हिंदी सिनेमा के फ़िल्मकार और अभिनेता, सुनील दत्त को क्लासिक फिल्म ‘मदर इंडिया’ ने मशहूर किया। इस फिल्म में उन्होंने भले ही नकारात्मक भूमिका निभाई, पर साथ ही खुद को एक बेहतरीन एक्टर के तौर पर स्थापित कर दिया। एक्टिंग के साथ-साथ उन्होंने डायरेक्शन में भी हाथ आज़माया और बहुत ही कम लोग जानते होंगे कि जिस फिल्म से उन्होंने बतौर डायरेक्टर डेब्यू किया, वह फिल्म ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स’ में शामिल है।
साल 1964 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘यादें’ से दत्त ने अपना निर्देशन शुरू किया। इस फिल्म के एक्टर भी वही थे। यह फिल्म न सिर्फ़ उनके लिए, बल्कि पूरी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक एक्सपेरिमेंट थी। क्योंकि यह एक सोलो-ड्रामा एक्ट था। इस फीचर फिल्म में सुनील दत्त ही इकलौते अभिनेता थे और इसलिए इसे ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स’ में जगह मिली।
यह फिल्म और भी बहुत-सी बातों की वजह से खास थी, जैसे कि इसके ज़रिए दत्त ने इंडस्ट्री और दर्शकों को ‘मोनोलॉग’ के कॉन्सेप्ट से रूबरू करवाया। ‘मोनोलॉग’ यानी कि किसी भी एक्ट के दौरान एक एक्टर द्वारा बोले जाने वाला कोई लम्बा डायलॉग, जैसे ‘प्यार का पंचनामा में कार्तिक आर्यन वाला डायलॉग याद है न?
कलर फिल्मों के ज़माने में बनी यह ‘ब्लैक एंड वाइट’ फिल्म एक अलग ही रचनात्मक और क्रियात्मक सोच का परिणाम है। इस फिल्म में शुरू से अंत तक केवल और केवल सुनील दत्त नजर आते हैं। एक घर में, कभी किचन में नजर आते हैं, कभी ड्राईंग रूम में, कभी बेडरूम में तो कभी बाथरूम में केवल और केवल सुनील दत्त। उनके करैक्टर का नाम है अनिल, जिसका एक भरा-पूरा परिवार है- पत्नी है, दो बच्चे हैं। एक दिन वह दफ्तर से घर वापिस आता है और देखता है कि उसकी बीवी और बच्चे नहीं हैं।
और फिर यहीं से शुरू होती है कहानी। लगभग 2 घंटे की फिल्म में दत्त पर्दे पर अकेले ही नज़र आते हैं। वे खुद ही खुद से बातें करते हैं, गुस्सा करते हैं, चिल्लाते हैं, तोड़-फोड़ करते हैं और फिर रोते हैं। दत्त ने इस फिल्म में म्यूजिक, साउंड इफेक्ट्स, वॉयसओवर, कार्टून्स, कैरीकेचर, शैडो आदि का बहुत ही उम्दा तरीके से इस्तेमाल किया किया है। इन सभी चीज़ों ने इस फिल्म का आर्टिस्टिक स्तर काफ़ी बढ़ा दिया था।
दत्त ने फिल्मकारों को विज़ुअल /दृश्यों की अभिव्यक्ति का भी एक नायाब तरीका सिखाया- ‘छायाचित्र,’ जिसमें किसी विशेष व्यक्तित्व को दर्शाने के लिए सिर्फ़ एक काली छाया का इस्तेमाल किया जाता है।
सुनील दत्त को इस फिल्म की प्रेरणा अपनी निजी ज़िंदगी की ही एक घटना से मिली थी। एक बार, उनकी पत्नी नर्गिस दत्त उनके बच्चों, संजय और नम्रता के साथ छुट्टियों के लिए बाहर गयी हुई थीं। और एक शाम जब सुनील घर लौटे तो उन्हें अपने परिवार के बिना वह घर बहुत ही खाली-खाली और बेजान-सा लगा। उस समय उन्होंने जो अनुभव किया, उसी अनुभव से प्रेरित होकर उन्होंने ‘यादें’ बनायी।
अगर आर्ट के स्तर पर देखें, तो बेशक यह फिल्म अपने समय से बहुत आगे थी। एक फ़िल्मकार, निर्देशक और अभिनेता के रूप में दत्त की प्रतिभा को पूरी दुनिया के सामने एक मुक़ाम दिया। उन्होंने इस फिल्म को बनाने में बहुत बड़ा रिस्क लिया था, और क्रिटिक्स के मुताबिक दत्त की कोशिश बेकार नहीं गयी। बल्कि इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा में एक्सपेरिमेंट फिल्मों के लिए नए दरवाज़े खोले।
इस फिल्म के लिए उस समय एक हिंदी अख़बार में छपा था,
“सुनील दत्त! सुनील दत्त! सुनील दत्त!
दुनिया उसकी सूझ पर, जबकि दे रही है दाद,
कलाकार छोटे करें रो रोकर फरियाद!
रो रो कर फरियाद, हाथ क्या उनके आया?
साहिब ने अपने मतलब का चित्र बनाया।”
यह फिल्म दर्शकों के बीच ज़्यादा नहीं चली, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे ख़ूब सराहना मिली। इस फिल्म को बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। साल 1967 में फ़्रंकफ़र्ट फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म को सम्मान मिला और फिर पूरी फीचर फिल्म में सिर्फ़ एक ही अभिनेता को दिखाने का गिनीज़ रिकॉर्ड भी इस फिल्म के नाम है।
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आप यह फिल्म यहाँ देखा सकते हैं:
संपादन – मानबी कटोच