसमीटर और रिसीवर स्थापित करते थे। इस चैनल को लगभग एक साल तक दोनों देशों के बीच, महत्वपूर्ण सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए संदेश भेजने की अनुमति मिली थी। इन सभी कामों को बेला कलकत्ता से अकेले ही संभालती थीं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों में से एक बेला, आईएनए का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थीं। उन्होंने देश के लिए अपनी जान को जोखिम में डाल दिया था।

पति को मौत के मूंह से बचाया

Bela Mitra (L); Belanagar Railway Station (R)

दूसरे विश्व युद्ध के बाद उनके पति हरिदास के साथ तीन अन्य क्रांतिकारियों पबित्रा रॉय, ज्योतिष चंद्र बोस और अमर सिंह पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया और उन्हें देशद्रोही करार दे दिया गया। इसके बाद, सन् 1945 में, मनमाने ढंग से उन्हें मौत की सजा सुना दी गई। इन सबको बचाने के लिए बेला ने, महात्मा गांधी से मदद लेने के लिए पुणे तक का सफर तय किया।

उन्होंने सजा को कम करने के लिए भारत के वायसराय लॉर्ड वेवेल को भी एक पत्र लिखा, और अतंतः वह मृत्यु की सजा को आजीवन कारावास में बदलवाने में कामयाब हो गईं। स्वतंत्रता मिलने के बाद इस सजा का कोई मतलब नहीं था।

राजनीति से दूर रहीं बेला

भारत की आजादी के बाद, बेला के पति को कारावास से रिहा कर दिया गया। उनके साथ और भी कई क्रांतिकारियों को रिहा किया गया था। इसके बाद, जहां हरिदास कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और उन्हें विधानसभा का उपाध्यक्ष बना दिया गया। वहीं, बेला ने राजनीति से दूर रहने का फैसला किया।

बेला ने राजनीति के बजाय, विभाजन के कारण हुई हिंसा से प्रभावित लोगों की मदद करने का फैसला किया। वह हमेशा निस्वार्थ भाव से जनता की सेवा करना चाहती थीं। उन्होंने पश्चिम बंगाल में शरणार्थियों की सहायता के लिए, सन् 1947 में ‘झांसी रानी रिलीफ टीम’ नाम का एक सामाजिक संगठन बनाया। इसका सारा काम बेला ही संभालती थीं।

उनका काम भारत के सामाजिक ताने-बाने के कारण मन और शरीर पर लगे उन घावों को ठीक करना था, जो विभाजन के दौरान लोगों को मिले थे। पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर, भारत आए लाखों शरणार्थियों की वह हर तरह से मदद कर रही थीं। 

अंतिम सांस तक करती रहीं सेवा

अभयनगर की बेली दंकुनी लाइन पर भी बेला ने शरणार्थी शिविर लगाया था। यहां, वह दूसरे देश से आए शरणार्थियों के पुनर्वास की देख-रेख के लिए रुकी थीं। बेघरों के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयासों को श्रद्धांजलि देने के लिए पूर्वी रेलवे ने, अभय नगर में उसी हावड़ा बर्धमान लाइन के रेलवे स्टेशन का नाम बदलने का फैसला किया, जहां पहले उनका शरणार्थी शिविर था। वह जुलाई 1952 में, अपनी अंतिम सांस तक जनता की सेवा करती रहीं।

हांलाकि उनकी कहानी अभी भी अनछुई और इतिहास के पन्नों में कहीं खोई हुई है। लोग बेला के बारे में ज्यादा नहीं जानते। लेकिन फिर भी यह सच नहीं बदल सकता कि उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर देश की सेवा की, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां एक आजाद और स्वतंत्र देश में सांस ले सकें।

मूल लेखः- अन्नया बरुआ

संपादनः अर्चना दुबे

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