अमेरिका की जाने-माने परिवार का बेटा और स्टॉक्स एंड पैरिश मशीन कंपनी का वारिस होते हुए भी सैम्युल इवान्स स्टॉक्स जूनियर ने अपना जीवन भारत में कोढ़ से पीड़ित मरीजों की सेवा करते हुए बिताया।
उन्होंने न केवल अपनी ज़िन्दगी भारत में बितायी बल्कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग भी लिया। ये कहानी है स्टॉक्स जूनियर की सत्यानंद बनने की। सत्यानंद, जो गरीबों के हितों के रखवाले थे और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी थे।
इनका नाम शायद आपको इतिहास के पन्नों में न मिले, लेकिन आज हम आपको इनके बारे में बताने जा रहे हैं।
साल 1904 में अमेरिका में अपनी आराम की ज़िन्दगी को छोड़ सैम्युल भारत आये। उनके पिता को लगा कि उनका बेटा कुछ समय के लिए ट्रिप पर जा रहा है। लेकिन वे अनजान थे कि यह यात्रा उनके बेटे को अमेरिकी से भारतीय बना देगी।
सैम्युल ने भारत आकर हिमालय की गोद में, शिमला के पास कोढ़-पीड़ितों की सेवा करना शुरू कर दिया। इन की परपोती, आशा शर्मा ने इनकी बायोग्राफी, ‘गाँधी के भारत में एक अमेरिकी’ लिखी है।
जब सैम्युल भारत में काम कर रहे थे तो एक वक़्त के बाद उन्हें अहसास हुआ कि अभी भी भारतीय लोग उन्हें बाहरी समझते हैं। लेकिन सैम्युल चाहते थे कि भारतीय लोग उन्हें अपना ही हिस्सा समझे। इसलिए उन्होंने भारतीयों की तरह कपड़े पहनना शुरू किया। इतना ही नहीं उन्होंने पहाड़ी बोली बोलना भी सीखा। उनका यह तरीका काम कर गया।
धीरे-धीरे सभी लोग उन्हें अपना मानने लगे और उन्हें समझ आया कि सैम्युल उनकी सेवा के लिए यहां रह रहे हैं।
साल 1912 में सैम्युल को राजपूत-क्रिस्चियन मूल की लड़की बेंजामिन एगनिह्स से प्यार हो गया। जिनसे बाद में उन्होंने शादी भी की।
साल 1916 में सैम्युल को अमेरिका में उगाये जाने वाले सेब की एक प्रजाति के बारे में पता चला। जिसे देखकर उन्हें लगा कि हिमालय के मौसम और मिट्टी में इसे उगाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने पहाड़ी लोगों को सेब की खेती करने के लिए जागरूक किया ताकि उन्हें रोजगार मिल सके।
केवल इतना ही नहीं उन्होंने अपने सम्पर्कों के जरिये इन लोगों के लिए दिल्ली के बाजार के रास्ते भी खुलवा दिए। इसलिए सैम्युल को ‘हिमालय का जोहनी एप्प्लसीड’ भी कहा जाता है।
यदि आज आप भारत में सेब खा पा रहे हैं तो वह सत्यानंद उर्फ़ सैम्युल की ही देन है।
पर एक और वजह है जिसके कारण उन्हें याद किया जाना चाहिए।
भारतीयों पर ब्रिटिश राज का सैम्युल ने हमेशा ही विरोध किया था। वे सबसे ज्यादा प्रभावित श्रम से खिलाफ थे- इसमें भारतीय पुरुषों को जबरदस्ती ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए मजबूर किया जाता था। उन्होंने कई बार ब्रिटिश सरकार को नोटिस जारी कर इसके खिलाफ आगाह किया। उन्होंने पहाड़ी लोगों की गरिमा बनाये रखने के लिए हर बार ब्रिटिश सरकार से टक्कर ली।
उन्होंने सरकार को यह साफ़ कर दिया कि वे न तो पहाड़ी लोगों को जबरदस्ती सिपाही बना सकते हैं और न ही ब्रिटिश अधिकारियों का सामान ढोने पर मजबूर कर सकते हैं।
सबसे जरूरी बात यहां यह है कि ब्रिटिश सरकार को लिखे गए उनके पत्रों ने भारतीय मजदूरों के बारे में “उन्हें” के बजाय “हम” के रूप में बात की थी। उनके इस रवैये से पता चलता है कि वे खुद को पूरी तरह से भारतीय मानते थे। वे अपनी लड़ाई में सफल रहे और ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीयों को सिपाही बनने के लिए मजबूर करना बंद कर दिया।
लेकिन इससे भी बुरा वक़्त तो अभी आने वाला था…
“यह अप्रैल 1919 (जालियांवाला बाग नरसंहार) की घटना थी, जब पंजाब के एक बगीचे में लगभग हजार लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई गयी थी। यही वह समय है जब सैम्युल ने भारतीय लोगों के खिलाफ हिंसा देखी और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया। वह पंजाब में बहुत सक्रिय हो गये और पंजाब प्रांतीय कांग्रेस कमेटी (पीपीसीसी) के सदस्य बने,” शर्मा लिखती हैं।
साल 1920 में, वह न केवल एकमात्र अमेरिकी बल्कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के नागपुर सत्र में भाग लेने वाले एकमात्र गैर-भारतीय थे। वह कोटघर (शिमला हिल्स) के प्रतिनिधि थे।
1921 में, अन्य भारतीय कांग्रेस सदस्यों की तरह, सैम्युल ने एडवर्ड VIII, प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत-यात्रा का विरोध किया। जिसके बाद उन्हें राजद्रोह के आरोप में अंग्रेजों ने वाघा में गिरफ्तार कर लिया था। लगभग 6 महीने वे जेल में रहे।
अपने सात बच्चों में से एक की बहुत कम उम्र में मौत के बाद सैम्युल ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया और उन्होंने हिन्दू धर्म अपना लिया। वे सैम्युल स्टॉक्स से सत्यानंद बन गए। उनकी पत्नी ने भी अपने पति का अनुसरण करते हुए हिन्दू धर्म अपनाया और वे प्रियदेवी कहलायीं।
उन्होंने अपने सभी बच्चों को भारतीयों की तरह पाला। उन्होंने कहा, “मैंने एक भारतीय से शादी की। मैं भारत में रहना चाहता हूँ, इसलिए मेरे बच्चों को भारतीयों के रूप में जाने जाना चाहिए, न कि एंग्लो-इंडियंस के रूप में।”
फोटो साभार – फेसबुक
इस बदलाव के लगभग 10 साल बाद एक बीमारी के चलते सत्यानंद ने 14 मई, 1946 को अपनी आखिरी सांस ली। उन्हें शिमला के कोटघर में दफनाया गया।
भारत में सत्यानंद का इतिहास बहुत ही निराला है लेकिन फिर भी बहुत से भारतीय उनसे अनजान हैं। हालांकि, हिमाचली किसान भले ही उन्हें सेब के दाता के रूप में याद रखे, लेकिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका उल्लेखनीय रही। जिसे याद करना हर भारतीय का फ़र्ज़ है।
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संपादन – मानबी कटोच