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इश्वर चंद्र विद्यासागर की देख-रेख में, इस साहसी महिला ने किया था भारत का पहला कानूनन विधवा-पुनर्विवाह!

प्रतीकात्मक तस्वीर

तारीख- 7 दिसंबर 1856

पश्चिम बंगाल के कोलकाता में सुकास स्ट्रीट पर एक घर के बाहर लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था। यह घर था प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर राज कृष्ण बंदोपाध्याय का। उस दिन उनके घर में एक शादी हो रही थी और यह शादी पूरे देश में चर्चा का विषय था।

घर के बाहर गलियों में लोगों की इतनी भीड़ थी कि दुल्हन की पालकी को मंडप तक पहुंचाना मुश्किल हो रहा था। उस समय के सभी जाने-माने चेहरे यहाँ मौजूद थे। इनमें शामिल थे रामगोपाल घोष, हरचंद्र घोष, सम्भूनाथ पंडित, द्वारकानाथ मित्र जैसे लोग।

ये सभी पालकी को सही-सलामत भीड़ से निकालकर ला रहे थे। भीड़ इतनी थी कि काबू करने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी। इसी सब में, एक व्यक्ति मंडप के पास खड़ा होकर कुछ दिशा-निर्देश दे रहा था ताकि कोई गड़बड़ न हो। ये थे मशहूर समाज-सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर!

वही ईश्वर चंद्र विद्यासागर जिन्होंने हिन्दू विधवा पुनर्विवाह का कानून पारित करवाया था। यह एक्ट जुलाई 1856 में पारित हुआ और इसके मात्र चार महीने बाद वे यहाँ एक विधवा की शादी करा रहे थे। जिसे देखने पूरा कलकत्ता उमड़ पड़ा था।

यह शादी थी 10 साल की उम्र में ही विधवा हो चुकी कालीमती की।

पालकी को मंडप तक ले जाते हुए विद्यासागर

विद्यासागर ने कालीमती की शादी अपने ही एक साथी श्रीचन्द्र विद्यारत्ना से करवाई। इस शादी का जहाँ एक तरफ़ बहुत से लोगों ने विरोध किया तो दूसरी तरफ़ ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने इस शादी का पुरज़ोर समर्थन किया।

हिन्दू विधवा पुनर्विवाह एक्ट पास होने के बाद होने वाला यह पहला कानूनन विधवा विवाह था, पर यह पहली बार नहीं था जब किसी विधवा का पुनर्विवाह हुआ हो। इससे दो दशक पहले ही एक बंगाली युवा यह नामुमकिन कार्य कर चूका था।

दक्षिनारंजन मुखोपाध्याय ने बर्दवान की रानी बसंता कुमारी से विवाह किया था। बसंता कुमारी, राजा तेजचन्द्र की विधवा थी। यह शायद पहली बार था जब किसी विधवा का पुनर्विवाह हुआ था और वह भी अंतर्जातीय। हालांकि, मुखोपाध्याय और बसंता के रिश्ते को किसी ने स्वीकार नहीं किया और उन्हें अपना शहर छोड़कर लखनऊ में जाकर बसना पड़ा।

लेकिन मुखोपाध्याय का समाज में एक मुकाम था और वे रईस परिवार से थे, इसलिए उस समय ऐसा कदम उठाकर भी उन्होंने आराम से जीवन व्यतीत किया।

पर विद्यासागर को ग़रीब और आम विधवाओं की व्यथाओं ने प्रभावित किया और उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ़ जंग छेड़ दी। इसके लिए उन्होंने संस्कृत कॉलेज के अपने दफ़्तर में न जाने कितने दिन-रात बिना सोये निकाले ताकि वे शास्त्रों में विधवा-विवाह के समर्थन में कुछ ढूंढ सके।

ईश्वर चंद्र विद्यासागर

और आख़िरकार उन्हें ‘पराशर संहिता’ में वह तर्क मिला जो कहता था कि ‘विधवा-विवाह धर्मवैधानिक है’! इसी तर्क के आधार पर उन्होंने हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह एक्ट की नींव रखी। 19 जुलाई 1856 को यह कानून पास हुआ और 7 दिसंबर 1856 को देश का पहला कानूनन और विधिवत विधवा-विवाह हुआ।

विद्यासागर महिलाओं के उत्थान के लिए हमेशा प्रयासरत रहे। कहा जाता है कि जिन भी विधवा लड़कियों की शादी वे करवाते थे, उन्हें फ़रों की साड़ी भी वही उपहार स्वरुप देते थे।

उस समय इन सभी कार्यों के लिए विद्यासागर को समाज से ज़्यादातर विरोध और ताने ही मिले, लेकिन वे अपने आदर्शों पर अडिग रहे। उनके इन उसूलों को जहाँ समाज नकारता था, वहीं उसी समाज के कई तबके के लोग विद्यासागर को मसीहा मानते थे और उनका हौंसला बढ़ाते थे।

बताया जाता है कि शांतिपुर के साड़ी बुनकरों ने विद्यासागर के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए साड़ियों पर बंगाली में कविता बुनना शुरू किया था,

“बेचे थाको विद्यासागर चिरजीबी होए”

(जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो! )

भले ही, इतिहास इस विधवा-पुनर्विवाह पर मौन रहा लेकिन यह शादी पूरे भारत की महिलाओं के उत्थान के लिए एक क्रांतिकारी कदम था।


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