हमने ज़्यादातर इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम साल 1857 की क्रांति से शुरू हुआ। इस क्रांति का बिगुल एक आम सैनिक मंगल पांडेय ने बजाया था। लेकिन इतिहासकारों की मानें तो ऐसे बहुत से अनसुने नाम हैं, जिन्होंने मंगल पांडेय से भी पहले लोगों के दिलों में क्रांति के बीज बो दिए थे।
विडंबना यह है कि इन क्रांतिकारियों को इतिहास में न तो जगह मिली है और न ही देशवासियों तक उनकी कहानियां पहुंची हैं। इन गुमनाम नायकों में एक नाम है बिंदी तिवारी!
बिंदी तिवारी ने मंगल पांडेय से लगभग 4 दशक पहले ब्रिटिश सेना की क्रूरता के खिलाफ आवाज़ उठाई थी!
वह साल था 1824 और पहला आंग्ल- बर्मा युद्ध शुरू हो चुका था। यह युद्ध उत्तर-पूर्वी भारत के आधिपत्य के लिए लड़ा गया था। साल 1822 में बर्मा की सेना ने मणिपुर और असम में घुसकर ईस्ट- इंडिया कंपनी के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था।
ऐसे में, बंगाल से ब्रिटिश सेना की टुकड़ियों को बर्मा जाने के आदेश मिला। इन सैनिकों को समुद्र के रास्ते बर्मा पहुँचने का आदेश दिया गया। इन टुकड़ियों में शामिल बहुत से भारतीय सैनिक इस युद्ध के लिए नहीं जाना चाहते थे। मथुरा की छावनी में सैनिकों ने अपील भेजी कि बहुत से भारतीय सैनिक अपनी कुछ धार्मिक आस्था के चलते समुद्र पार नहीं करना चाहते हैं।
लेकिन ब्रिटिश शासन ने उनकी इस अपील को अनदेखा कर, उन्हें बैरकपुर छावनी पहुँचने के आदेश दिए। बैरकपुर पहुँचने वाली इन सैन्य टुकड़ियों में एक टुकड़ी के लीडर सिपाही बिंदी तिवारी थे। उनके बारे में इससे ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। बस इतना ही पता है कि बिंदी एक ‘पुरबिया सिपाही’ (पूर्वी उत्तर-प्रदेश से) थे, जो बंगाल आर्मी में तैनात थे।
बैरकपुर पहुँचने के बाद सिपाहियों को बताया गया कि अब उन्हें ‘चटगाँव’ (वर्तमान में बांग्लादेश का प्रमुख बंदरगाह और दूसरा सबसे बड़ा शहर) जाना है, जहाँ से उन्हें जहाज़ से रंगून ले जाया जाएगा। स्थिति खराब तब हो गई जब सिपाहियों से कहा गया कि उन्हें चलकर ही चटगाँव जाना पड़ेगा।
ब्रिटिश सेना ने सिर्फ ब्रिटिश अफसरों के लिए बैलगाड़ी आदि का इंतज़ाम किया था। भारतीय सिपाहियों को न सिर्फ पैदल चलना था बल्कि अपना सामान भी उन्हें खुद ही लेकर जाना था। उनके सामान में उनके हथियार, बर्तन, कपड़े, सोने के लिए गद्दे आदि और अन्य कुछ निजी चीजें थीं। भारतीय सिपाहियों को यह सब अपने कंधों और पीठ पर ढोना था।
इस परिस्थिति में सैनिकों ने ब्रिटिश सरकार से मांग की कि उन्हें कम से कम उनके सामान के लिए ट्रांसपोर्टेशन की सुविधा दी जाए और युद्ध में लड़ने के लिए उनका भत्ता दुगुना किया जाए। लेकिन अंग्रेजों ने भारतीय सिपाहियों की इन मांगों को खारिज कर दिया।
बिंदी तिवारी ने इस अन्याय को सहने से इंकार कर दिया। उन्हें पता था कि सिर्फ भारतीय होने के कारण उनके साथ यह अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है। उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि जब तक ब्रिटिश सरकार उनकी मांगे नहीं मानेगी, वे लोग युद्ध का हिस्सा नहीं बनेंगे।
अंग्रेजों के रवैये के खिलाफ अपने बटालियन लीडर को बगावत करते देख सैनिकों को बहुत हौसला मिला। उन्होंने भी आगे बढ़ने से इंकार कर दिया। इस बात की खबर जब ब्रिटिश कमांडर तक पहुंची तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। धीरे-धीरे बाकी रेजिमेंट में भी इस विद्रोह की खबर पहुँच गई।
दूसरी रेजिमेंट भी इस तरह बगावत न करने लगें, इस बात को ध्यान में रखते हुए कमांडर ने बिंदी को अपनी मांगों से पीछे हटने के लिए कहा। लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
ऐसे में, ब्रिटिश सेना ने चुपके से सभी विद्रोह कर रहे सैनिकों को घेर लिया और उन पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं। बिंदी और उनके साथियों को इस हमले का अंदेशा तक नहीं था और इसलिए उन्होंने भागने की कोशिश की। लेकिन ब्रिटिश सेना ने उन्हें चारों तरफ से घेर रखा था। बहुत से सैनिक हुगली नदी में कूद गए और पानी में बह गए। इस हमले में आसपास के आमजन भी मारे गए।
बताया जाता है कि बिंदी के शव को अंग्रेजी अफसर ने चेन से बांधकर एक पीपल के पेड़ पर कई दिनों तक लटकाया। ऐसी क्रूरता दिखाकर ब्रिटिश सेना यह चेतावनी देना चाहती थी कि अन्य कोई भारतीय कभी भी उनके खिलाफ आवाज़ नहीं उठाए।
लेकिन ब्रिटिश सेना की इस बर्बरता की खबर हर एक रेजिमेंट और सैन्य टुकड़ी में पहुँच चुकी थी। यहाँ से ब्रिटिश सेना का पतन शुरू हुआ क्योंकि बहुत से भारतीय अफसर जो ब्रिटिश सरकार के लिए काम करते थे, उन्होंने अपने पद छोड़ दिए। साथ ही, ब्रिटिश सरकार की नीतियों की हर जगह निंदा हुई और उन्हें अपने कई अफसरों को वापस इंग्लैंड भेजना पड़ा।
सबसे ज्यादा धक्का उन्हें तब लगा जब बहुत से आम सिपाहियों ने ब्रिटिश सेना छोड़ दी। इससे तत्कालीन ब्रिटिश कमांडर की न सिर्फ भारत में बल्कि इंग्लैंड के लोगों में भी नकारात्मक छवि बनी। बहुत से लोगों ने कमांडर के खिलाफ कार्रवाई की मांग की।
जहां बिंदी के शव को लटकाया गया था वहां लोगों ने उनके नाम से एक तीर्थस्थान बना दिया और ‘कर्नल’ बिंदी तिवारी के नाम से उनकी प्रतिमा भी स्थापित की। आज भी लोग यहाँ पर उन्हें शहीद बिंदी तिवारी के नाम से याद करते हैं। वह एक ऐसे शूरवीर थे जिन्होंने नि़डर होकर भारतीय सैनिकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।
भले ही, इतिहास में इस घटना को कोई स्थान नहीं मिला, लेकिन हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि इन छोटे -छोटे सैन्य विद्रोहों से ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी गई थी!
बिंदी तिवारी की ही तरह बहुत से ऐसे गुमनाम नायक-नायिकाएं हैं, जिनकी तस्वीरें तक उपलब्ध नहीं हैं। #अनदेखे_सेनानी, सीरीज़ में हमारी यही कोशिश रहेगी कि आज़ादी के इन परवानों की कहानियां हम आप तक पहुंचाएं। यदि आपको कहीं भी इनकी तस्वीरें मिलें तो हमें इमेल करें या फेसबुक या ट्विटर के माध्यम से कमेंट या मैसेज में बताएं!
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संपादन – अर्चना गुप्ता