“चालीस करोड़ों की आवाज़
सहगल – ढिल्लों – शाह नवाज़”
दिसंबर, 1945 में लाहौर के मिंटो पार्क में यह नारा दिन-रात गूंज रहा था। ये नारे, इंडियन नेशनल आर्मी (INA) के तीन सेकंड टियर कमांडरों – प्रेम कुमार सहगल, शाह नवाज़ खान, और गुरबख्श सिंह ढिल्लों के समर्थन में लगाए जा रहे थे।
इन तीनों पर नवंबर के महीने से मिलिट्री ट्रायल चल रहा था क्योंकि उन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए ब्रिटिश आर्मी को छोड़ दिया था। उन पर इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 121 के तहत मुकदमा चलाया गया कि उन्होंने विद्रोह में बागियों का साथ दिया और इस वजह से उन्हें देशद्रोही करार दिया गया।
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कांग्रेस पार्टी के सदस्य और चीफ डिफेंस काउंसिल, भूलाभाई देसाई के भरसक प्रयासों के बावजूद, कोर्ट ने उन तीनों को आरोपी माना और उन्हें सजा सुनाई गई। 3 जनवरी, 1946 को हुए फैसले में उन्हें फांसी की सजा नहीं दी गई, लेकिन उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। उनके सभी वेतन और भत्ते को जब्त करने का आदेश भी दिया गया।
इन तीनों के बारे में और स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के बारे में आपको इतिहास में बहुत ही कम जानकारी मिलेगी। इनके बारे में बहुत-सी दिलचस्प कहानियां हैं और इनमें से एक भारतीय सिनेमा के मशहूर अभिनेता शाहरुख खान से जुड़ी हुई है।
सूत्रों के मुताबिक, शाहरुख खान की माँ, लतीफ़ फ़ातिमा के लिए शाह नवाज़ उनके पिता समान थे। 40 के दशक के अंत में, फ़ातिमा और उनका परिवार दिल्ली में एक दुर्घटना में फंस गया था। ऐसे में उन्हें शाह नवाज़ ने बचाया और उन्हें अस्पताल लेकर गए।
शाह नवाज़ इसके बाद लगातार उनके सम्पर्क में रहे और यह भी कहा जाता है कि उन्होंने फ़ातिमा को गोद ले लिया था। ऐसा भी माना जाता है कि फ़ातिमा की शादी मीर ताज मोहम्मद खान से शाह नवाज़ के बंगले में ही हुई थी। मीर ताज भी एक स्वतंत्रता सेनानी थे और शाह नवाज़ के काफी करीब थे।
शाह नवाज़ का आईएनए में योगदान:
साल 1914 में शाह नवाज़ का जन्म अविभाजित भारत के रावलपिंडी जिले में हुआ था। अपने पिता टिक्का खान की ही तरह शाह नवाज़ ने भी साल 1935 में ब्रिटिश आर्मी जॉइन की।
यह वह वक़्त था जब दुनिया दूसरे विश्व युद्ध की दहलीज पर खड़ी थी। उन्होंने भी ब्रिटिश आर्मी के लिए सिंगापुर में युद्ध में भाग लिया। जापानी सेना युद्ध जीत गई और उन्होंने 40 हज़ार सैनिकों को बंदी बनाया, जिसमें से शाह नवाज़ भी एक थे।
किस्मत से, सिंगापुर में उनकी मुलाक़ात नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई और नेताजी से उन्हें INA में शामिल होने की प्रेरणा मिली। आज़ाद हिंद फौज में उन्हें उनके हौसले, बुद्धिमानी और दृढ़ संकल्प के चलते बहुत जल्द पदोन्नति मिली और वह सेकंड डिवीज़न के अफसर बन गये।
उनकी कार्यकुशलता से प्रभावित होकर नेताजी ने उन्हें साल 1944 में मांडले में आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान सम्भालने की ज़िम्मेदारी दी। एक साल बाद, उन्होंने कोहिमा में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाला और फिर बर्मा में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
सहगल और ढिल्लों के साथ-साथ उन पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया गया। ट्रायल के बाद शाह नवाज़ ने आज़ाद हिंद फौज छोड़ दी और अपना राजनैतिक सफ़र शुरू किया।
साल 1952 में उत्तर प्रदेश के मेरठ से उन्होंने लोक सभा इलेक्शन जीता। इसके अगले एक दशक में, उन्होंने भारतीय रेलवे में उप मंत्री का पदभार और फिर कृषि, स्टील और खदान जैसे कई मंत्रालय संभाले।
भारतीय राजनीति में साल 1956 में उन्होंने एक अहम भूमिका निभाई, जब उन्हें ‘शाह नवाज़ समिति’ का अध्यक्ष बनाया गया। इस समिति का काम नेताजी सुभाष चद्र बोस की रहस्मयी मौत के कारणों का पता लगाना था। इस समिति ने भारत और जापान में बहुत से लोगों से बात की, उनसे सवाल-जवाब किए, सभी मौजूद सबूतों को गहनता से जांचा और आखिर में फैसला सुनाया कि नेताजी की मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हुई थी।
साल 1983 में, शाह नवाज़ ने इस दुनिया को अलविदा कहा और उन्हें लाल किला के पास दफनाया गया। लाल किले में ही उन पर मुकदमा चला था। इसी जगह उन्होंने अपने सिर से ‘देशद्रोही’ का कलंक हटाकर, स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव प्राप्त किया था।
कवर फोटो: विकिपीडिया और यश राज फिल्म्स
संपादन – अर्चना गुप्ता
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