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कहानी सुपारी किसानों की, जिन्होंने भारत की तीसरी सबसे बड़ी चॉकलेट कंपनी बनाई

Chocolate Manufacturers In Karnataka

आपका फेवरेट चॉकलेट कौनसा है? डेयरी मिल्क, पर्क या किटकैट? आप किस ब्रांड की चॉकलेट आइसक्रीम पसंद करते हैं, बास्किन रॉबिंस, अमूल, या वाडीलाल? या चॉकलेट बिस्किट के लिए आपकी नंबर एक पसंद कौन सी है, डार्क फैंटेसी, हाइड एंड सीक या बॉर्बन? कहने की जरूरत नहीं है, इन विकल्पों में से किसी एक को चुनना काफी मुश्किल है। यदि आप कभी भी सबसे बेहतर चॉकलेट उत्पाद को लेकर, किसी बहस में शामिल हुए हैं, तो यकीन मानिए, कर्नाटक की इस चॉकलेट कंपनी की यहाँ दी गई जानकारियां आपको बेहद दिलचस्प लगेंगी। ज़रा सोचिए अगर हम आपसे कहें कि ये उत्पाद विभिन्न कंपनियों द्वारा बनाए तो गए हैं, लेकिन इनका मूल एक ही है? आपकी पसंदीदा, चॉकलेट की कम से कम एक ‘सामग्री सेंट्रल ऐरेका नट मार्केटिंग ऐंड प्रोसेसिंग कोऑपरेटिव’, या ‘Campco’ से आया होगा। इस कंपनी की कहानी दिल को छू लेने वाली तो है ही, साथ ही आप उन सुपारी किसानों का धन्यवाद करना भी नहीं भूलेंगे जो हमारे जीवन में इतना मिठास लेकर आए हैं।

देश के उत्तरी क्षेत्र में Campco कंपनी थोड़ी कम प्रसिद्ध भले है लेकिन, कैडबरी और नेस्ले के बाद यह भारत में चॉकलेट की तीसरी सबसे बड़ी उत्पादक है। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि आइसक्रीम, बिस्कुट और पेय सहित लगभग सभी चॉकलेट वाले उत्पाद, जिनका हम उपभोग करते हैं, उनमें थोड़ा सा Campco है। यह कंपनी मंगलुरु से लगभग 52 किलोमीटर दूर कोर्नडका (Koornadka) में स्थित है और 1973 में सुपारी किसानों के एक समूह द्वारा शुरू की गई थी।

किसानों को एकजुट करने के लिए बनी Campco

Stone laying ceremony of Campco. Varanashi in grey trousers with dignitaries.

कैम्पको के गठन के पीछे उद्देश्य था कि किसान एकजुट हो जाएं ताकि कॉरपोरेट बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने फायदे के लिए उनका शोषण ना कर सकें और किसान कोको उगा कर अपने स्वयं का भविष्य सुरक्षित कर सकें। यह कंपनी सुपारी से प्रति वर्ष 1,800 करोड़ रुपये का कारोबार करती है, वहीं चॉकलेट यूनिट लगभग 300 करोड़ रुपये का योगदान करती है।

कैम्पको के मैनेजिंग एंड एग्जक्यूटिव डायरेक्टर एच एम कृष्णकुमार कहते हैं कि कर्नाटक और केरल में सुपारी उगाने वाले किसान आर्थिक संकट का सामना कर रहे थे और इसको देखते हुए ही कंपनी की स्थापना हुई थी। उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया, “उपज की कीमतें कम हो गई और किसानों को न्यूनतम आय के मामले में मूल्य स्थिरता की जरूरत थी। कैम्पको के संस्थापक, वाराणशी सुब्रया भट (जो एक किसान भी थे) ने संकट का हल निकालने के लिए कंपनी की स्थापना करने का विचार दिया।”

कृष्णकुमार कहते हैं कि वाराणशी केवल सुपारी की खेती पर भरोसा न करने के विचार के साथ आए और उन्होंने सुझाव दिया कि किसान इंटरक्रॉप के रूप में कोको और काली मिर्च उगाएं।

1970 के दशक में, अमूल और कैडबरी चॉकलेट बनाने के लिए कोको के खरीदार बन गए। 1979 में कीमतें 13.65 रुपये प्रति किलो से घटकर 5.30 रुपये प्रति किलो रह गईं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों में गिरावट आई और कंपनियों ने उत्पाद खरीदना बंद कर दिया। कृष्णकुमार कहते हैं, “बाजार को स्थिर करने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दया पर न बने रहने के लिए, कंपनी ने 1980 और 1985 के बीच 337 टन उत्पादन खरीदकर किसानों को राहत देने का फैसला किया। Campco ने किसानों को नुकसान से बचाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रदान किया। गुणवत्ता वाले कोको बीन्स के उत्पादन में वृद्धि हो रही थी लेकिन, खरीददार कम थे। तब कंपनी ने चॉकलेट उत्पाद बनाने का फैसला किया।”

कृष्णकुमार कहते हैं कि किसानों ने उच्च गुणवत्ता वाला कोको उगाया। लेकिन, वैश्विक चॉकलेट कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए उन्हें ट्रेनिंग की जरुरत थी। उन्होंने कहा, “किसानों को चॉकलेट बनाने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। लेकिन, सभी ने इस क्षेत्र में प्रवेश करने का फैसला किया।”

प्रीमियम गुणवत्ता वाली चॉकलेट का उत्पादन करने के लिए, 1986 में चॉकलेट यूनिट की स्थापना हुई थी और जो उन्होंने बनाया वे ब्राजील, घाना और अन्य कोको की खेती करने वाले देशों के बराबर थे। यह दक्षिण पूर्व एशिया में यकीनन सबसे बड़ा कारखाना बन गया। कृष्णकुमार का कहना है कि कंपनी ने पैसा कमाने के लिए सूखी कोको बीन्स का भी निर्यात किया।

वह याद करते हुए बताते हैं कि शुरुआती वर्ष में काफी संघर्ष करना पड़ा और कंपनी ने तत्काल कोई लाभ नहीं कमाया। वह कहते हैं, “समय कठिन था। अंतरराष्ट्रीय बाजार में उतार-चढ़ाव के बावजूद, किसानों को उनकी उपज के लिए उच्च दर दी गई थी। नुकसान सहन करके, कंपनी ने उन्हें स्थिर आय के साथ लाभ कमाने का मौका दिया। कोको के लिए बेहतर दरों की पेशकश करके किसानों का समर्थन करने के अलावा, कंपनी ने उन्हें आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके गुणवत्ता वाली फसलें उगाने और मेडिकल तथा वित्तीय सहायता प्रदान करने में मदद की है।”

हर चॉकलेट में Campco

1994 में, Campco ने कोको मक्खन, चॉको मास और चॉकलेट कंपाउंड को बेचकर कंपनियों को कच्चे माल की आपूर्ति शुरू की, जो चॉकलेट, कुकीज़, आइसक्रीम और पेय पदार्थ बनाने में इस्तेमाल होता है। कृष्णकुमार कहते हैं, “भारत में किसी भी चॉकलेट उत्पाद का नाम लें, इसमें कम से कम एक सामग्री तो जरूर होगी, जो Campco से आती है।”

वह कहते हैं कि अमूल, ब्रिटानिया, आईटीसी, यूनिबिक, पार्ले, कैडबरी, हर्शीज और लॉट सहित कई कंपनीयां Campco से चॉकलेट लेती हैं और चॉकलेट चिप्स से लेकर बॉर्नविटा और हॉर्लिक्स जैसे मिल्क पाउडर तक के कई प्रकार के उत्पादों में उनका इस्तेमाल करती हैं। कारखाना में हर साल कम से कम 50 कोको उत्पाद बनते हैं। कंपनी की Campco बार, मेल्टो, क्रीम, और टर्बो सहित इसकी अपनी चॉकलेट भी हैं, जो कर्नाटक में काफी लोकप्रिय है।

कीमतों में उतार-चढ़ाव से बचने के लिए, 1990 के दशक में, कंपनी ने नेस्ले के साथ 10 साल का समझौता किया। बहुराष्ट्रीय कंपनी, भारतीय बाजार पर नजर गड़ाए हुए थी और Campco के साथ उन्हें मौका मिल गया। समझौते के अनुसार, नेस्ले के लिए Campco से कोको की बीन्स या फलियों को उठाना भी अनिवार्य कर दिया। इस समझौते से किसान-सहकारी सुरक्षा पाने में मदद मिली। अगर ऐसा नहीं होता तो नेस्ले अपने उत्पादन के लिए कोको की फलियों का आयात कर सकती थी।

मुख्य रूप से सुपारी उत्पादन के अंतर्गत काम करते हुए, चॉकलेट यूनिट ने 2005 में मुनाफा कमाना शुरू कर दिया था और तब से, इसका हिस्सा बढ़ रहा है।

हालांकि, 2012 और 2015 के बीच एक संकट आया, जब कोको की कीमतें 40-50 रुपये प्रति किलो के मुकाबले 35 रुपये तक गिर गईं। कृष्णकुमार कहते हैं, “कंपनी को नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन फिर भी उसने किसानों को 50-55 रुपये प्रति किलो का भुगतान किया।“

किसान प्राथमिकता हैं

कृष्णकुमार का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में चॉकलेट और उसके उत्पादों की मांग में दस गुना वृद्धि हुई है। वह कहते हैं, “यह हर साल 15-20% तक बढ़ जाता है। उत्पादन बढ़ने से लागत भी बढ़ती है। चॉकलेट बनाना महंगा है और हमारा लगातार प्रयास रहता है कि लागत को कम किया जा सके। कंपनी की सभी ऊर्जा जरूरतों का 65% पवन और सौर ऊर्जा से पूरा होता है। हमारा लक्ष्य 45% ऊर्जा उपयोग को अलग से सौर में बदलना है।”

उनका कहना है कि कारखाने को प्रतिदिन लगभग 3,00,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। वह कहते हैं, “हमारे पास 13 एकड़ के परिसर में एक वर्षा जल संचयन प्रणाली और दो तालाब हैं। पानी की प्रत्येक बूंद जमीन में संचित होती है। लगभग 30 करोड़ लीटर पानी स्टोर किया गया है जो लगभग 100 दिनों तक पानी की जरूरतों को पूरा करने में मदद करता है।”

कंपनी ने जैव-बॉयलर भी स्थापित किए हैं, जो जैव ईंधन का उपयोग करते हैं और जीवाश्म ईंधन के उपयोग में कटौती करते हैं, जिससे 1.2 करोड़ रुपये की बचत होती है।

हमारा व्यवसाय, मार्केटिंग में निवेश और उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार पर केंद्रित है। यह कई रिसर्च भी कर रही है ताकि कंपाउंड चॉकलेट की जगह शुद्ध चॉकलेट बनाया जा सके। वर्तमान में, Campco सालाना सात हजार मीट्रिक टन चॉकलेट का उत्पादन करता है। कंपनी में 1.16 लाख से अधिक व्यक्तिगत उत्पादक और 570 किसान सहकारी समीतियां हैं।

कृष्णकुमार कहते हैं, “हम किसानों के हितों की रक्षा करना जारी रखेंगे क्योंकि, यही वह सिद्धांत है जिस पर कंपनी की स्थापना हुई थी। लाभ कमाने से ज्यादा, यह किसान हैं जो सहकारी कंपनी की प्राथमिकता बने हुए हैं।”

किसान भारत की नींव हैं और Campco की सफलता की कहानी, इसका एक शानदार उदाहरण है।

मूल लेख- हिमांशु नित्नावरे

संपादन- जी एन झा

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