यह बीते समय की बात लगती है, जब मनोरंजन के ज्यादा साधन नहीं थे और लोग मनोरंजन के लिए स्थानीय कला (Indian Cultural Arts) पर निर्भर रहते थे। मेला, सर्कस या कोई नुक्कड़-नाटक देखने के लिए लोगों की भीड़ जमा हो जाती थी। लेकिन आज ये सारे कलाकार बिना दर्शकों के अधूरा महसूस करते हैं।
हमारा देश सैकड़ों परफॉर्मिंग आर्ट्स और शिल्पकला का घर है। यही कलाएं हर राज्य की अपनी पहचान हैं। पुराने समय में ये कलाएं मनोरंजन का साधन होने के साथ-साथ, आम लोगों को प्राचीन धार्मिक शास्त्रों और लोक कथाओं से जोड़ने का काम करती थीं, जिसमें अक्सर एक नैतिक संदेश होता था।
लेकिन आज, लोगों की रुचि बदल गई है। शहरों के साथ गावों में भी लोग इन्हें भूलते जा रहे हैं। वे कलाकार जो सालों से अपने परिवार की धरोहर संभाल रहे थे, आज किसी दूसरे बिज़नेस से जुड़ने पर मजबूर हैं।
तो चलिए जानें कुछ ऐसी ही पारम्परिक परफॉर्मिंग आर्ट्स के बारे में, जो पहले काफी लोकप्रिय हुआ करती थीं।
महाराष्ट्र का तमाशा
तमाशा (Indian Cultural Arts) एक संगीतमय लोक नाटक है, जिसमें संगीत, अभिनय और नृत्य शामिल होता है। तमाशा प्रस्तुत करने के दो मुख्य लोकप्रिय तरीके हैं- एक ढोलकी भरी और दूसरा संगीत भरी।
यह लोककला ग्रामीण महाराष्ट्र से सदियों जुड़ी हुई है, यह कहना काफी मुश्किल है कि तमाशा का मंचन पहली बार कब हुआ था। लेकिन महाराष्ट्र के लोक नाट्य के रूप में इसे देश भर में पहचान मिली है। तमाशा शब्द भी ग्रामीण महाराष्ट्र से ही आया था।
ऐसा भी कहा जाता है कि गांव में शाम के वक़्त अक्सर लोग घेरा बनाकर बैठते थे और तमाशा कलाकार प्रस्तुति देते थे। हर एक तमाशा, एक फिल्म के समान दिखाया जाता था, जिसमें लावणी जरूर शामिल होती थी। 18वीं सदी में यह धीरे-धीरे शहरों में भी लोकप्रिय हो गया था।
जात्रा (यात्रा), बंगाल
18वीं शताब्दी में कलकत्ता में एक लोकप्रिय संस्कृतिक कार्यक्रम (Indian Cultural Arts), गांवों और शहरों में पेश किया जाता था, जिसे ‘जात्रा पाला’ के नाम से जाना जाता था। जात्रा को बंगाल के मुख्य त्योहारों में परफॉर्म किया जाता था, जिसमें गीत और नृत्य की जुगलबंदी होती थी।
इसके लिए स्पेशल गीत भी बनाए जाते थे। इसकी सबसे अच्छी बात यह होती थी कि इसे बनाने में हिंदू महाकाव्यों और पौराणिक कथाओं से प्रेरणा ली जाती थी और नाटक में अलग-अलग पात्रों के बीच वार्तालाप दिखाया जाता था। जात्राओं को गोल या चौकोर समतल मैदानों में किया जाता था, जिसमें दर्शकों को मैदान के चारों ओर एक घेरे में बैठाया जाता था।
20वीं शताब्दी तक, इन जात्राओं ने बंगालियों के बीच देशभक्ति की भावना को बढ़ाने में बड़ी अच्छी और अहम भूमिका निभाई थी।
बहरूपिया कला
बहरूपिया एक पारंपरिक प्रदर्शन कला है, जो कभी भारत के कई हिस्सों में प्रस्तुत की जाती था। बहरुपिया कलाकार अलग-अलग पौराणिक किरदार या किसी जानवर का रूप धारण करके मेले या सांस्कृतिक उत्सवों में नाटकीय रूप से आते थे, जिसे देखकर बड़े और बच्चे सभी चौंक जाया करते थे।
रामलीला और नुक्कड़ नाटकों में भी बहरुपिये देखने को मिलते थे। सालों पहले इन्हें समाज में एक कलाकार का दर्जा दिया जाता था।
लेकिन समय के साथ ये उत्सव कम होने लगे और ये कलाकार अपना गुजारा चलाने के लिए गली-मोहल्ले में अपनी कला दिखाने का काम करने लगे, अब तो ये बहरुपिये कहीं नज़र भी नहीं आते।
नौटंकी, उत्तर प्रदेश
नौटंकी भी रंगमंच का ही एक रूप है, जो गीतों, नृत्यों, कहानियों, मजाकिया संवादों, हास्य और मेलोड्रामा के साथ बनते थे। इसकी शुरुआत 19वीं शताब्दी के अंत में उत्तर प्रदेश में हुई थी। ये नाटक गांव में ज्यादा प्रचलित हुए थे, शुरुआत में इसमें भी धार्मिक और पौराणिक कहानियों को दर्शाया जाता था। फिर धीरे-धीरे इसके जरिए सामाजिक और नैतिक कुरीतियों को भी दर्शाया जाने लगा।
नुक्कड़ में नौटंकी कलाकार भाग लेते थे। समय के साथ नुक्कड़ नाटकों (Indian Cultural Arts) को स्कूल कॉलेजों में भी प्रस्तुत किया जाने लगा। लेकिन आजकल नुक्कड़ नाटक कम ही देखने को मिल रहे हैं।
भवई नाटक, गुजरात
गुजरात में भवई का 700 साल से भी पुराना इतिहास है। भवई शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- पहला ‘भाव’ जिसका अर्थ है भावना और दूसरा ‘वई’ जिसका अर्थ है वाहक।
भवई का मूल उद्देश्य जन जागरूकता और मनोरंजन था। भवई में सरल कहानी को हास्य अभिनय के साथ सुनाया जाता था। इस कला की भाषा मुख्य रूप से गुजराती लोक बोली रही है, लेकिन उस पर उर्दू, हिन्दी और मारवाड़ी का प्रभाव भी रहा है।
भवई की परंपरा को विकसित करने में पुरुषों का ही योगदान प्रमुख रहा है। मंचन में भी पुरूष ही हिस्सा लेते हैं, जो स्त्री पात्रों की भूमिका भी निभाते हैं। इन पुरूष कलाकारों के लिए भवई, आजीविका का ज़रिया भी था। लेकिन आज भवई कला विलुप्त होने से इन कलाकारों का रोजगार भी खत्म होने की कगार पर है।
आधुनिक साधन, फिल्म और ऑनलाइन मनोरंजन के इस दौर में हम इन परफॉर्मिंग आर्ट्स (Indian Cultural Arts) को याद भी नहीं करते। लेकिन सही मायनों में ये कलाएं सिर्फ मनोरंजन नहीं थीं, बल्कि हमारे संस्कृति का हिस्सा भी थीं। कहीं ऐसा न हो इनसे दूर जाकर हम अपनी संस्कृति से भी दूर हो जाएं।
संपादन : अर्चना दुबे
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