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परमहंस योगानंद : भारतीय योग-दर्शन से दुनिया को रू-ब-रू कराने वाले कर्मयोगी!

“असफलता का मौसम सफलता के बीज बोने का सबसे उपयुक्त समय होता है”- परमहंस योगानंद

पश्चिम में योग के पिता माने जाने वाले परमहंस योगानंद ने अपना जीवन योग ध्यान की तकनीक का ज्ञान फैलाने में बिताया है- उसी की नींव पर आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस खड़ा हुआ है।

ज्ञान की खोज के लिए उनकी व्यक्तिगत इच्छा और उस राह पर चलते हुए उनके संघर्ष ने आज आधुनिक पीढ़ी के लिए योग को सुलभ कराया। आज अनगिनत लोग इस प्राचीन परम्परा का अभ्यास कर रहे हैं।

उनकी योग क्रिया तकनीक पर आज सारी दुनिया के लोग अमल कर रहें हैं।

उनके इस यौगिक सफर का पूरा वृतांत, चुनौतियाँ हो या फिर उपलब्धियां, सभी के बारे में ‘एक योगी की आत्मकथा’ किताब में विस्तार से लिखा गया है। आज भी उनकी किताब साधक, दार्शनिक और योग से जुड़े लोगों के लिए महत्व रखती है। यह भी कहा जाता है कि स्टीव जॉब्स के आईपैड में केवल एक यही किताब मौजूद थी और अपने आखिरी समय में उन्होंने अपने करीबी दोस्तों और रिश्तेदारों को यही किताब अपने आखिरी तोहफ़े के रूप में दी थी। 

योगानंद की खोज को परदे पर भी उतारा गया, ‘अवैक: द लाइफ ऑफ़ योगानंद’ डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से।

इस डॉक्यूमेंट्री को पुरुस्कृत भी किया गया था। इस डॉक्यूमेंट्री में कुछ सच्ची फुटेज और कुछ पुनृ-कृतियों का मिश्रण किया गया है। इस डॉक्यूमेंट्री में कुछ प्रसिद्द लोगों के साक्षात्कार भी हैं जैसे जॉर्ज हैरिसन (बीटल्स के मुख्य गिटारवादक)। उन्होंने कहा कि वे शायद जीवित नहीं होते अगर उन्होंने योगानंद की किताब को नहीं पढ़ा होता। उनके अलावा सितार विशेषज्ञ रवि शंकर और आधुनिक समय के आध्यात्मिक गुरु दीपक चौपड़ा भी इस फ़िल्म में अपनी प्रतिक्रिया देते नज़र आ रहे हैं। 

परमहंस योगानंद का जन्म 5 जनवरी 1893, को गोरखपुर के एक बंगाली परिवार में हुआ। उनका वास्तविक नाम मुकुंद लाल घोष था। अपने आठ भाई-बहनों में वे चौथे थे और बहुत कम उम्र में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया था। आध्यात्म के बारे में उनके ज्ञान ने किशोरावस्था में ही उनका झुकाव आत्म-प्राप्ति की तरफ कर दिया था। इसके चलते वे कई भारतीय ऋषि-मुनियों में एक गुरु तलाशने लगे जो उन्हें अध्यात्म की खोज में मार्गदर्शित करे।

साल 1910 में सत्रह साल की उम्र में वे बनारस के श्रद्धेय स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी के शिष्य बन गए। अपने जीवन के दस साल उन्होंने उनके आश्रम में बिताये। आश्रम का माहौल भले ही थोड़ा सख्त था, पर परमहंस योगानंद को उस आध्यात्मिक अनुशासन से प्रेम होने लगा।

कोलकाता यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन के बाद साल 1915 में उन्होंने भारत के मठवासी स्वामी आदेश के अनुसार महंत के रूप में शपथ ली। तभी उन्हें ‘योगानंद’ नाम मिला जिसका अर्थ होता है योग से प्राप्त होने वाला आनंद।

साल 1917 में रांची में भारतीय योगदा सत्संग सोसाइटी की स्थापना करने के बाद साल 1920 में वे अमेरिका चले गए। बोस्टन में इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ़ रिलीजियस लिबरल्स के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें आमंत्रित किया गया था।

एक प्रतिभाशाली वक्ता, योगानंद ने ‘द साइंस ऑफ़ रिलिजन’ विषय पर सभा को सम्बोधित किया और उनका सन्देश पुरे अमेरिका में गूंज गया। वह शुरुआत थी पश्चिम में पूर्व के आध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार की। उसी साल उन्होंने आत्म-प्राप्ति फैलोशिप की शुरुआत की; जिसके चलते वे भारत के योग का प्राचीन दर्शन और ध्यान के समय-सम्मानित विज्ञान पर अपने ज्ञान को प्रसारित करना चाहते थे। 

अगले दशक में उन्होंने नॉर्थ अमेरिका और यूरोप के विभिन्न देशों की यात्रा की और बड़ी-बड़ी सभाओं में लोगों को सम्बोधित किया। उनके भाषणों ने दुनिया के महान धर्मों की अंतर्निहित एकता पर जोर दिया और क्रिया योग की आत्मा जागृति तकनीक की शुरुआत की।

साल 1925 में उन्होंने लॉस एंजिल्स में आत्म-प्राप्ति फैलोशिप के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय की स्थापना की, जो उनके बढ़ते काम का आध्यात्मिक और प्रशासनिक केंद्र बन गया। 

अमेरिका में बिताये वर्षों के दौरान, परमहंस योगानंद ने स्वयं को सभी धर्मों, जातियों और राष्ट्रीयताओं के बीच अधिक सद्भाव और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए समर्पित किया। उन्होंने दुनिया भर के लाखों लोगों को योग और ध्यान का ज्ञान दिया, न केवल अपने सार्वजनिक व्याख्यान और कक्षाओं के माध्यम से बल्कि दुनिया भर के देशों में उनके लेखन और केंद्रों के माध्यम से भी।

यूरोप और मिडिल-ईस्ट के कुछ भागों में घूमने के बाद, साल 1935 में जब परमहंस योगानंद भारत में साल-भर रहने के लिए आये तब उनकी मुलाक़ात महात्मा गाँधी से हुई।

उन्होंने भारत में महात्मा गाँधी, नोबल पुरुस्कार से पुरुस्कृत भौतिक विज्ञानी सी.वी. रमन, और कुछ विख्यात आध्यत्मिक लोग जैसे श्री रमना महृषि और आनंदमयी माँ के साथ समय व्यतीत किया। 

महात्मा गाँधी के अनुरोध पर, श्री योगानंद ने उन्हें और उनके कई अनुयायियों को क्रिया योग के आध्यात्मिक विज्ञान में निर्देश दिया। 

अपनी आत्मकथा प्रकाशित होने के बाद, योगानंद ने अपने जीवन के आखिरी सालों में साहित्यिक कार्य, अपने पहले के काम को संपादित करने और संशोधित करने और धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन से वापस लौटने के लिए समर्पित किया।परमाहंस योगानंद का 7 मार्च, 1952 को संयुक्त राज्य अमेरिका के भारत के राजदूत डॉ. बिनय आर सेन के सम्मान में रखे गए भोज में एक यादगार भाषण के वितरण के बाद लॉस एंजिल्स में निधन हो गया। 

अपने आखिरी भाषण में उन्होंने कहा,

मुझे गर्व है कि मेरा जन्म भारत में हुआ था। मुझे गर्व है कि हमारे पास मेरे आध्यात्मिक भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक महान राजदूत है। कहीं न कहीं कुशल अमेरिका और आध्यात्मिक भारत की दो महान सभ्यताओं के बीच ही विश्व सभ्यता के आदर्श का उत्तर बसा है।”

फर्श पर गिरने से पहले चेहरे पर एक मुस्कराहट के साथ उन्होंने अपनी कविता ‘माई इंडिया’ की कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं। बाद में उनके कुछ करीबी अनुनाईयों ने बताया कि उन्हें अपनी मृत्यु का पहले से ही भान था।

न्यूयॉर्क टाइम्स, लॉस एंजिल्स टाइम्स और टाइम पत्रिका समेत उनकी अचानक मृत्य का प्रेस में व्यापक कवरेज हुआ।इस आध्यात्मिक गुरु को श्रद्धांजलि में, भारतीय राजदूत बिनय आर सेन, जिन्होंने योगानंद के अंतिम क्षणों को देखा था, उन्होंने कहा, 

“वह भारत में पैदा हुआ, भारत के लिए जिया और अंतिम क्षणों में भी उसके होठों पर भारत का ही नाम था।”

भारत सरकार ने औपचारिक रूप से मार्च 1977 में उनके सम्मान में डाक टिकट जारी करके उनके उत्कृष्ट योगदान को मान्यता दी और कहा, 

भगवान के लिए प्यार और मानवता की सेवा के आदर्श परमहंस योगानंद के जीवन में पूर्ण अभिव्यक्ति मिली। यद्यपि उनके जीवन का मुख्य हिस्सा भारत के बाहर बिताया गया था, फिर भी, वे हमारे देश के महान संतों में से एक है।”

21 जून को जब दुनिया अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाती है, तो दुनिया भर में परमहंस योगानंद को याद किया जाता है! वह व्यक्ति जिसने योग को भारत के किनारे से आगे पहुँचाया! 

फीचर्ड फोटो सोर्स

मूल लेख: संचारी पाल


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