जब प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेता राज कपूर पहली बार 1954 में मॉस्को गए थे तब उनके पास वहाँ का वीजा नहीं था। पर उनके अप्रवासी होने के बावजूद भी सोवियत के अधिकारियों ने उन्हें बिना किसी परेशानी के देश में आने दिया।
उनके बेटे ऋषि कपूर ने एक साक्षात्कार मे बताया था, “वे बाहर निकले और टैक्सी का इंतज़ार करने लगे… तब तक लोगों ने उन्हें पहचान लिया कि राज कपूर मॉस्को आए हुए हैं। उनकी टैक्सी आई और वे बैठ गए। पर अचानक उन्होंने देखा कि टैक्सी आगे बढ़ने की बजाय ऊपर की ओर उठ रही है। लोगों ने उनकी कार को अपने कंधों पर उठा लिया था।”
राज कपूर सोवियत में उस समय अपनी नयी फिल्म ‘आवारा’ के वितरण के लिए गए हुए थे। ई- इंटरनेशनल रिलेशन्स में अनुभव रॉय लिखते हैं कि जब आवारा फिल्म का रूसी अनुवाद सोवियत में रीलीज़ हुआ तो यह फिल्म पहले दिन से ही दर्शकों में लोकप्रिय हो गयी। कपूर को गरीबों के नायक और एक ‘सेक्स सिंबल’ के रूप में पहचाना जाने लगा।
इस फिल्म के करीब 640 लाख टिकिट बिके और सोवियत रूस में सबसे ज़्यादा देखी जाने वाली यह तीसरी विदेशी फिल्म बनी।
आखिर राज कपूर सोवियत में इतने लोकप्रिय क्यों हुए?
इस सवाल के जवाब कई हैं, लेकिन हम वहां से शुरू कर सकते हैं, जब सबसे पहले बॉलीवुड की फिल्में, खासकर हिंदी फिल्में, सोवियत यूनियन पहुंची। अक्सर दो देशों के बीच का राजनैतिक माहौल, वहां के कल्चरल एक्सचेंज में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।
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भारत ने स्वतंत्रता के पहले, अप्रैल 1947 में ही रूस के साथ अच्छे संबंध बना लिए थे। 1950 में ये संबंध और बेहतर हो गए, जब प्रधानमंत्री नेहरू ने कोरिया युद्ध के दौरान अमेरिका के दबाव में आने से मना कर दिया था। भारत के इस निर्णय ने सोवियत यूनियन को काफी प्रभावित किया।
पर इस रिश्ते में मोड़ तब आया जब क्रूर तानाशाह स्टेलिन का 1953 में निधन हो गया।
इसके बाद, थोड़े नरम दिल माने जाने वाले निकिता सरगेयेविच ख़्रुश्चेव ने सत्ता संभाली और उन्होंने स्टेलिन की कट्टर नीतियों से सबको राहत दी।
इस बारे में अनुभव रॉय ने आगे लिखा है कि इस तरह से सबसे पहले कल्चरल इम्पोर्ट जैसे कि फिल्में सोवियत जाने लगीं और साल 1954 में राज कपूर की ‘आवारा’ को सोवियत में एक नया मार्किट मिल गया।
और इस तरह से हिंदी फिल्में, खासकर राज कपूर, देव आनंद व दिलीप कुमार की फिल्में, रूस का रुख करने लगी।
हालांकि, निमाई घोष की ‘छिन्नमूल’ रूस में रिलीज़ होने वाली पहली बॉलीवुड फिल्म थी, पर राज कपूर की ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ ने रूसी दर्शकों को हिंदी सिनेमा का दीवाना बनाया था। राजकपूर और नर्गिस की जोड़ी वैसे भी स्क्रीन पर बहुत दमदार थी। क्रिटिक्स के मुताबिक, सोवियत में इन सितारों की प्रशंसकों के बीच में लोकप्रियता उतनी ही थी जितनी 1960 के दौरान ‘द बीट्ल्स’ की रही।
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द कल्वर्ट जर्नल के लिए दीपा भस्ती लिखती हैं, “कपूर, अपनी मासूम मुस्कान, हंसाने वाली चाल, और ऊंची पतलून जो टखने से नीचे नहीं जाती थी, के साथ सकारात्मकता का पर्याय थे। उनके द्वारा निभाया गया किरदार मासूम, दूसरों के लिए अच्छा सोचने वाला, रोमांटिक और प्यारा हुआ करता था। उस समय की कहानियां, जो दबे हुए तबके के प्रति सांत्वना रखती थीं, बुराई पर अच्छाई की जीत को दर्शाती थीं, रूसी दर्शको को काफी पसंद आती थीं क्योंकि सिनेमा में उनका दूसरा विकल्प सिर्फ प्रोपेगैंडा फिल्में थीं।”
इन गंभीर विषयों से अलग, दर्शक जब राज कपूर जैसे कलाकारों को हीरोइन के साथ स्विट्ज़रलैंड की वादियों में रोमांस करते देखते तो उसमें खो जाते थे।
दीपा आगे लिखती हैं कि यह लोगों के लिए एक अच्छा तरीका था, उन सब चीज़ों से अपना ध्यान हटाने का जो कि उनकी सरकार उनके दिमागों में भर रही थी। राष्ट्रवाद, देशप्रेम जैसे विचार सरकारों द्वारा प्रोपेगैंडा फिल्मों के ज़रिए लोगों तक पहुंचाए जा रहे थे और ये फिल्में उन्हें वही दिखाती थीं जो कि वे हर रोज़ रास्तों पर, काम पर और घरों में देखते थे।
यहाँ दूसरी वजहें भी थीं। रूस उस समय दूसरे विश्व युद्ध, स्टेलिन की क्रूर तानाशाही और बिखरी हुई अर्थव्यवस्था से उबर रहा था।
भारत भी कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहा था और अंग्रेजों की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ कर अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने मे लगा था।
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उस समय बहुत से लेखक इसी सच्चाई के इर्द-गिर्द घूमती कहानियां लिख रहे थे। पर कुछ कथाकार ऐसे भी थे जिन्होंने अलग करने की सोची और लोगों को यह दिखाने की कोशिश की कि ज़िन्दगी अच्छी और खुशनुमा भी हो सकती है।
कुछ लोगों के लिए भले ही यह सच से भागने का एक तरीका था, पर इसके ज़रिये आम लोग कहीं न कहीं अपनी रोज़मर्रा की परेशानियों को कुछ समय के लिए भूल पा रहे थे।
यही कारण था कि मानव जीवन की मार्मिक सच्चाई को दिखती सत्यजीत रे की फिल्मों को रूसी दर्शकों का साथ नहीं मिला। लोग नहीं चाहते थे कि उनकी रोज़मर्रा की मुश्किलों को उन्हें याद दिलाया जाये। वे कम से कम तीन-चार घंटों के लिए उनसे निकलना चाहते थे।
इन सब से ऊपर, राज कपूर की प्रतिभा ने चाहे वह पर्दे पर हो या असल ज़िन्दगी में, रूसी दर्शकों को काफी आकर्षित किया था। लोग उनकी सफलताओं और परेशानियों से खुद को जोड़ने लगे थे। किसी भी अभिनेता के लिए दर्शकों से इस तरह जुड़ पाना तभी संभव होता है जब वह अपने काम और अभिनय के प्रति ईमानदार हो।
आपको वह सब पढ़ना चाहिए जो कि मशहूर रूसी फिल्म क्रिटिक अलेक्ज़ैंडर लिपकोव को राज कपूर के प्रशंसक भेजते थे। ‘संगम’ फिल्म को देख कर एक दर्शक ने लिखा था, “मैंने सच्चे प्यार के लिए लोगों को बलिदान देते हुए देखा था। पर मैंने सच्ची दोस्ती के मायने शब्दों में नहीं बल्कि व्यवहार में समझे।”
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जब लिपकोव ने इस फिल्म को ठंडी प्रतिक्रिया दी थी, तो कुछ दर्शकों ने उन्हे सड़क पर मारने तक की धमकी दे दी थी।
बेशक, सोवियत यूनियन में राज कपूर के लिए लोगों के दिलों में अपार प्रेम और सम्मान था!
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संपादन: निशा डागर
Summary: Raj Kapoor (14 December 1924 – 2 June 1988) was an Indian film actor, producer and director of Indian cinema. Born at Kapoor Haveli in Peshawar to actor Prithviraj Kapoor– he was a member of the Kapoor family which has produced several Bollywood superstars. He wasn’t only popular in India but in other nations as well like Soviet Russia particularly. In Russia, Raj Kapoor’s films used to break all the records.