पंद्रहवीं शताब्दी में शहंशाह अकबर के ध्वज तले मुग़ल साम्राज्य अपनी जड़ें पुरे भारत में फैला रहा था। बहुत से हिन्दू राजायों ने उनके सामने घुटने टेक दिए तो बहुतों ने अपने राज्यों को बचाने के लिए डटकर मुकाबला किया।
राजपुताना से होते हुए अकबर की नजर मध्यभारत तक भी जा पहुंची। लेकिन मध्यभारत को जीतना मुगलों के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं रहा और खासकर कि गोंडवाना! इसलिए नहीं कि कोई बहुत बड़ा राज्य या राजा मुग़ल सल्तनत का सामना कर रहा था, बल्कि इसलिए क्योंकि एक हिन्दू रानी अपने पुरे स्वाभिमान के साथ अपने राज्य को बचाने के लिए अडिग थी।
वह हिन्दू रानी, जिसकी समाधि पर आज भी गोंड जाति के लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और जिसके नाम पर मध्य-प्रदेश के एक विश्विद्यालय का नाम भी है- रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय।
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर, 1524 को उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल के यहाँ हुआ था। वे अपने पिता की इकलौती संतान थीं। दुर्गाष्टमी के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
दुर्गावती चंदेल वंश की थीं और कहा जाता है कि इनके वंशजों ने ही खजुराहो मंदिरों का निर्माण करवाया था और महमूद गज़नी के आगमन को भारत में रोका था। लेकिन 16वीं शताब्दी आते-आते चंदेल वंश की ताकत बिखरने लगी थी।
दुर्गावती बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में रूचि रखती थीं। उन्होंने अपने पिता के यहाँ घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाजी जैसे युद्धकलायों में महारत हासिल की। अकबरनामा में अबुल फज़ल ने उनके बारे में लिखा है, “वह बन्दुक और तीर से निशाना लगाने में बहुत उम्दा थीं। और लगातार शिकार पर जाया करती थीं।”
1542 में, 18 साल की उम्र में दुर्गावती की शादी गोंड राजवंश के राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े बेटे दलपत शाह के साथ हुई। मध्य प्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में रहने वाले गोंड वंशज 4 राज्यों पर राज करते थे- गढ़-मंडला, देवगढ़, चंदा और खेरला। दुर्गावती के पति दलपत शाह का अधिकार गढ़-मंडला पर था।
दुर्गावती का दलपत शाह के साथ विवाह बेशक एक राजनैतिक विकल्प था। क्योंकि यह शायद पहली बार था जब एक राजपूत राजकुमारी की शादी गोंड वंश में हुई थी। गोंड लोगों की मदद से चंदेल वंश उस समय शेर शाह सूरी से अपने राज्य की रक्षा करने में सक्षम रहा।
1545 में रानी दुर्गावती ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। लेकिन 1550 में दलपत शाह का निधन हो गया। दलपत शाह की मृत्यु पर दुर्गावती का बेटा नारायण सिर्फ 5 साल का था। ऐसे में सवाल था कि राज्य का क्या होगा?
लेकिन यही वह समय था जब दुर्गावती न केवल एक रानी बल्कि एक बेहतरीन शासक के रूप में उभरीं। उन्होंने अपने बेटे को सिंहासन पर बिठाया और खुद गोंडवाना की बागडोर अपने हाथ में ले ली। उन्होंने अपने शासन के दौरान अनेक मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।
इतना ही नहीं, रानी दुर्गावती ने अपने राज दरबार में मुस्लिम लोगों को भी उम्दा पदों पर रखा। उन्होंने अपनी राजधानी को चौरागढ़ से सिंगौरगढ़ स्थानांतरित किया। क्योंकि यह जगह राजनैतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने अपने पूर्वजों के जैसे ही राज्य की सीमायों को बढ़ाया।
एक योद्धा- रानी दुर्गावती
1556 में मालवा के सुल्तान बाज़ बहादुर ने गोंडवाना पर हमला बोल दिया। लेकिन रानी दुर्गावती के साहस के सामने वह बुरी तरह से पराजित हुआ। पर यह शांति कुछ ही समय की थी। दरअसल, 1562 में अकबर ने मालवा को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया था। इसके अलावा रेवा पर असफ खान का राज हो गया। अब मालवा और रेवा, दोनों की ही सीमायें गोंडवाना को छूती थीं तो ऐसे में अनुमानित था कि मुग़ल साम्राज्य गोंडवाना को भी अपने में विलय करने की कोशिश करेगा।
1564 में असफ खान ने गोंडवाना पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में रानी दुर्गावती ने खुद सेना का मोर्चा सम्भाला। हालांकि, उनकी सेना छोटी थी, लेकिन दुर्गावती की युद्ध शैली ने मुग़लों को भी चौंका दिया। उन्होंने अपनी सेना की कुछ टुकड़ियों को जंगलों में छिपा दिया और बाकी को अपने साथ लेकर चल पड़ीं।
जब असफ खान ने हमला किया और उसे लगा कि रानी की सेना हार गयी है तब ही छिपी हुई सेना ने तीर बरसाना शुरू कर दिया और उसे पीछे हटना पड़ा।
कहा जाता है, इस युद्ध के बाद भी तीन बार रानी दुर्गावती और उनके बेटे वीर नारायण ने मुग़ल सेना का सामना किया और उन्हें हराया। लेकिन जब वीर नारायण बुरी तरह से घायल हो तो रानी ने उसे सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और स्वयं युद्ध को सम्भाला।
रानी दुर्गावती के पास केवल 300 सैनिक बचे थे। रानी को भी सीने और आँख में तीर लगे। जिसके बाद उनके सैनिकों ने उन्हें युद्ध छोडकर जाने के लिए कहा। लेकिन इस योद्धा रानी ने ऐसा करने से मना कर दिया। वह अपनी आखिरी सांस तक मुग़लों से लडती रहीं।
जब रानी दुर्गावती को आभास हुआ कि उनका जीतना असम्भव है तो उन्होंने अपने विश्वासपात्र मंत्री आधार सिंह से आग्रह किया कि वे उसकी जान ले लें ताकि उन्हें दुश्मन छु भी न पाए। लेकिन आधार ऐसा नहीं कर पाए तो उन्होंने खुद ही अपनी कटार अपने सीने में उतार ली।
24 जून 1564 को रानी ने अंतिम सांस ली। उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे ने युद्ध जारी रखा। लेकिन शीघ्र ही वह भी वीरगति को प्राप्त हुआ। जिसके बाद गढ़-मंडला का विलय मुग़ल साम्राज्य में हो गया।
वर्तमान भारत में, मंडला मध्य-प्रदेश का एक जिला है। जहाँ चौरागढ़ किला आज पंचमारी में सूर्योदय देखने के लिए प्रसिद्द टूरिस्ट जगह है। हर साल न जाने कितने ही टूरिस्ट देश-विदेशों से यहाँ आते हैं। लेकिन उनमें चंद लोग ही यहाँ की रानी दुर्गावती के इस जौहर से परिचित होंगें।
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां गोंड जनजाति के लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर में स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी इन्हीं रानी के नाम पर बनी हुई है।
इसके अलावा भारत सरकार ने साल 1988 में रानी दुर्गावती के सम्मान में एक पोस्टल स्टैम्प भी जारी की थी।