सम्राट समुद्रगुप्त (Samrat Samudragupta), गुप्त राजवंश के दूसरे राजा थे। देश में मुद्रा के चलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। उन्होंने अपने शासनकाल के दौरान तांबे से लेकर सोने तक की मुद्राओं को लागू किया।
उन्होंने अपने शासन काल में मुख्य रूप से सात तरह के सिक्कों (Samudragupta Coins) को शुरू किया, जिसे आगे चलकर कर आर्चर, बैकल एक्स, अश्वमेघ, टाइगर स्लेयर, राजा और रानी और लयरिस्ट जैसे नामों से जाना गया।
समुद्रगुप्त (Samudragupta) ने अपनी निपुणता और कुशलता से पूरे भारत को जीत लिया था और वह कभी युद्ध नहीं हारे। इस वजह से ब्रिटिश इतिहासकार वी. ए. स्मिथ ने उन्हें ‘भारत का नेपोलियन’ करार दिया।
मौर्यों से बराबरी की कोशिश
भारत में मौर्य काल के पतन के बाद, कई राज्यों का उदय और पतन हुआ। शासकों ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन कोई मौर्यों के आस-पास नहीं पहुंच सका।
लेकिन, चौथी से छठी सदी के बीच गुप्त राजवंश ने भौगोलिक विस्तार और शासन की पूर्णता में मौर्यों के मुकाबले काफी सफलता हासिल की थी। गुप्त राजवंश (Gupta Empire) का उदय कैसे हुआ, इसकी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है।
जानकार मानते हैं कि यह शायद एक धनी भू-स्वामियों का परिवार था, जिसका धीरे-धीरे मगध में प्रभाव बढ़ गया और 319-20 ईसवी में चंद्रगुप्त प्रथम (Chandragupta I) इसके पहले शासक हुए। उन्होंने अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए शक्तिशाली लिच्छवी राजवंश की कुमारदेवी से शादी की।
चंद्रगुप्त प्रथम और कुमारदेवी ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम था – समुद्रगुप्त।
समुद्रगुप्त (Samudragupta) की बुद्धि काफी तेज थी और उनमें राजा के सभी गुण थे। फिर, चंद्रगुप्त प्रथम ने 335 ईसवी में उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। लेकिन, उनका यह फैसला उनके भाइयों को स्वीकार नहीं था। नतीजन समुद्रगुप्त के भाइयों ने उनके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। लेकिन समुद्रगुप्त ने उन्हें पराजित कर दिया।
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सत्ता संभालने के बाद, समुद्रगुप्त (Samudraputa) ने एक ऐसे साम्राज्य की इच्छा जताई, जिसका पूरा नियंत्रण गुप्त वंश की राजधानी पाटलिपुत्र में हो और यहीं से पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की बागडोर संभाली जा सके। इस तरह समुद्रगुप्त, मौर्यों के इरादों को फिर से दोहरा रहे थे।
एक छोर से दूसरे छोर तक लहराया विजय पताका
समुद्रगुप्त (Achievements of Samudragupta) ने उत्तर में हिमालय तक सभी राजाओं को जीतने के साथ ही, दक्षिण-पूर्व के शासकों को अपने राज्य में शामिल होने के लिए मजबूर किया। माना जाता है कि उनकी सेना कांचीपुरम तक प्रभावी थी।
उन्होंने आर्यावर्त में अपने नौ विरोधियों को बुरी तरह से कुचल दिया और मध्य भारत से लेकर पूरे दक्खन के कबीले के सरदारों को कर देने के लिए मजबूर किया। उनका यही रवैया पूर्व में रहा और पश्चिम के भी नौ राज्यों को गुप्त वंश में मिला लिया।
इतना ही नहीं, समुद्रगुप्त ने देवपुत्र शाहानुशाही यानी कुषाणों, शकों और श्रीलंका के राजाओं को भी कर देने के लिए विवश किया। माना जाता है कि उनका प्रभाव मालदीव और अंडमान में भी था।
संगीत से था प्रेम
समुद्रगुप्त (Samudragupta) ने करीब 40 वर्षों तक शासन किया। लेकिन ऐसा नहीं है कि वह सिर्फ युद्ध और जीत के लिए ही लालायित रहते थे। उन्हें संगीत से काफी लगाव था और उन्हें कई सिक्कों में वीणा वादन करते हुए दिखाया गया है। संस्कृत कवि और प्रयाग प्रशस्ति के लेखक हरिषेण उन्हीं के दरबार में काम करते थे, जो उनके महत्वपूर्ण मंत्री भी थे।
समुद्रगुप्त ने धर्म, साहित्य और कला को भी खूब बढ़ावा दिया और सभी धर्मों और जातियों के साथ एकता बना कर रखी। माना जाता है श्रीलंका के राजा मेघवर्मन ने उनसे बोध गया में एक बौद्ध विहार बनाने की अनुमति मांगी थी और उन्होंने हां कर दिया। इतिहास में आज इसे एक उदाहरण के तौर देखा जाता है।
प्रजा के जीवन स्तर को बढ़ावा दिया
समुद्रगुप्त ने अपने सैन्य अभियानों के जरिए, आने-जाने की सुविधा को सरल बनाया। जिसके फलस्वरूप माल भारत के किसी भी कोने में आसानी से पहुंच सकता था।
इस वजह से लोगों का जीवन स्तर काफी ऊंचा था और उनके पास अच्छे खाने के अलावा अच्छे कपड़े, हीरे-जवाहरात जैसे विलासिता के सभी साधन थे। ऐसा नहीं है कि ये सुख-सुविधाएं सिर्फ उच्च तबके के लोगों तक ही सीमित थी। प्राप्त मिट्टी के बर्तनों, तांबे और लोहे की वस्तुओं से पता चलता है कि शुद्र हों या ग्रामीण, उनके शासनकाल में सभी काफी समृद्ध थे।
समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक किया। उन्होंने छोटे-बड़े राज्यों को जीतकर अखंड भारत की स्थापना की। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है।
समुद्रगुप्त के बाद, उनके बेटे चंद्रगुप्त द्वितीय ने गुप्त साम्राज्य को संभाला। इतिहास में उन्हें ‘विक्रमादित्य’ के नाम से जाना जाता है।
संपादन- जी एन झा
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