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सखाराम गणेश देउस्कर: ‘बंगाल का तिलक,’ जिसकी किताब पर अंग्रेज़ों ने लगा दी थी पाबंदी!

खाराम गणेश देउस्कर भारत के क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार और पत्रकार थे। वे भारतीय नवजागरण के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे। उनकी जड़ें मराठों से जुड़ी थीं, लेकिन वे पले- बढ़े बंगाली परिवेश में। कहा जाता है कि वे महाराष्ट्र और बंगाल के नवजागरण के बीच का सेतु थे।

सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को देवघर के पास ‘करौं’ नामक गाँव में हुआ था, जो अब झारखंड में स्थित है। हालांकि, उनके पूर्वज महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले में आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे।

उनकी माँ की मृत्यु तभी हो गयी जब देउस्कर मात्र पाँच साल के थे। इसलिए उनका पालन- पोषण उनकी एक विधवा बुआ ने किया। उनकी बुआ मराठी साहित्य से भली-भाँति परिचित थीं और इसका प्रभाव बालक देउस्कर पर भी रहा। हमेशा से ही उनकी दिलचस्पी इतिहास और साहित्य में रही। उन्होंने वेदों के साथ-साथ बांग्ला भाषा भी सीखी।

राजनीती में देउस्कर ने हमेशा ही बाल गंगाधर तिलक को अपना गुरु माना। साल 1893 में अपनी पढ़ाई के बाद उन्होंने शिक्षक के तौर पर काम करना शुरू किया। इसके साथ ही उनकी लेखनी भी चलती रही। उनका ज्यादातर लेखन कार्य बंगाली भाषा में रहा। वे लगातार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर लिखते रहे। कुछ लोग उन्हें ‘बंगाल का तिलक’ भी कहते थे।

साल 1894 में देवघर में हार्ड नामक एक मजिस्ट्रेट के अन्याय और अत्याचार से तंग आकर उन्होंने उसके विरोध में कोलकाता से प्रकाशित होने वाले ‘हितवादी’ नामक अख़बार में कई लेख लिखे, जिसके कारण हार्ड ने उनको शिक्षक की नौकरी से निकालने की धमकी दी।

पर स्वाभिमानी देउस्कर यह सहन नहीं कर पाए और उन्होंने स्वयं ही अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद वे कोलकाता चले गये और हितवादी अख़बार के साथ काम करने लगे। उनकी असाधारण प्रतिभा को देखते हुए उन्हें इस अख़बार का संपादक नियुक्त कर दिया गया।

बांग्ला के साथ- साथ वे हिंदी, संस्कृत और मराठी भाषा के भी अच्छे ज्ञाता थे। देउस्कर के प्रयासों के कारण ही बंगाली अख़बार ‘हितवादी’ का हिंदी संस्करण ‘हितवार्ता’ शुरू हुआ। इसके अलावा उन्होंने साहित्य, भारती, धरनी, साहित्य-संहिता, प्रदीप, बंग-दर्शन, आर्यावर्त्त, वेद व्यास, प्रतिभा आदि पत्रिकाओं में भी बहुत सारे लेख लिखे, जिनका उद्देश्य भारतीय जनता को अपने अतीत और वर्तमान का ज्ञान कराना था।

सखाराम गणेश देउस्कर के ग्रंथों और निबंधों की सूची बहुत लंबी है। उनके प्रमुख ग्रंथ है महामति रानडे (1901), झासीर राजकुमार (1901), बाजीराव (1902), आनन्दी बाई (1903), शिवाजीर महत्व (1903), शिवाजीर शिक्षा (1904), शिवाजी (1906), देशेर कथा (परिशिष्ट) (1907), कृषकेर सर्वनाश (1904), तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित (1908), आदि। इन पुस्तकों के साथ-साथ इतिहास, धर्म, संस्कृति और मराठी साहित्य से संबंधित उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

‘देशेर कथा’ का हिंदी अनुवाद ‘देश की बात’

उनके लिखे ग्रन्थ ‘देशेर कथा’ ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाई। अरविंद घोष ने लिखा है कि ‘स्वराज्य’ शब्द का पहला प्रयोग ‘देशेर कथा’ में सखाराम गणेश देउस्कर ने ही किया था। इस ग्रन्थ का हिंदी अनुवाद ‘देश की बात’ बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया था।

इस ग्रन्थ में देउस्कर ने एक पराधीन देश की दशा का हाल बयान किया था। इस ग्रन्थ ने हर किसी को प्रभावित किया। उनका ‘स्वरज्य’ स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गया और बहुत से युवा इस आंदोलन से जुड़ गए। जिसके चलते ब्रिटिश सरकार ने इस किताब पर रोक लगा दी। पर फिर भी वे देउस्कर के विचारों और उनकी लेखनी को प्रसारित होने से नहीं रोक पाए।

देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले देउस्कर ने क्रांतिकारी आंदोलन में भी अपनी भूमिका निभाई।  विभिन्न भाषाओं में उनके लेखन ने जन-जागृति लाने में योगदान दिया। उनकी अध्यक्षता में कोलकाता में ‘बुद्धिवर्धिनी सभा’ का गठन हुआ। इस सभा के माध्यम से युवाओं को ज्ञान तो मिलता ही, साथ ही साथ इन्हें राजनीतिक ज्ञान भी प्राप्त होता था। लोगों को स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्ररेणा भी मिलती थी। साल 1905 में बंग-भंग के विरोध में जो आंदोलन चला, उसमें इनका बड़ा योगदान था।

साल 1910 में देउस्कर अपने मूल गाँव करौं लौट आए और वहीं रहने लगे। राष्ट्रभक्त सखाराम गणेश देउस्कर का अल्प आयु में ही 23 नवंबर, 1912 को निधन हो गया।

पर हमारा देश इस क्रांतिकारी लेखक के लेखन कार्यों का सदा ऋणी रहेगा। भारत माँ के इस सच्चे सेवक को द बेटर इंडिया का नमन!


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