शूजीत सरकार के डायरेक्शन में बनी फिल्म ‘सरदार उधम’ प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह के जीवन पर आधारित है। एमेजॉन प्राइम (Amazon Prime) पर रिलीज हुई इस फिल्म में मख्य किरदार विक्की कौशल ने निभाया है। सरदार उधम सिंह ने लंदन में माइकल ओ डायर की गोली मारकर हत्या कर दी थी। साल 1940 की यह घटना, असल में 1919 में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला थी। उस हत्याकांड के वक्त माइकल डायर ब्रिटिश शासनकाल के पंजाब के गवर्नर थे। उन्होंने जालियांवाला बाग में हुई हत्या को जायज बताया था।
उधम सिंह की वीरगाथा को सम्मान देते हुए सलमान रुश्दी ने अपने उपन्यास ‘शालीमार द क्लाउन’ में लिखा है, “हर ‘ओ डायर’ के लिए यहां एक ‘शहीद उधम सिंह’ है।”
उधम सिंह की शौर्यगाथा
जिस व्यक्ति ने हमारी आजादी के लिए फांसी के फंदे को चूमा, उसकी कहानी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इर्दगिर्द घूमती राष्ट्रीय लोक कथाओं का एक हिस्सा है। उन्होंने बीस सालों तक बड़े ही धैर्य के साथ डायर को मारने की योजना कैसे और क्यों बनाई, यह तो हम सभी जानते हैं। लेकिन, उन्होंने अपना उपनाम ‘मोहम्मद सिंह आजाद’ क्यों रखा, इसके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है।
हाँ, इतिहास के कुछ हिस्से यह जरूर बताते हैं कि उन्हें इस नाम से क्यों इतना लगाव था।
भारत के अतीत के पन्नों को खंगालने से पता चलता है कि उधम सिंह धार्मिक और वर्ग एकजुटता के पक्षधर थे। जब डायर की हत्या का उन पर मुकदमा चल रहा था, तो उन्होंने अपना नाम मोहम्मद सिंह आजाद बताया। उनकी बाजू पर एक टैटू भी बना था, जो इस बात का प्रतीक था कि भारत में सभी धर्म ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ उनके विरोध में एकजुट थे।
जब उधम सिंह ने जवाब में कहा ‘गो टू हेल’
मार्च 1940 में उधम सिंह ने जांच अधीक्षक को एक पत्र लिखा था। उसमें कहा गया था कि अधिकारी उनके बताए गए नाम ‘मोहम्मद सिंह आज़ाद’ को ही मानें। यहां तक कि जब उनके नाम को लेकर कुछ लोगों ने उनकी आलोचना की, तो उन्होंने अपने आलोचकों को सीधा सा जवाब दिया-‘गो टू हेल’। लेकिन वह ब्रिटिश सरकार को अपने इस उपनाम का इस्तेमाल करने के लिए विवश नहीं कर पाए।
दरअसल, ब्रिटिश सरकार को एहसास था कि इस प्रतीकात्मक नाम का क्या प्रभाव पड़ सकता है। उन्होंने उधम सिंह के असली नाम के बारे में जानकारी इकट्ठा कर ली थी। राजनीतिक और जेल पत्राचार पर उन्होंने अपने इसी उपनाम से हस्ताक्षर किए थे। इसके अलावा, यह बताया जाता है कि 1931 में कई सालों पहले उधम सिंह ने अमृतसर में अपनी छोटी सी दुकान के साइन बोर्ड पर भी ‘राम मोहम्मद सिंह आजाद’ नाम लिखा था।
पत्रकार अनीता आनंद ने अपनी किताब ‘ए पेशेंट असैसिन’ में लिखा है, ‘उधम सिंह, भगत सिंह की ही तरह नास्तिक थे। वह उन्हें अपना आदर्श मानते थे। वे दोनों गहरे दोस्त थे और 1920 के दशक में एक साथ जेल में भी रहे।’
“वह मेरा इंतज़ार कर रहा है”
उधम सिंह पर भगत सिंह का कितना प्रभाव था, इसे उनके द्वारा 30 मार्च 1940 को लिखे गए पत्र से समझा जा सकता है-
इसमें लिखा था, “दस साल हो गए हैं, जब मेरा दोस्त मुझे छोड़कर चला गया था। लेकिन मुझे यकीन है कि अपनी मौत के बाद, मैं उससे जरूर मिलूंगा। वह मेरा इंतज़ार कर रहा है। उस दिन 23 तारीख (जब भगत सिंह को फांसी दी गई) थी और उम्मीद है कि मुझे भी उसी दिन फांसी दी जाएगी।”
इसके अलावा, अधिकांश इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि उधम सिंह का उपनाम खासकर ‘आजाद’ राजनीतिक विचारधारा पर एक दबाव डालने के लिए था। उन्होंने महसूस कर लिया था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी की लड़ाई में सभी धार्मिक समुदायों की एकता कितनी महत्वपूर्ण है। उनका यह नाम भारत के तीन प्रमुख धर्मों का प्रतीक था।
जब उनके अवशेष, दशकों बाद अगस्त 1974 में भारत लाए गए, तो उनका अंतिम संस्कार एक हिंदू पंडित, एक मुस्लिम मौलवी और सिख ग्रंथी ने किया था और उनकी राख को इन धर्मों से जुड़े पवित्र स्थलों पर बिखेरा गया था।
मूल लेखः संचारी पाल
संपादनः अर्चना दुबे
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