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जब सावित्रीबाई फुले व उनके बेटे ने प्लेग रोगियों की सेवा करते हुए अपनी जान गंवाई!

न दिनों जब हम अपने-अपने घर में बैठ कर खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे लिए अपनी जान की परवाह किए बिना चिकित्साकर्मी देश को निरंतर अपनी सेवा दे रहे हैं। वर्तमान महामारी ने हम सब को लाचार बना दिया है, लेकिन यह वक्त हार मानने का नहीं है। इतिहास के पन्ने को पलटिएगा तो ऐसी कई कहानियां पढ़ने को मिलेगी, जिसे पढ़कर हमारा मन मजबूत होता है।

यह पहली बार नहीं है जब भारत में कोई महामारी हुई है। बुबोनिक प्लेग, जिसे आमतौर पर ‘ब्लैक डेथ’ के रूप में भी जाना जाता है, ऐतिहासिक रूप से सबसे विनाशकारी महामारी में से एक रहा है। प्लेग दुनिया में बहुत-सी जगह फैला और बहुत सालों तक, इस महामारी का कारण पता नहीं चल पाया।

1896-97 में भारत भी इस जानलेवा बीमारी की चपेट में आया। इस एक साल के दौरान, बताया जाता है कि हर हफ्ते लगभग 1900 लोगों की जान गई। इन आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि हम उन वैज्ञानिकों से बेहतर स्थिति में हैं जो लैब में दिन-रात इस बीमारी का इलाज ढूंढ रहे हैं।

आज के इस कठिन दौर में सावित्रीबाई फुले व उनके बेटे यशवंतराव फुले के जीवन से हम प्रेरणा ले सकते हैं। इन दोनों ने मुश्किल परिस्थितियों में भी मानवता का धर्म निभाकर प्लेग के मरीजों की सेवा करने में अपनी जान तक गंवा दी।

एक चर्चित किस्सा है, सावित्रिबाई मुंडवा के माहर बस्ती में एक प्लेग ग्रसित 10 साल के बच्चे को अपने बेटे के क्लीनिक ले कर गयी जो पुणे के बाहर स्थित था। उस बच्चे की जान तो सावित्रीबाई ने बचा ली, पर इस दौरान वे खुद संक्रामण का शिकार हो गयी। अंततः 10 मार्च, 1897 को 66 वर्ष कि आयु में इस बीमारी के कारण उनकी मृत्यु हो गयी।

Around 1,900 people died in a week during the Bubonic plague in India

जातिवाद, प्लेग और फुले परिवार

भारतीय इतिहास में सावित्रीबाई का नाम कई सामाजिक आंदोलनों के लिए याद किया जाता है। अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिल कर इन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं के अधिकारों के लिए कई कार्य किए। एक जानी मानी मराठी लेखिका होने के साथ उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र के सुधार के लिए भी कई कार्य किए। इन सब के बीच सावित्रीबाई ने हमेशा मानवता के धर्म को जातिवाद के ऊपर रखा।

1873 में उनके पति ज्योतिराव फुले द्वारा शुरू किए गए सत्यशोदक समाज में, एक कार्यकर्ता के रूप में, उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फुले दंपति ने अपने गोद लिए गए बेटे की माँ, काशीबाई, को उस समय शरण दी, जब विधवा होने के बाद पुणे के कट्टर ब्राह्मण उन्हें मारना चाहते थे । जब उन्होंने काशीबाई की जान बचाई तब वो गर्भवती थीं। उनके बेटे यशवंतराव के जन्मोपरांत फुले दंपति ने 1874 में उसे गोद ले लिया।

Savitribai Phule, a prominent social reformer, urged her son to open a clinic for the patients.

जब भारत में प्लेग फैला तब भारतीय समाज जातिवाद के बंधन में जकड़ा हुआ था। चूंकि उस समय भारत पर ब्रिटिश सरकार का शासन था, सरकार ने सारे डॉक्टरों को जाति -आधारित भेदभाव के बिना रोगियों का इलाज करने का निर्देश दिया। तब कई ब्राह्मण डॉक्टरों ने इस कारण ट्रेनिंग लेने से बचने लगे क्यूंकि वे शूद्र व दलित समुदाय के रोगियों का इलाज नहीं करना चाहते थे।

सावित्रीबाई उस समय की सामाजिक स्थिति से अनजान नहीं थी। अपने डॉक्टर बेटे, जिसे उन्होंने गोद लिया था, से पुणे में एक ऐसे अस्पताल को खोलने को कहा जिसमें हर जाति के रोगियों का इलाज हो पाये।

इस अस्पताल को प्लेग संक्रमित जगहों से दूर, पुणे के बाहरी इलाके में खोला गया ताकि रोगियों के इलाज के साथ ही इस महामारी को फैलने से भी रोका जा सके। इसी दौरान अपनी सेवा देते हुए सावित्रीबाई की मृत्यु हो गयी।

उनके बेटे यशवंतराव फुले उस समय प्लेग से बच गए और अपनी सेवा देने सेना में चल गए। किन्तु 1905 में इन्हें वापस पुणे आना पड़ा क्योंकि इस महामारी ने दुबारा दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया था । रोगियों का इलाज करने के दौरान वे संक्रमण का शिकार हो गए जिससे अंततः 13 अक्तूबर 1905 में उनकी मृत्यु हो गयी।

जिस समय कई डॉक्टर छोटी जाति के रोगियों का इलाज करने से कतराते थे, वैसे में सावित्रीबाई व उनके बेटे का त्याग सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि वे दोनों कठिन समय में आगे आए बल्कि लोगों की जान बचाने की इस लड़ाई में कट्टर जातिवाद के विरुद्ध भी लड़ाई लड़ी।

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आज स्थिति बदल चुकी है। हम जिस समय में रह रहे हैं वहाँ किसी भी संक्रमण से खुद को बचाने के लिए उपकरण हमारे पास मौजूद है। फुले परिवार से हमें यह सीख तो लेनी ही चाहिए कि जहां तक संभव हो, हमें अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए।

मूल लेख – अंगारिका गोगोई 


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