जब भी चीन के लीडर भारत के दौरों पर आते हैं, तो वे अक्सर महाराष्ट्र में एक परिवार से मिलते हैं। यह परिवार है डॉ. द्वारकानाथ शान्ताराम कोटणीस का।
डॉ. कोटणीस को द्वितीय चीन-जापान युद्ध (1937-1945) के दौरान उनकी सेवाओं के लिए चीन में बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है। भारत और चीन की मैत्री का प्रतीक माने जाने वाले डॉ. कोटणीस उन पाँच युवा डॉक्टरों में से एक थे, जिन्हें 1938 में द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान चीन में राहत-कार्यों के लिए भेजा गया था।
उनकी मौत के सालों बाद भी चीन के लोग उनकी निःस्वार्थ सेवा और काम के प्रति समर्पण के लिए उन्हें आज भी याद करते हैं।
महाराष्ट्र के सोलापुर में 10 अक्टूबर 1910 को जन्में कोटणीस ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ बॉम्बे के सेठ जी. एस. मेडिकल कॉलेज से मेडिसिन की पढ़ाई पूरी की।
साल 1938 में जापान ने चीन पर हमला बोल दिया था। उस समय चीन के कम्युनिस्ट लीडर जनरल ने जवाहर लाल नेहरु से मदद मांगी। उन्होंने भारत से कुछ डॉक्टर घायल सैनिकों और जन-साधारण के इलाज हेतु भेजने के लिए कहा। इसके लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी लोगों से एक पब्लिक प्रेस कांफ्रेंस के ज़रिये अपील की थी।
उन्होंने डॉक्टरों की एक टीम, एम्बुलेंस और साथ ही कुछ आर्थिक मदद भी भारत से चीन भिजवाई। इस टीम में पाँच डॉक्टर थे. जिनमें से एक डॉ. कोटणीस भी थे।
सितम्बर, 1938 में यह टीम चीन पहुंची, जहाँ चीन के सभी बड़े नेताओं ने उनका स्वागत किया। यह टीम उस समय चीन के लिए किसी भी दुसरे एशियाई देश से आने वाली पहली मदद थी। इसके बाद डॉ. कोटणीस ने लगभग पाँच सालों तक चीन के लोगों की बिना किसी स्वार्थ के सेवा की।
डॉ कोटणीस की बहन ने बताया था कि उनका भाई नियमित रुप से परिवार को पत्र लिखता था। हमेशा ही उनके पत्रों से ख़ुशी झलकती थी। उन्होंने कभी भयानक युद्ध की स्थितियों या फिर अपनी परेशानियों के बारे में नहीं लिखा। दूसरों की सेवा और अपना धर्म निभाते हुए वे बहुत खुश थे।
बताया जाता है कि कभी-कभी तो डॉ कोटणीस ने लगातार 72 घंटों तक युद्ध में घायल सैनिकों के ऑपरेशन कर, उनकी जान बचायी। उन्होंने सैंकड़ों सैनिकों का इलाज किया और साथ ही आम चीनी लोगों के लिए मसीहा बने रहे। उनकी इस सद्भावना और कर्तव्यनिष्ठा से प्रभावित एक चीनी नर्स गुओ क्विंग लांग ने उन्हें पसंद करने लगी।
डॉ. कोटणीस से उनकी पहली मुलाकात डॉ. नार्मन बैथ्यून के मकबरे के उद्घाटन के दौरान हुई थी और वह उनसे काफी प्रभावित हुईं। गुओ को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि कोटणीस चीनी भाषा बोल सकते थे और कुछ हद तक लिख भी सकते थे।
साल 1941 में गुओ और डॉ. कोटणीस ने शादी कर ली। उनका एक बेटा भी हुआ जिसका नाम यिनहुआ रखा गया।
डॉ. कोटणीस बिना अपनी परवाह किये लोगों की सेवा करते रहे। उस समय चिकित्सा और उपचार के सीमित साधन थे । राहत शिविरों में प्रकाश तथा साधनों के अभाव में लैम्पों की रोशनी में काम करना बेहद कठिन था, किन्तु उनका सेवा-भाव इतना अधिक प्रबल था कि वे अधिक-से-अधिक सैनिकों की प्राणरक्षा करना चाहते थे। एक भारतीय डॉक्टर को इस तरह काम करते देखकर चीनी भी उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे।
युद्ध के तनावपूर्ण माहौल में लगातार काम करते हुए उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। नींद की कमी और अत्यधिक थकान के चलते उन्हें मिर्गी के दौरे पड़ने लगे। धीरे-धीरे यह बिमारी इतनी बढ़ गयी कि डॉ. कोटणीस को बचाना मुश्किल हो गया। साल 1942 में 9 दिसंबर को केवल 32 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।
डॉ. कोटणीस ने देश, जाति व धर्म की सीमाओं से परे जाकर मानवता की सच्ची सेवा में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। उनकी मृत्यु पर चीनी नेता माओ ज़ेडोंग ने कहा,
“सेना ने अपने सहायक हाथ को खो दिया और देश ने अपने एक दोस्त को खोया है।”
एक और चीनी अधिकारी ने कहा था कि डॉ. कोटणीस को भविष्य में वर्तमान से भी ज़्यादा सम्मान मिलेगा क्योंकि उन्होंने भविष्य को संवारा है। डॉ. कोटणीस को चीन में बहुत ही सम्मान के साथ याद किया जाता है। उनके सम्मान में चीन में डाक टिकट जारी किए गए हैं। उनकी याद में वहां स्मारक भी बनाए गए हैं।
इतना ही नहीं कुछ समय पहले डॉ. कोटणीस के गाँव में जब सुखा पड़ा तो चीनी सरकार ने मदद के लिए 30 लाख रूपये भी भिजवाए। साल 2017 में चीन ने वह सांत्वना पत्र भी उनके परिवार को ससम्मान दिया, जिसे उस समय चीन के लीडर माओ ने अपने हाथ से डॉ. कोटणीस की मृत्यु के बाद उनके लिए लिखा था।
भारत के इस महान डॉक्टर की कहानी को सिनेमा के परदे पर भी उतारा गया। फ़िल्मकार वी. शांताराम ने साल 1946 में उनके जीवन पर आधारित ‘डॉ. कोटणीस की अमर कहानी’ नामक फ़िल्म बनाई। इस फ़िल्म की पटकथा डॉ. कोटनिस पर लिखे गए उपन्यास “And One Did Not Come Back” पर आधारित थी!
इस महान डॉक्टर को सलाम, जिसने भारत का नाम पूरे विश्व में गर्व से ऊँचा किया।
( संपादन – मानबी कटोच )