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कनाई लाल दत्त: खुदीराम बोस के बाद देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला आज़ादी का दूसरा सिपाही!

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में न जाने कितने ही युवाओं ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की क़ुरबानी दे दी थी। देश की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर झूलने वाले खुदीराम बोस को कौन भूल सकता है। जिस वक़्त उन्हें फांसी हुई, तब वह पूरी तरह से 19 बरस के भी नहीं थे। इतनी-सी उम्र में अपनी मातृभूमि के लिए अपनी जान गंवाने से पहले उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा।

खुदीराम की शहादत के बाद जैसे सेनानियों को होड़ लग गई कि कौन अपने देश के लिए शहीद होगा। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और काकोरी कांड के शहीदों का नाम भी इसी फेहरिस्त में शामिल होता है। हालांकि ऐसे भी कुछ नाम हैं जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की नाक के नीचे आज़ादी की नींव रखी और खुश होकर मौत को गले लगाया। लेकिन बहुत ही कम भारतीय इन महान क्रांतिकारियों से परिचित हैं।

खुदीराम बोस के बाद फांसी के फंदे पर झूलने वाले दूसरे क्रांतिकारी थे 20 बरस के कनाई लाल दत्त। 30 अगस्त, 1888 को बंगाल में हुगली ज़िले के चंदन नगर में जन्मे कनाई लाल की प्रारम्भिक शिक्षा बम्बई में हुई थी। उनके पिता चुन्नीलाल ब्रिटिश सरकार के नौसेना विभाग में एकाउंटेंट के पद पर कार्यरत थे और इस वजह से वह अपने परिवार को भी यहीं ले आए थे। अपनी प्रारंभिक शिक्षा आर्य शिक्षा सोसाइटी स्कूल में पूरी करने के बाद, कनाई चंदन नगर लौट आए।

उन्होंने यहां पर हूगली के कॉलेज में दाखिला ले लिया। ग्रेजुएशन के दिनों में उनकी मुलाक़ात प्रोफेसर चारूचंद्र रॉय से हुई। रॉय ने ही चंदन नगर में क्रांतिकारी सोच को हवा दी थी। उनके क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव कनाई पर भी पड़ने लगा। धीरे-धीरे उनके मन में ब्रिटिश हुकुमत को भारत से उखाड़ फेंकने की विचारधारा ने जन्म ले लिया। जुगांतर पार्टी से जुड़ने के बाद वह और भी बहुत से क्रांतिकारियों के संपर्क में आए।

Kanailal dutta (Source)

वह ‘बंगाल विभाजन’ का दौर था। अंग्रेजी हुकुमत ने बंगाल को बांटने का फरमान जारी कर दिया था और युवा क्रांतिकारियों ने उनके इस फैसले के खिलाफ क्रांति छेड़ दी। जगह-जगह बंगाल विभाजन के खिलाफ आंदोलन हुए और कनाई ने चंदननगर से आंदोलन का मोर्चा निकाला। क्रांतिकारी गतिविधियों में कनाई की भागीदारी देखते हुए कॉलेज ने उनकी ग्रेजुएशन की डिग्री रोक ली। पर फिर भी वह पीछे नहीं हटे बल्कि जितना उन पर दबाव बनाया गया, उतने ही उनके इरादे पक्के हुए।

साल 1908 में पढ़ाई पूरी होने के बाद, कनाई कोलकाता चले गए। यहां पर उनका संपर्क ‘जुगांतर संगठन’ के क्रांतिकारियों से हुआ। यहां वह बरीन्द्र कुमार घोष के घर में रहते थे। इस घर में क्रांतिकारी अपने हथियार और गोला-बारूद रखते थे। इसी बीच 30 अप्रैल 1908 को खुदीराम और उनके साथी प्रफ्फुलचंद्र चाकी ने मुज़फ्फरपुर में किंग्सफ़ोर्ड पर बम फेंका। इस घटना ने ब्रिटिश सरकार की नींदें उड़ा दीं और क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने के लिए उनकी धर-पकड़ शुरू हो गई। पुलिस को कनाई और उनके दोस्तों की गतिविधियों का भी सुराख लग गया।

2 मई 1908 को पुलिस ने कनाई के ठिकाने पर भी छापा मारा और उन्हें घर में एक बम फैक्ट्री मिली। यहां से काफी मात्रा में पुलिस को क्रांतिकारियों के हथियार मिले। इसके बाद अंग्रेजों ने अरविन्द घोष, बरिन्द्र घोष, सत्येन्द्र नाथ (सत्येन) व कनाई लाल समेत 35 आज़ादी के सिपाहियों को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया और सब पर मुकदमा चला। गिरफ्तार होने वाले लोगों में, नरेंद्र नाथ गोस्वामी नाम का सहयोगी भी था। सभी क्रांतिवीरों पर उनकी योजनाओं और साथियों का सच उगलवाने के लिए अत्याचार किए गए।

नरेंद्र गोस्वामी ने ब्रिटिश सरकार के डर से और जेल से छूटने के लालच में अपने साथियों के नाम बताना शुरू कर दिया। गोस्वामी की गद्दारी ने और भी बहुत से क्रांतिवीरों को अंग्रेजों के चुंगल में फंसा दिया। एक के बाद एक क्रांति की योजनाओं पर से नरेंद्र गोस्वामी पर्दा उठाने लगा। ऐसे में, क्रांतिकारियों को अपनी सभी योजनाओं पर पानी फिरता दिखा और उन्होंने ठान लिया कि वह देश के इस गद्दार को सबक सिखा कर रहेंगे ताकि फिर कोई अपनी मातृभूमि के साथ दगा न करे।

मुकदमे के दौरान नरेंद्र के प्रति क्रांतिकारियों की नाराज़गी ब्रिटिश सरकार को समझ में आने लगी और उन्होंने नरेंद्र को अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की। उन्होंने उसे अलग जेल में रखा। पर अंग्रेजों की कोई भी सुरक्षा इस गद्दार के जीवन को नहीं बचा पाई। कनाई ने अपने सहयोगी सत्येन बोस के साथ मिलकर कोर्ट में उसकी गवाही से पहले ही उसकी हत्या कर दी।

Kanai and Satyen after murdering the British approver (Source)

दरअसल, अपने अन्य क्रांतिकारियों को बचाने के लिए कनाई और सत्येन ने यह योजना बनाई थी। सबसे पहले सत्येन ने बीमार होने का नाटक किया और जेल के अस्पताल में पहुंच गए। उनके बाद, कनाई ने भी पेट में भारी दर्द होने का नाटक किया। वहां अस्पताल में सत्येन ने किसी तरह वार्डन को यकीन दिला दिया कि वह जेल में तंग हो चुका है और उसे अब आज़ाद होना है। अंग्रेजों को लगा कि सत्येन भी नरेंद्र की तरह उनके गवाह बन सकते हैं। इसलिए उन्होंने तुरंत नरेंद्र को जेल के अस्पताल में बुलाया ताकि वह सत्येन को अपनी तरफ कर सके।

लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि यह क्रांतिकारियों की योजना है एक देशद्रोही को उसके अंजाम तक पहुंचाने की। कनाई और सत्येन ने अपनी योजना के बारे में दूसरे क्रांतिकारियों को पहले ही खबर पहुंचा दी थी। बरीन्द्र घोष ने अपने साथियों को पत्र लिखकर बन्दूक जेल में भिजवाने के लिए कहा। उनके साथियों ने जेल में रिवाल्वर भिजवाई। जब सत्येन को नरेंद्र से मिलवाने के लिए ले जाया गया तो कनाई ने भी उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की। अंग्रेजों को उन पर कोई शक नहीं हुआ क्योंकि उन्हें यही भ्रम था कि उन्हें और गवाह मिलने वाले हैं।

जैसे ही नरेंद्र, सत्येन और कनाई के सामने आए, उन्होंने अपने कपड़ों में छिपाई रिवाल्वर निकालकर, उन पर गोलियां बरसा दीं। नरेंद्र ने भागने की कोशिश की लेकिन सब व्यर्थ क्योंकि कनाई ने उन्हें गोली मार कर वहीं ढेर कर दिया। ब्रिटिश सिपाहियों ने तुरंत कनाई और सत्येन को दबोचा लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। चंद पलों में इन दो नौजवानों ने देश के गद्दार को मौत की नींद सुला दिया। इसके बाद, कनाई और सत्येन पर मुकदमा चला।

इस घटना ने पूरे देश में तहलका मचा दिया कि कैसे दो क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश पुलिस की आँखों के सामने उनके गवाह की हत्या कर दी। 21 अक्टूबर 1908 को कनाई और सत्येन को फांसी की सजा सुनाई गई। पूरे मुकदमे के दौरान एक पल के लिए भी कनाई विचलित नहीं हुए। बल्कि जब जज ने उनसे इस घटनाक्रम के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ऐसा करने का सिर्फ एक कारण था कि वह हमारे देश का गद्दार था। सजा के बाद जब अपील का प्रश्न उठा तो कनाई ने साफ़ मना कर दिया और कहा कि उन्हें कोई अपील नहीं करनी।

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फांसी की सजा के बाद भी उनके चेहरे पर सिर्फ एक मुस्कान थी। बताया जाता है कि फांसी से एक दिन पहले जब जेल के वार्डन ने कनाई को हंसते हुए देखा तो कहा कि अभी तुम मुस्कुरा रहे हो लेकिन कल सुबह यह मुस्कान तुम्हारे होठों से गायब हो जाएगी। हालांकि, जब दूसरे दिन उन्हें फांसी के लिए ले जाया गया तब भी वह मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने जेल वार्डन से मुस्कुराते हुए पूछा कि अब आपको मैं कैसे दिख रहा हूँ? जेल वार्डन के पास भारत माँ के इस सपूत के लिए कोई जवाब नहीं था।

बताते हैं कि बाद में इसी जेल वार्डन ने प्रोफेसर रॉय से कहा था कि अगर कनाई जैसे 100 वीर भी आपको मिल जाएं तो आपको आपका लक्ष्य पाने से कोई नहीं रोक सकता!

10 नवंबर 1908 को कनाई लाल दत्त को मात्र 20 बरस की आयु में फांसी हुई। खुदीराम बोस के बाद फांसी के फंदे पर झूलने वाले वह दूसरे क्रांतिकारी थी। फांसी के बाद, जब उनके शव को उनके परिजनों को दिया गया तो आज़ादी के इस परवाने को देखने के लिए हजारों की संख्या में भीड़ उमड़ी। कोलकाता का कालीघाट लोगों से भर गया था और हर कोई अंतिम बार इस महान क्रांतिवीर के दर्शन करना चाहता था। चारों तरफ ‘जय कनाई’ का उद्घोष था और यह उद्घोष था ब्रिटिश सरकार के भारत से उखड़ते कदमों का।

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बेशक, यह कनाई लाल दत्त जैसे वीरों की ही शहादत है जो आज हम एक आज़ाद भारत में सांस ले रहे हैं। द बेटर इंडिया भारत माँ के इस सच्चे सपूत को सलाम करता है!


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