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पुष्पक विमान की वह आख़िरी उड़ान, जिसमें बाल-बाल बचे थे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई!

4 नवम्बर 1977- नई दिल्ली के एयर हेडक्वार्टर कम्युनिकेशन स्क्वाड्रन के लिए यह दिन बाकी सभी दिनों के जैसे ही था। लेकिन कुछ अधिकारियों को इस दिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री के साथ पुष्पक विमान से उड़ान भरनी थी।

इस विशेष उड़ान के लिए एक ख़ास टीम को चुना गया था, जिसमें योग्य व अनुभवी पायलट, नेविगेटर, फ्लाइट इंजिनियर, और फ्लाइट सिग्नलर आदि शामिल थे। इन सभी को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को दिल्ली से जोरहाट ले जाना था और फिर उसी रात उन्हें वापिस भी लौटना था।

फ्लाइट लेफ्टिनेंट रवीन्द्रन भी इस दल का हिस्सा थे और उनके अलावा, विंग कमांडर क्लारेंस जोसफ डी’लिमा (कप्तान), स्क्वाड्रन लीडर मैथ्यू सैरीअक (सह-पायलट), विंग कमांडर जोगिन्दर सिंह (नेविगेटर), स्क्वाड्रन लीडर वीवीएस सुनकर (फ्लाइट इंजिनियर) और फ्लाइट लेफ्टिनेंट ओपी अरोरा (फ्लाइट सिग्नलर) शामिल थे।

रवीन्द्रन उस समय अंडर-ट्रेनी फ्लाइट इंजिनियर थे, पर उस दिन उन्होंने यूनिफार्म नहीं पहनी हुई थी और इसलिए प्रोटोकॉल के मुताबिक वे कॉकपिट में नहीं जा सकते थे। लेकिन उनकी इसी एक भूल ने उन्हें मौत से बचा लिया।

बहुत से लोगों को पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की विमान दुर्घटना के बारे में पता होगा। इस दुर्घटना में देसाई मरते-मरते बचे थे। यह वही विमान था, जिसकी कप्तानी डी’लिमा कर रहे थे और इस दुर्घटना में रवीन्द्रन व ग्राउंड क्रू को छोड़ कर पूरी कॉकपिट क्रू की मृत्यु हो गयी थी।

आख़िर क्या हुआ था उस दिन?

पुष्पक विमान (फोटो साभार: भारत रक्षक)

कैप्टेन डी’लिमा ने मज़ाक में रवीन्द्रन को प्रोटोकॉल के मुताबिक यूनीफॉर्म न पहनने के लिए डांटा और रवीन्द्रन चुपचाप यात्रियों के पिछले कम्पार्टमेंट में जा कर बैठ गए। वे कम्पार्टमेंट की आख़िरी रो में जाकर बैठे, जो कि गैली के ठीक सामने थी। यहाँ से उन्होंने फ्लाइट स्टूवर्ड सार्जेंट अय्यर को फ्लाइट के लिए गैली तैयार करते हुए देखा।

यह तब तक एक आम उड़ान ही बनी रही जब तक कि एयरक्रू ने जोरहट एयरफील्ड की ओर उतरना शुरू नहीं किया| बादलों से घिरे होने के कारण यह सफ़र झटकों से भरा था।

विंग कमांडर रवीन्द्रन ने इस बारे में बाद में बताया कि फ्लाइट की लैंडिंग सामान्य तौर पर नहीं हो सकती थी, तो कैप्टेन ने गो-अराउंड शुरू किया। लेकिन ऐसा करते ही, इंजन की आवाज़ बहुत ज़्यादा तेज हो गयी। रवीन्द्रन ने जब खिड़की से बाहर झाँका, तो उन्हें जोरहाट रनवे दिखा और तभी कैप्टेन ने फिर एक बार लैंडिंग का प्रयास किया।

रवीन्द्रन को कुछ समझ नहीं आ रहा था और इसी उथल-पुथल में उन्होंने अपनी सीटबेल्ट खोल दी, जो कि उनकी सबसे बड़ी भूल थी। दरअसल, रवीन्द्रन का पूरा ध्यान उस वक़्त इंजन की आवाज़ पर था। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। बाहर भी सूर्यास्त हो गया था और सिर्फ़ अँधेरा था।

इस सब के बीच, रवीन्द्रन ने अचानक लैंडिंग लाइट स्विच ऑन होते देखी और उन्हें अंदाज़ा हुआ कि विमान अब लैंड करने वाला है। लेकिन, पुष्पक एक धमाके के साथ ज़मीन से जा कर टकराया और फिसलते हुए कुछ दूरी पर जाकर रुका। विमान का दायाँ इंजन अभी भी जल रहा था।

दुर्घटनाग्रस्त विमान (साभार: बिटोपन बोराह)

इसके तुरंत बाद केबिन की लाइट्स बंद हो गयीं।

रवीन्द्रन ने पहले ही अपनी सीट बेल्ट खोल दी थी और इस वजह से वे भारी झटके के साथ आगे की तरफ़ जाकर गिरे  और उनके बाएं घुटने में बहुत चोट आई। लेकिन बिना कोई वक़्त गंवाए, उन्होंने तुरंत चिल्लाना शुरू किया, ‘बाहर निकालो, पीछे का दरवाज़ा खोलो’ और उनकी आवाज़ सुनकर अय्यर ने तुरंत दरवाज़ा खोला।

दाहिने इंजन में अभी आग लगी हुई थी और उसी की धुंधली-सी रौशनी में रवीन्द्रन ने लोगों को अपनी सीट-बेल्ट खोलकर बाहर निकलने के लिए कोशिश करते हुए देखा। उन्होंने तुरंत अय्यर के साथ मिलकर यात्रियों को विमान से बाहर निकलने में मदद की।

इतने में, इंजन में लगी आग भी शांत हो गयी और अब हर तरफ अँधेरा था।

रवीन्द्रन ने बताया, “जब हमने आख़िरी यात्री को बाहर निकाला, तो किसी ने मुझे टॉर्च पकड़ा दिया। टॉर्च की हल्की रौशनी में, मैं कॉकपिट की और बढ़ने लगा। मैं वीआईपी केबिन के आगे सामान वाले कम्पार्टमेंट तक पहुंचा। लेकिन उसके बाद, विमान का आगे का पूरा हिस्सा नीचे की तरफ़ मुड़ चूका था और कॉकपिट तक पहुंचना असंभव था। मैं एक- एक करके अपने सभी साथियों (क्रू मेम्बर) का नाम चिल्लाने लगा। निराशा में भी मुझे एक छोटी-सी आस थी कि शायद मुझे जवाब मिलेगा। मुझे लगा कि पूरा क्रू शायद अन्दर बेहोशी की हालत में फंसा होगा, और मैं जानकर भी कुछ बुरा नहीं सोचना चाहता था।”

इस समय तक भी, रवीन्द्रन दुर्घटना की गंभीरता को नहीं स्वीकार पा रहे थे। कॉकपिट में अपने साथियों को खोजने के असफल प्रयास के बाद, वे वापिस लौटे और पिछले दरवाजे से बाहर आ गये।

(फोटो साभार: भारत रक्षक)

तब तक, प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी (उनके बेटे कांति भाई देसाई, जॉन लोबो (आईबी के निदेशक) और पी. के थुंगोन (अरुणांचल प्रदेश के मुख्यमंत्री) को ग्राउंड क्रू की मदद से पास के गाँव में सुरक्षित पहुंचा दिया गया था। अब दुर्घटनास्थल पर, सिर्फ़ रवीन्द्रन और ग्राउंड क्रू के कुछ सदस्य ही रह गये थे।

हालांकि, इसके बाद जो घटनाएँ हुईं, उन्हें आज तक यह फ्लाइट इंजिनियर नहीं भुला पाया है। अगर उस दिन, उस अंजान जगह पर स्थानीय लोगों ने उनकी मदद न की होती, तो शायद वे बच भी नहीं पाते।

दरअसल, दुर्घटना के कुछ समय पश्चात्त ही, पास के गाँव के लोगों को उन्होंने हाथों में मशाल लिए विमान की ओर बढ़ते देखा। पर आग लगने के डर से लोगों को आगे बढ़ने से रोका गया। रवीन्द्रन को अभी भी सिर्फ़ कॉकपिट में फंसे अपने साथियों की चिंता थी। इसलिए, उन्होंने अन्य लोगों के साथ मिल कर फिर से कॉकपिट के अन्दर पहुँचने की कोशिश की; पर सारी कोशिशें व्यर्थ गयी।

उन्होंने अपने घुटने के दर्द की भी परवाह नहीं की। रवीन्द्रन और कॉर्पोरल उपाध्याय ने गाँव वालों से अनुरोध किया कि वे वायु सेना स्टेशन को संपर्क कर, उन्हें बचाव दल भेजने के लिए कहें।

इसके बाद, उन्हें पास के एक घर में ले जाया गया, जहाँ उन्होंने एक पुराना जोंगा (जीप) खड़ा देखा। जोंगा के मालिक ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया, लेकिन 500 मीटर से ज़्यादा यह जीप नहीं चल पाई।

तभी, एक गाँववाले ने बताया कि पास में रहने वाले एक शिक्षक के पास साइकिल है। उस शिक्षक को गहरी नींद से जगा कर, रवीन्द्रन ने स्थिति समझाने की कोशिश की कि जल्द से जल्द उनका वायु स्टेशन पहुंचना बेहद ज़रूरी है। यहाँ माहौल पहले ही तनावपूर्ण था और अब इसमें भाषा की बाधा भी परेशानी बढ़ा रही थी।

उस समय, रवीन्द्रन के पास जो भी पैसे थे, उन्होंने साइकिल के लिए सिक्यूरिटी के तौर पर देने तक की पेशकश की।

राजीब अहमद द्वारा ली गई पुष्पक की यह तस्वीर (साभार: बिटोपन बोराह)
फोटो साभार: भारत रक्षक

आगे रविन्द्रन ने बताया कि कुछ गाँववालों और उस शिक्षक के बीच उनकी अपनी स्थानीय भाषा में बातचीत हुई, जो कि उनकी समझ में नहीं आई। इसके बाद वे लोग वहां से चले गए और कुछ समय बाद दो साइकिलों के साथ वापिस आये। उस शिक्षक ने उनसे किसी भी तरह के पैसे लेने के लिए मना कर दिया। उनमें से एक साइकिल पर रवीन्द्रन खुद सवार हुए और दूसरी पर गाँव के दो अन्य व्यक्ति चल पड़े, जो उन्हें वायु स्टेशन तक ले जाने के लिए राजी थे।

पूर्वोत्तर के लोगों के इस आतिथ्य और मददगार व्यवहार को देखकर, रवीन्द्रन भाव-भिवोर हो गये थे और आज भी वे इस बात को याद करते हैं।

अपने पीछे, कॉर्पोरल उपाध्याय को बैठाकर, टेकेला गाँव के अन्य दो गाँववालों के साथ, कच्चे और फिसलन भरे रास्तों पर पैडल मारते हुए वे निकल पड़े। उन्होंने आगे बताया, “हालांकि, मेरे घुटने का दर्द बढ़ रहा था, लेकिन उस स्थिति में मुझे अपनी चोट का अहसास ही नहीं हुआ।”

बहुत-सी मुश्किलों के बाद, आख़िरकार वे उस रास्ते पर पहुंचे जो स्टेशन तक जाता था। पर इस बार किस्मत ने उनका साथ दिया और रास्ते में उन्हें एक टेम्पो से मदद मिली। उस टेम्पो में कई मजदूर सवार थे, जो थोड़ी-बहुत अंग्रेजी समझते थे और उन्होंने पूरी घटना जानकर तुरंत मदद की पेशकश की।

अपने साथी गाँववालों का आभार व्यक्त कर और उन्हें साइकिल लौटाकर, रवीन्द्रन टेम्पो से कुछ ही मिनटों में स्टेशन पहुँच गए। इसके बाद, दुर्घटना स्थल की खोज, बचाव कार्य, कोर्ट ऑफ इंक्वायरी (सीओआई) जांच, और पीड़ितों का चिकित्सा कार्य आदि काफ़ी समय तक चलता रहा।

और जैसा कि रवीन्द्रन के मन में डर था, कॉकपिट क्रू का एक भी सदस्य इस दुर्घटना में जीवित नहीं बचा। हालांकि, उन्हें लगा था कि उनके साथियों के शव कॉकपिट में होंगें, लेकिन आगे का हिस्सा ज़मीन पर टकराने से कॉकपिट का फ्लोर एकदम टूट गया था, जिससे उनके साथियों के शव, दुर्घटनास्थल पर इधर-उधर पड़े मिले।

इस नौजवान इंजिनियर के लिए यह पल बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था। अपने साथियों के लिए छिप कर आंसू बहाने के आलावा अब उनके हाथ में कुछ नहीं बचा था।

इस दुर्घटना में शहीद हुए लोग (साभार: भारत रक्षक)

सुबह तक रवीन्द्रन का घुटना बुरी तरह सूज गया था। उनके घुटने का लिगामेंट टूट गया था और उन्हें पूरी तरह ठीक होने में तीन महीने लगे। कोर्ट की जांच के बाद, रवीन्द्रन और उपाध्याय के नामों की सिफारिश सैन्य वीरता पुरस्कार- शौर्य चक्र के लिए की गयी। और 26 जनवरी 1979 में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने उन्हें सम्मानित किया।

एक ओर जहाँ प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों के बाल-बाल बचने की ख़बर सभी अख़बारों में छाई रही, तो वहीं इन क्रू सदस्यों की शहादत के बारे में बहुत ही कम भारतीयों को पता चला और यह बात भारतीय वायु सेना में ही सिमट कर रह गयी। रवीन्द्रन की कहानी भी लोगों के सामने तब आई, जब साल 2018 में उन्होंने खुद एक ऑनलाइन मिलिट्री पोर्टल, भारत रक्षक, पर इसके बारे में लिखा।

दिलचस्प बात यह है कि रिटायरमेंट से पहले रवीन्द्रन को पूर्वोत्तर में दो बार नियुक्ति मिली, लेकिन फिर भी वे कभी भी टेकेला गाँव नहीं जा पाए। लेकिन इस दुर्घटना के चार दशक बाद, 4 नवंबर 2017 को उन्होंने अपने कुछ पूर्व सहयोगियों और दोस्तों के साथ इस गाँव का दौरा करने का फैसला किया।

फोटो साभार: भारत रक्षक

वे बताते हैं, “मुझे लगा था कि इतनी पुरानी घटना किसी को याद नहीं होगी और अब यह जगह भी हमें शायद नहीं मिलेगी। इसलिए मैंने वहां के स्थानीय वायु सेना और जिला प्रशासन के अधिकारियों को संपर्क किया, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वे मदद कर सकें। उन्होंने हमें पूरी मदद का आश्वासन दिया। एयरफोर्स स्टेशन के दो एयरमैन के साथ (जिन्होंने इनके दौरे की सभी तैयारियां की थी), हम बड़ी आसानी से घटनास्थल पर पहुँच गए।”

रवीन्द्रन के आने की ख़बर, ‘मोरारजी देसाई घटना’ में बचने वाले व्यक्ति के रूप में पूरे गाँव में फ़ैल गयी और तब उन्हें अहसास हुआ कि आज जहाँ पूरा देश इस घटना को भूल चूका है, वहीं इन गाँववालो के दिलो-दिमाग में अभी भी इस घटना की यादें बसी हैं।

हालांकि, बिटोपन बोराह से मिलने के बारे में उन्होंने कभी भी नहीं सोचा था। बोराह, उसी तरुण चुटिया के बेटे हैं, जिन्हें रवीन्द्रन ने उस दिन गहरी नींद से जगाकर साइकिल मांगी थी। रवीन्द्रन के आने की ख़बर सुनते ही बोराह ने उनसे संपर्क करने की कोशिशें की।

रवीन्द्रन बताते हैं, “हमने अगले दिन शाम को ट्रेन से मरियानी से गुवाहाटी लौटने की और उसी हिसाब से लोगों से मिलने की योजना बनायीं थी। पर जब हम यहाँ पहुंचे, तो न्यूज़ चैनल के साथ-साथ प्रिंट मीडिया की मौजूदगी देख कर दंग रह गए।”

फोटो साभार: भारत रक्षक

बोराह के प्रयासों से ही, टेकेला गाँव ने एक बार फिर जनवरी, 2018 में टीयू-124, पुष्पक को देखा– हालांकि, फर्क सिर्फ़ ये था कि इस बार यह बांस और घास द्वारा बनाया गया था और यहाँ के ‘माघ बीहू समारोह’ का हिस्सा था। इस समारोह में जिला अधिकारी, वायु सेना अधिकारी और स्थानीय राजनेता सम्मिलित हुए थे।

इस कहानी के लिए सभी फैक्ट, कोट और तस्वीरें, ‘भारत रक्षक पोर्टल’ से ली गयी हैं। आप विंग कमांडर (रिटायर) पी. के रवीन्द्रन की पूरी कहानी यहाँ पढ़ सकते हैं!

मूल लेख: लक्ष्मी प्रिया
संपादन: निशा डागर


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