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कादंबिनी गांगुली : जिसके संघर्ष ने खुलवाए औरतों के लिए कोलकाता मेडिकल कॉलेज के दरवाजे!

भारत में ब्रिटिश राज के दौरान महिलाओं को शिक्षा और अन्य अधिकार मिलना तो दूर, इनके बारे में बात भी नहीं की जाती थी। औरतों को घर की चारदीवारी में भी घूँघट के पीछे रखा जाता था और बाल विवाह, सती प्रथा जैसी परम्पराएं समाज का अभिन्न हिस्सा थीं।

महिलाओं को न तो पढ़ने की आज़ादी थी और न ही बाहर जाकर कोई नौकरी करने की, क्योंकि बहुत ही आम धारणा थी कि औरतों के काम सिर्फ़ शादी करना, घर का चूल्हा-चौका करना, बच्चों का पालन-पोषण आदि तक ही सीमित है। किसी भी अहम फ़ैसले, अहम मुद्दे चाहे घर के हों या देश के, पर औरतों को बोलने का अधिकार नहीं था।

पर आज हम आपको उसी दौर की ऐसी महिला से रूबरू करायेंगें जिन्होंने न सिर्फ़ चूल्हे से उठकर घर की दहलीज को पार किया, बल्कि देश के निर्माण में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। आज भी भारत देश इस स्त्री के ऋण से मुक्त नहीं हो सकता है।

यह कहानी है कादंबिनी गांगुली की- ब्रिटिश भारत में सबसे पहले ग्रेजुएट होने वाली महिलाओं में से एक। साथ ही, उनका नाम उन चंद महिलाओं में भी शामिल होता है जिन्होंने पूरे दक्षिण एशिया में सबसे पहले पश्चिमी चिकित्सा (वेस्टर्न मेडिसिन) की पढ़ाई और ट्रेनिंग की।

कादंबिनी गांगुली (साभार)

कादंबिनी ने भारत में महिलाओं को घर से बाहर निकलकर नौकरी करने और खुद पर निर्भर होने के लिए प्रेरित किया।

भागलपुर में जन्मी कादंबिनी का पालन-पोषण चंगी, बारीसाल (अब बांग्लादेश में) में हुआ। उनके बचपन पर बंगाल-क्रांति और नवजागरण का काफ़ी प्रभाव पड़ा। उनके पिता ब्रज किशोर बासु स्कूल में हेडमास्टर थे और साथ ही, ब्रह्म समाज से जुड़े हुए थे। उन्होंने भी अपने जीवनकाल में महिला उत्थान के लिए काफ़ी काम किया और 1863 में भागलपुर महिला समिति की स्थापना की। यह भारत में अपनी तरह का पहला महिला संगठन था।

युवा कादंबिनी ने अपनी औपचारिक शिक्षा बंगा महिला विद्यालय से पूरी की, जिसका विलय आगे चलकर बेथ्युन स्कूल के साथ हो गया था। बेथ्युन स्कूल से कोलकाता यूनिवर्सिटी की दाखिला परीक्षा के लिए बैठने वाली वे पहली प्रतिभागी थीं। और फिर साल 1878 में इस परीक्षा को पास करने वाली वे पहली महिला बनीं।

उनकी सफलता ने बेथ्यून कॉलेज को 1883 में एफए (फर्स्ट आर्ट्स) और स्नातक पाठ्यक्रम (ग्रेजुएशन कोर्स) शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया। पूरे ब्रिटिश राज में स्नातक पास करने वाली वे और चंद्रमुखी बासु पहली दो स्नातक थीं।

कादंबिनी और द्वारकानाथ गांगुली

सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं, बल्कि हर एक रुढ़िवादी परंपरा, जो महिलाओं को पैरों में बेड़ियां बनाकर पहना दी गयी थी, को उन्होंने कदम- कदम पर चुनौती दी। उन्होंने अपने शिक्षक, द्वारकानाथ गांगुली से शादी की, जो कि बंगा महिला विद्यालय में पढ़ाते थे और ब्रह्म समाज के अहम नेता थे। द्वारकानाथ उनसे उम्र में 20 साल बड़े थे।

द्वारकानाथ गांगुली (साभार)

ब्रह्म समाज के किसी भी नेता ने उनकी शादी का निमंत्रण पत्र स्वीकार नहीं किया।

जब सबको लगा कि ग्रेजुएशन के बाद कादंबिनी अपनी पढ़ाई बंद कर देंगी, तो उनके पति ने उन्हें मेडिसिन पढ़ने के लिए प्रेरित किया। हालांकि, एक औरत होकर डॉक्टर बनने के उनके फ़ैसले की भद्रलोक समुदाय (बंगाल की उच्च जाति) में काफ़ी निंदा हुई।

और यह निंदा इस हद तक थी कि ‘बंगभाषी’ पत्रिका के संपादक महेशचन्द्र पाल ने अपने एक कॉलम में उन्हें ‘तवायफ़’ तक कह दिया था।

संपादक की इस नीच हरकत से खफ़ा द्वारकानाथ ने उसे न सिर्फ़ खरी-खोटी सुनाई, बल्कि उन्होंने उसे पत्रिका का वह पन्ना निगलने के लिए मजबूर कर दिया जिस पर वह कॉलम लिखा था। साथ ही, उसे छह महीने कारावास और 100 रूपये बतौर जुर्माना भरने की सजा दी गयी।

भारत की पहली महिला डॉक्टरों में से एक

लेकिन डॉक्टर बनने की भी उनकी राह बहुत मुश्किल थी। कादंबिनी के मेरिट लिस्ट में आने के बावजूद कोलकाता मेडिकल कॉलेज ने उन्हें दाखिला देने से मना कर दिया था क्योंकि इससे पहले कोई भी महिला वहां से नहीं पढ़ी थी।

द्वारकानाथ, एक अरसे तक, कोलकाता मेडिकल कॉलेज में महिलाओं के दाखिले और हॉस्टल आदि की व्यवस्था के लिए कार्यरत रहे। पर फिर भी क़ानूनी कार्यवाही की बात आने पर कॉलेज प्रशासन ने कादंबिनी को दाखिला दिया।

साल 1886 में आनंदी गोपाल जोशी के साथ वेस्टर्न मेडिसिन में प्रैक्टिस करने वाली वे पहली महिला भारतीय डॉक्टरों में से एक थीं। उन्होंने अपनी मेडिकल डिग्री बंगाल मेडिकल कॉलेज से प्राप्त की और इससे उन्हें प्रैक्टिस करने की अनुमति मिल गयी।

मेडिकल क्षेत्र में ही आगे की पढ़ाई के लिए वे 1892 में लंदन चली गयीं और एडिनबर्ग, ग्लासगो, और डबलिन से विभिन्न प्रमाण पत्र प्राप्त किए। भारत लौटने के बाद, उन्होंने लेडी डफ़रिन अस्पताल में कुछ समय के लिए काम किया और बाद में अपनी निजी प्रैक्टिस शुरू की।

सामाजिक अभियान

उनके विचार हमेशा से प्रगतिशील थे। कई सामाजिक अभियानों का उन्होंने सबसे आगे रहकर सञ्चालन किया। पूर्वी भारत में कोयला खदानों में महिला मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई भी उन्होंने बढ़-चढ़ कर लड़ी। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 5 वें सत्र में पहले महिला प्रतिनिधिमंडल (वोट देने के लिए चुनी गई महिलाएं) का भी हिस्सा थीं।

जब 1906 में बंगाल विभाजन के चलते देश भी बंटने लगा, तो कादंबिनी ने 1908 में कोलकाता में महिला सम्मेलन का आयोजन किया और इसके अध्यक्ष के रूप में कार्य किया। उसी वर्ष, उन्होंने सत्याग्रह का खुलकर समर्थन किया और कार्यकर्ताओं को समर्थन देने के लिए धन जुटाने के लिए लोगों को संगठित किया।

उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गाँधी को कारावास होने के बाद गठित हुई ट्रांसवाल इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया और वहां के भारतीयों के लिए भी दिन-रात काम किया।

उन्होंने साल 1915 में सबके सामने कोलकाता मेडिकल कॉलेज के मेडिकल सम्मेलन में महिला छात्रों को दाखिला न देने की रिवायत के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। यह उनके भाषण का ही असर था जिसने विश्वविद्यालय के अधिकारियों को अपनी नीतियों में संशोधन करने और सभी महिला छात्रों के लिए अपने दरवाजे खोलने के लिए प्रेरित किया।

1898 में अपने पति की मृत्यु के बाद वे सार्वजानिक जीवन से दूर हो गयीं और फिर धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा। अपनी मृत्यु से एक साल पहले उन्होंने बिहार और उड़ीसा में महिला खनन मजदूरों की मदद के लिए दौरा किया।

उन्होंने कभी भी किसी मेडिकल इमरजेंसी को संभालने से मना नहीं किया। अपनी मृत्यु वाले दिन, 7 अक्टूबर 1923 को भी अपनी मौत से 15 मिनट पहले वे किसी का इलाज करके लौटी थीं। पर बदकिस्मती से, जब तक उन्हें कोई मेडिकल मदद मिलती, वे इस दुनिया को छोड़कर जा चुकी थीं।

महिलाओं के हित और अधिकारों के लिए ताउम्र लड़ने वाली भारत की इस बेटी को कभी नहीं भुलाया जा सकता है!

मूल लेख: जोविटा अरान्हा 


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