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रानी गाइदिन्ल्यू: 17 साल की उम्र में हुई थी जेल, आज़ादी के बाद ही मिली रिहाई

Woman Freedom Fighter

असम के हंगरूम गाँव (Hangrum Village) का इतिहास वर्षों पुराना है। पहाड़ों की चोटी पर बसा यह गाँव जितना खूबसूरत है, उतना ही कठिन है वहाँ तक पहुँचना। इस गाँव का जिक्र डॉ. आरकोतोंग लोंगकुमर ने अपनी किताब, ‘Reform, Identity and Narratives of Belonging: The Heraka Movement in Northeast India‘ में किया है। इस गाँव को, उत्तर-पूर्वी राज्यों की मशहूर महिला स्वतंत्रता सेनानी (Woman Freedom Fighter) व क्रांतिकारी रानी गाइदिन्ल्यू (Rani Gaidinliu) के इतिहास में खास स्थान मिला है। कहते हैं कि साल 1932 में हंगरूम युद्ध के दौरान मणिपुर सीमा तक पहुँचने के लिए रानी गाइदिन्ल्यू इसी गाँव से बचकर निकली थीं। 

वैसे तो इस गाँव के जटिल इलाकों के चलते, यहां संपर्क कर पाना मुश्किल है। लेकिन यहाँ एक ऐसी जगह है, जहाँ से आप पूरी घाटी देख सकते हैं। मणिपुर सीमा तक जाती, इसकी चोटियों के सहारे यहाँ से निकलने के कई रास्ते हैं। जिनका उपयोग रानी गाइदिन्ल्यू ने किया था। 

वैसे तो देश की आजादी में रानी गाइदिन्ल्यू के योगदान पर, इतिहास की किताबों में ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है। लेकिन, रानी गाइदिन्ल्यू ने बहुत ही कम उम्र में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ी थी। आरकोतोंग ने अपनी किताब में हंगरूम गाँव के एक बुजुर्ग से बातचीत के बारे में लिखा है। उन्होंने बताया, “सुरंगों, गुप्त प्रवेश द्वार और ठिकानों ने उन्हें ब्रिटिश सरकार से छुपा दिया था लेकिन, अपने लोगों के लिए वह उपलब्ध थीं। उन पर लोगों का विश्वास और मजबूत होता गया। उनके कारनामों की अफवाहें जैसे- गोलियों को पानी में बदलना और अपनी दल के लोगों पर हमला करने वालों को जादू (kiantau) से खत्म करना आदि बातें आग की तरह फैलने लगी थीं।”

लोग मानते थे देवी का अवतार

रानी गाइदिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी 1915 में मणिपुर के तमेंगलोंग जिले के नुंगकाओ गाँव में हुआ था। इस गाँव को लुआंगकाओ भी कहा जाता है। उनकी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। फिर भी, वह स्वदेशी तरीके से शिक्षित थीं।

मुंबई के ‘टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज’ के एक पीएचडी छात्र, रिचर्ड कमेइ कहते हैं कि वह पाँच साल के थे जब उन्होंने रानी गाइदिन्ल्यू की कहानियां सुनीं। वह बताते हैं, “बड़े लोग हमेशा उनकी कहानियां बहुत श्रद्धा से सुनाते हैं क्योंकि, उन्होंने हम ज़ेलियांगरोंग लोगों की माटी और समुदाय के लिए क्रांति की थी। रानी गाइदिन्ल्यू रोंगमेई नागा जनजाति की थीं, जो हमारी जनजाति भी है। यह ज़ेलियांगरोंग के अंतर्गत आने वाली जनजातियों में से एक है।”

संस्कृति में डूबी, गाइदिन्ल्यू हमेशा ज़ेलियांगरोंग लोगों की विरासत को संरक्षित करने के लिए उत्सुक थीं, जो अभी भी असम, मणिपुर और नागालैंड में फैले हुए हैं। 

Rani Gaidinliu postage stamp issued by the Government in 1996. Picture Source: Santish-Singh/Facebook

ब्रिटिश भारत में पली-बढ़ी रानी गाइदिन्ल्यू ने, अपने चचरे भाई और कबीले के आध्यात्मिक नेता, हाइपो जादोनंग को देखा, जो नागा जनजातियों की इच्छा के विरुद्ध, धर्म परिवर्तन करने के इच्छुक ब्रिटिश मिशनरियों के खिलाफ आवाज उठाते थे। जादोनंग और गाइदिन्ल्यू, दोनों को ही कबीले के मसीहा के रूप में देखा जाता था। जादोनंग को ज़ेलियांगरोंग लोगों के उद्धारक और गाइदिन्ल्यू को देवी नमगिनाई के अवतार के रूप में देखा जाता था। 

रिचर्ड आगे कहते हैं “औपनिवेशिक शासन के रूप में बाहरी ताकतें उनकी भूमि तथा प्रशासन पर कर लगा रहीं थीं और श्रम के लिए मजबूर करने के साथ-साथ ईसाई मिशनरी, अपनी संस्कृति को भी उन पर थोप रहे थे। इन सबके बीच, ज़ेलियांगरोंग आंदोलन में स्वतंत्रता की मांग करने और अपने लोगों और उनकी जमीनों को मुक्त करने के लिए सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक पहलुओं को भी शामिल किया।” 

1927 में, मात्र 13 साल की उम्र में वह जादोनांग द्वारा शुरू किए गए सामाजिक-धार्मिक आंदोलन में शामिल हुई, जिसका नाम था ‘हेरेका आंदोलन’ और हेरेका का मतलब होता है ‘पवित्र’। उस किशोरी द्वारा कहे गए शब्द आज भी लोगों के जहन में गूंजते हैं। उन्होंने कहा, “हम आजाद लोग हैं, गोरों को हम पर हुकूमत नहीं करना चाहिए।”

यह आंदोलन नागाओं द्वारा शासन स्थापित करने का एक प्रयास था। इस जमीन के लोगों ने ज़ेलियांगरोंग समुदाय द्वारा पूजे जाने वाले सभी देवताओं में से एक, तिंग्काओ रवांग की पूजा का प्रचार किया, जिन्हें वे ‘सर्वोच्च’ निर्माता मानते थे। यह ब्रिटिश राज द्वारा ईसाई धर्म में धर्मांतरण का विरोध करने के लिए, किया गया था। 

हालांकि, औपनिवेशिक शक्तियों ने जादोनांग को एक धार्मिक पंथ बनाने वाले और ‘गाइदिन्ल्यू’ को ‘मायावी’ के रूप में चिह्नित किया। 1931 में, जादोनांग को ब्रिटिश राज ने राजद्रोह और कथित तौर पर, मणिपुरी व्यापारियों की हत्या में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया था। 29 अगस्त 1931 को उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। इसके बाद, इस आंदोलन को आगे बढ़ाने का जिम्मा गाइदिन्ल्यू ने उठाया। 

हंगरूम का युद्ध

गाइदिन्ल्यू ने नियमित रूप से गांधीवादी सिद्धांतों का प्रचार किया और अपने लोगों को, कर का भुगतान न करके, ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। उनके शब्दों में, “धर्म की हानि संस्कृति की हानि है तथा संस्कृति की हानि पहचान की हानि है।”

ज़ेलियांगरोंग जनजाति के लोग पुलिस और असम राइफल्स द्वारा लगाए गए, औपनिवेशिक शासन और कई दमनकारी उपायों का विरोध करने के लिए, एक साथ आए और जुर्माना भरने से इनकार कर दिया। इसे पूर्वोत्तर का असहयोग आंदोलन कहा गया। 

17 वर्ष की आयु में, गाइदिन्ल्यू ने अंग्रेजों के खिलाफ कई छापामार युद्ध रणनीति का नेतृत्व किया। आरकोतोंग लिखते हैं, “18 मार्च 1932 को, हंगरूम गाँव के 50-60 लड़ाके, एक ढलान पर पहुँचे और उनकी पोस्ट के नीचे तैनात सिपाहियों पर हमला किया। नीचे तैनात सिपाहियों के लिए, इससे अच्छा कोई और सुविधाजनक स्थान नहीं हो सकता था। उन्होंने ढलान से नीचे उतरते लड़ाकों पर बंदूक से निशाना साधा, जिनका मुकाबला तीर और भाले नहीं कर सकते थे।” 

इस घटना के बाद, रानी गाइदिन्ल्यू ने बचाव रास्तों का इस्तेमाल करते हुए मणिपुर सीमा तक पहुंची और भूमिगत हो गई।

Rani Gaidinliu instigated her people not to pay taxes and rebel against the Raj. Picture Source: PIB

आरकोतोंग के अनुसार, गाइदिन्ल्यू ने पुलोमी गाँव के लोगों को एक विशाल गढ़ बनाने का निर्देश दिया, जो उन्हें और उनके योद्धाओं को साथ रख सके। वह लिखते हैं कि जिन्होंने इस निर्माण को देखा, उनके मुताबिक यह नोकदार लकड़ियों की मोर्चाबंदी थी, जिसे हँगरूम किले की तरह बनाया गया था। गाइदिन्ल्यू ने खुद अंदर से, अपने लोगों के साथ नाकाबंदी की। यह बाड़ा 18 फीट ऊँचा था। 

हालांकि, 17 अक्टूबर 1932 को, गाइदिन्ल्यू को कैप्टन मैकडोनाल्ड ने पकड़ लिया था, जिन्होंने गाँव पर अचानक हमला किया था। उसे कोहिमा तक पैदल और बाद में इम्फाल ले जाया गया, जहाँ उन पर हत्या के आरोप का मुकदमा चलाया गया। बाद में, उन्हें राजनीतिक एजेंट के न्यायालय के तहत, आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

पूर्वोत्तर की ‘रानी’ 

1937 में, मणिपुर के अपने दौरे पर, जवाहरलाल नेहरू ने शिलांग जेल में, गाइदिन्ल्यू से मुलाकात की और उन्हें मुक्त कराने का वादा किया। हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख में गाइदिन्ल्यू को ‘पहाड़ों की बेटी’ के रूप में वर्णित किया गया था और नेहरू ने उन्हें ‘रानी’ की उपाधि दी। यह भी कहा जाता है कि रानी गाइदिन्ल्यू की रिहाई के लिए नेहरू ने ब्रिटिश सांसद, लेडी एस्टोर को लिखा था। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि, उन्होंने कहा था कि अगर रानी को रिहा कर दिया गया, “वह फिर से ब्रिटिश राज के लिए परेशानी का सबब बन सकती है।”

14 साल जेल में रहने के बाद, भारत की आजादी के बाद, रानी गाइदिन्ल्यू को 1947 में आखिरकार रिहा कर दिया गया। जिसके बाद, उन्होंने अपने लोगों की भलाई के लिए काम करना जारी रखा। उन्होंने भारत संघ के भीतर एक अलग ज़ेलियांगरोंग क्षेत्र की मांग की। 60 के दशक में, उन्हें कुछ अन्य नागा नेताओं के विरोध के कारण, फिर से भूमिगत होना पड़ा था। 

रिचर्ड कहते हैं, “60 के दशक के बाद, उन्होंने एक आंदोलन का नेतृत्व किया जिसमें असम, मणिपुर और नागालैंड राज्यों के रहने वाले लोगों के लिए एक मातृभूमि की मांग की गई थी। उन्होंने केंद्र, विशेषकर तत्कालीन प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ इस बारे में नियमित रूप से बातचीत की।”

स्वतंत्रता संग्राम में उनके सभी प्रयासों के लिए, उन्हें 1972 में ताम्र पत्र, 1982 में पद्म भूषण, विवेकानंद सेवा पुरस्कार (1983) और भारत सरकार द्वारा मरणोपरांत बिरसा मुंडा पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सरकार ने 1996 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट और 2015 में एक स्मारक सिक्का भी जारी किया। लेकिन तमेंगलोंग में करोड़ों रुपये की परियोजना ‘रानी गाइदिन्ल्यू महिला बाजार’, जिसका उद्घाटन साल 2018 में होना था, अभी बाकी है। 

17 फरवरी 1993 को रानी गाइदिन्ल्यू का 78 वर्ष की आयु में निधन हो गया, लेकिन उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा रखने वाले लोगों के बीच, आज भी उनकी विरासत बरकरार है। रिचर्ड अंत में कहते हैं, “रानी ने अपने जीवन में जो संघर्ष किया है, वह देश के लिए एक संदेश है और साथ ही, स्थानीय समुदायों के अधिकारों और उनके हितों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।” 

मूल लेख: योशिता राव 

संपादन- जी एन झा

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