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स्वामी दयानंद सरस्वती : वह सन्यासी जिसने धार्मिक कुरीतियों को दरकिनार कर धर्म का एक नया अध्याय लिखा!

महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती

र्य समाज के संस्थापक और आधुनिक पुनर्जागरण को दिशा देने वाले महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात में मोराबी के टंकारा गांव में हुआ था। मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था। उनके पिता का नाम कृष्णलाल जी तिवारी था और माँ का नाम अमृतबाई।

एक सन्यासी और महान चिन्तक के रूप में जाने जाने वाले स्वामी जी ने कर्म सिद्धान्त, पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनायें। उन्होंने ही सबसे पहले 1876 में ‘स्वराज्य’ का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया।

दयानंद के पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। जिसके चलते दयानंद ने संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन बिना किसी परेशानी के किया। बचपन से ही उनके पिता की शिवभक्ति से वे भी प्रेरित हुए।

स्वामी दयानंद के जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएँ हुईं, जिनकी वजह से उन्होंने समाज के कई मूल्यों पर प्रश्न उठायें और ज्ञान की खोज में निकल पड़े।

इसकी शुरुआत शिवरात्री के दिन से हुई थी। तब वे छोटे ही थे। शिवरात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात को जागरण के लिए एक मन्दिर में रुका हुआ था। सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे।

दयानंद सरस्वती

पर उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देख कर वे चौंक गये और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? उस दिन से उनका विश्वास मूर्तिपूजा पर से उठ गया।

इस घटना ने उन्हें बहुत प्रभावित किया और उन्होंने आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए घर छोड़ दिया। जगह-जगह घूमते हुए स्वामी जी ने अंधविश्वास के खिलाफ लोगों को जागरूक किया। उन्होंने वेदों के माने हुए विद्वान स्वामी विरजानंद जी से शिक्षा ग्रहण की और सन्यासी बन गये।

सन्यास ग्रहण करने के बाद से यह स्वामी दयानंद सरस्वती कहलाये। उन्होंने साल 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। इस संस्था ने बाल विवाह, सती प्रथा जैसी कुरीतियों को दूर करने और विधवा विवाह एवं शिक्षा का प्रसार किया।

आर्य समाज लोगो

आर्य समाज की स्थापना के साथ ही भारत की कहीं गुम हो गयीं वैदिक परंपराओं को पुनः स्थापित करके विश्व में हिन्दू धर्म की पहचान करवाई। कहते हैं कि जब स्वामी जी 1872 में कलकत्ता में केशवचन्द्र सेन से मिले तो उन्होंने स्वामी जी को यह सलाह दी कि आप यदि हिन्दी में भी बोलना आरम्भ कर दें तो भारत का असीम कल्याण हो।

इसके बाद उन्होंने हिन्दी में ग्रंथ रचना आरंभ की तथा पहले के संस्कृत में लिखित ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद भी किया। वेदों का ज्ञान पाकर कैसे जीवन के सार को समझा जा सकता है इसका व्याख्यान उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में हिंदी में ही लिखा है।

महर्षि दयानंद सरस्वती का भारतीय स्वतंत्रता अभियान में भी बहुत बड़ा योगदान था। उन्होंने निडर होकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ बगावत की। पूरे देश की यात्रा के दौरान उन्होंने पाया कि देश की जनता भी ब्रिटिश राज से मुक्ति चाहती है और इसके लिए उन्हें बस सही मार्गदर्शन की जरूरत है।

ऐसे में महर्षि दयानंद देश को आपस में जोड़ने वाले सेतु बने। उस समय के महान क्रांतिकारी भी स्वामी जी के विचारों से प्रभावित हुए, जिनमें शामिल थे भिकाजी कामा, पंडित लेखराम आर्य, स्वामी श्रद्धानन्द, पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद ‘बिस्मिल’, महादेव गोविंद रानडे, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय इत्यादि।

 

स्वाधीनता के इतिहास में जितने भी आंदोलन हुए उनके बीज स्वामी जी अपने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के माध्यम से डाल गए थे।

‘नमक आंदोलन’ के बारे में उन्होंने तभी लिख दिया था, जब गाँधीजी मात्र 6 वर्ष के बालक थे! सन्‌ 1857 में स्वामीजी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है, “नोंन (नमक) के बिना दरिद्र का भी निर्वाह नहीं, किंतु नोंन सबको आवश्यक है। वे मेहनत मजदूरी करके जैसे-तैसे निर्वाह करते हैं, उसके ऊपर भी नोंन का ‘कर’ दंड तुल्य ही है।”

स्वदेशी आंदोलन के मूल सूत्रधार भी महर्षि दयानंद ही थे। उन्होंने लिखा था, “जब परदेशी हमारे देश में व्यापार करेंगे तो दारिद्रय और दुःख के बिना दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता।” स्वदेशी भावना को प्रबलता से जगाते हुए उन्होंने कहा कि हमें इतने से ही समझ लेना चाहिए कि अंग्रेज अपने देश के जूते का भी जितना मान करते हैं, उतना अन्य देश के मनुष्यों का भी नहीं करते।”

उनकी इसी स्वदेशी भावना का परिणाम था कि भारत में सबसे पहले साल 1879 में आर्य समाज लाहौर के सदस्यों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का सामूहिक संकल्प लिया था। स्वामी दयानंद के लिए बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि स्वराज का मन्त्र सबसे पहले उन्होंने ही दिया था। सरदार पटेल का कहना था कि वास्तव में भारत की स्वतंत्रता की नींव स्वामी दयानंद ने ही रखी थी।

 

स्वामी दयानंद ने 59 साल की उम्र में इस दुनिया से विदा ली। 30 अक्टूबर 1883 को अजमेर में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। उनकी मृत्यु आज भी असमंजस का विषय बना हुआ है। किसी ने कहा कि ब्रिटिश राज का षड्यंत्र था तो किसी ने कहा कि जोधपुर के महाराज जसवन्त सिंह ने जब स्वामी जी के कहने पर एक कनीज़ का मोह छोड़ दिया तो उसने उन्हें दूध में पिसे हुए कांच पिलवा दिया।

बताया जाता है कि जिस रसोइये ने कनीज़ के कहने पर उनके दूध में कांच मिलाया था उसने बाद में खुद स्वामी जी से आकर माफ़ी मांगी। उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे।

 


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