सरल जीवनशैली और दृढ निश्चय के साथ हमें स्वतन्त्रता दिलाने वाले महात्मा गाँधी की उपलब्धियां कई हैं। वस्त्र के नाम पर शरीर पर एक धोती और हाथ में एक छड़ी पकड़ हमें आज़ादी दिलाने के मार्ग पर जब ये चले तो मंज़िल कठिन थी पर अहिंसा, नैतिकता और उपवास के जरिये इन्होंने इसे कैसे सफल बनाया इसकी कहानी हम कई बार सुन चुके हैं।
पर हममें से कुछ ही लोग ये जानते होंगे कि स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान गाँधीजी ने करीब 17 उपवास किए थे जिनमें से सबसे लंबा उपवास 21 दिनों तक चला था। चाहे मिल मजदूरों के हक की लड़ाई हो या हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन करना, अहिंसा व सत्य की अपनी इस लड़ाई में बापू ने उपवास को अपना शस्त्र बनाया।
ऐसे कई इतिहासकार हैं, जिन्होंने स्वतन्त्रता के लिए किए गए इनके लंबे संघर्ष की प्रशंसा की। लेकिन ऐसे कुछ ही इतिहासकार हैं जिनका ध्यान इनकी जीवनशैली व खान पान पर गया।
अपने खान-पान के बारे में बापू का कहना था, “यह मेरे जीवन का शौक रहा है। यह मेरे लिए उतना ही ज़रूरी रहा है जितना समय-समय पर मुझे व्यस्त रखने वाले अन्य काम।”
यहाँ बापू के खान-पान को समझने की हमने छोटी सी कोशिश की है।
वैष्णव परिवार में जन्मे महात्मा के लिए शुरू से ही मांसाहारी भोजन निषेध था। हालांकि बचपन में विद्रोह स्वरूप इन्होंने कभी-कभी मांस भी खाया था, पर अपने इस कार्य पर बापू को बाद में पछतावा होने लगता था जिस कारण आखिरकार उन्होंने पूर्ण रूप से इसे त्याग दिया।
कानून की पढ़ाई के लिए लंदन जाने तक गाँधीजी ‘रिवाज व परंपरा से शाकाहारी’ थे। अपनी पुस्तक, ‘गाँधी बिफोर इंडिया’ (Gandhi before India) में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने लिखा है कि किस प्रकार हेनरी साल्ट की ‘प्ली फॉर वेजिटेरियनिज्म’ (plea for vegetarianism) की एक पतली सी पुस्तक ने गाँधी को ‘स्वेच्छा से शाकाहारी’ बनने में मदद की।
लंदन में अपने रूममेट जोसिया ओल्डफील्ड के साथ गाँधीजी ने ‘लंदन वेजिटेरियन सोसाइटी’ का पता लगाया। वहाँ जाने पर उन्होंने देखा कि भारत ने पूरे विश्व के कई लोगों को शाकाहारी बनने के लिए प्रेरित किया है। कैसे अंग्रेज सैनिक बीयर और बीफ के बिना रह नहीं पाते थे, जबकि भारतीय सैनिक दाल व चावल जैसे समान्य भोजन खा कर भी पूरी बहादूरी के साथ जंग के मैदान में उतरते थे।
गाँधी और जोसिया ने मिल कर 52, सेंट स्टीफन गार्डन, बायसवॉटर होम में ऐसी पार्टियां भी दी, जिसमें मेहमानों को दाल चावल और किशमिश परोसे गए।
गाँधीजी ने स्वास्थ्य और खान-पान पर कई किताबें भी लिखी हैं, जैसे ‘डाइट एंड डाइट रिफॉर्म्स’ (diet and diet reforms), ‘द मॉरल बेसिस ऑफ वेजिटेरियनिज्म’ (The moral basis of vegetarianism) और ‘की टू हैल्त'(Key to Health) प्रमुख हैं।
शाकाहारी गाँधीजी ने आगे चलकर हर तरह के मसालों का प्रयोग भी छोड़ दिया और उबली हुई सब्जियों को अपना आहार बना लिया। डेयरी व्यवसाय में जानवरों के साथ हो रहे बर्तावों से दु:खी हो, उन्होंने गाय व भैंस के दूध को छोड़ बकरी के दूध का सेवन करना आरंभ कर दिया।
साबरमती आश्रम में रह रहे इनके परिवार के अन्य सदस्यों के लिए गाँधीजी के इन नियमों को अपनाना इतना असान नहीं था। ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के एक लेख में डॉ. विक्रम ने लिखा है कि ऐसे आहार तालिका का पालन करना परिवार की महिला सदस्यों के लिए कितना कठिन हो जाता था।
गाँधी के दूसरे बेटे, मनीलाल की पत्नी सुशीला भी उन लोगों में थीं जिन्हें साबरमती आश्रम में ऐसे आहार पर रहना पड़ता था। उनकी पोती, उमा धुपेलीया मिस्त्री, जिन्होंने मनीलाल की जीवनी ‘Gandhi’s Prisoner’ लिखी है, उनसे बात करते हुए सुशीला ने बताया, “मुझे आज भी वो भोजन याद है, उबले हुए बैंगन, उबले हुए चुकंदर, करी में उबली हुई सब्जियां, मक्खन, घी के बिना सूखे ब्रेड, मैं उनको दवा की तरह खाया करती थी”।
सुशीला की सबसे छोटी बेटी ईला जब पाँच वर्ष की थी तब उसने बापू से कहा था कि आश्रम का नाम बदल कर कोलग्राम रख देना चाहिए। वह वहाँ के उबले कद्दू खा कर ऊब चुकी थी।
सालों बाद विक्रम से बात करते हुए ईला ने एक राज उजागर किया। सेवाग्राम में सब का खाना एक ही रसोईघर में बनता था जिसे गाँधीजी व उनके अनुयायी खाते थे। पर ‘बा’ (कस्तूरबा गाँधी) का एक निजी रसोईघर हुआ करता था जहां वह अपने नाती-पोतो के लिए मिठाइयां बनाया करती थीं।
इसका प्रमाण 1942 में बापू द्वारा आश्रम प्रबन्धक को लिखा हुआ पत्र है जिसमें बापू ने कहा है, “मिल की चीनी नहीं खरीदी जानी चाहिए, पर जब तक बा हैं, इसे जारी रखना होगा।”
अपने अनुयायियों के अलावा गांधीजी अक्सर दूसरों को भी खान-पान संबंधी सलाह दिया करते थे। अपनी किताब Gandhi: An Illustrated Biography में प्रमोद कुमार ने 300 तस्वीरों के माध्यम से महात्मा के मानवीय पक्ष को और अधिक उजागर करने का प्रयास किया है। इसमें एक ऐसी तस्वीर भी है जिसमें सन 1936 में गांधी ने अपने समकालीन नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के लिए आहार तालिका भी तैयार की थी।
इस डाइट प्लान में उन्होंने लिखा, “पश्चिम में कच्चे प्याज और लहसुन खाने की सलाह दी जाती है। मैं ब्लड प्रेशर के लिए नियमित रूप से कच्चा लहसुन खाता हूँ। यह सबसे अच्छा एंटीटोक्सिन है। क्षय रोगियों को इसे खाने की सलाह दी जाती है।”
वे आगे बताते हैं कि मुझे लगता है इन दो सब्जियों के विरुद्ध जन्मा पूर्वाग्रह इनके गंध के कारण है। आयुर्वेद अनायास ही इन दोनों की प्रशंसा करता है। लहसुन को गरीबों का कस्तुरी कहा जाता है। मुझे पता नहीं ग्रामीण बिना प्याज व लहसुन के प्रयोग के कैसे रहेंगे।
बापू ने अपने जीवन की तरह अपने आहार को भी सरल रखा। कहा भी गया है, “आप वही बनते हैं जो आप खाते हैं!” गाँधीजी को देखें तो यह कथनी सिद्ध होती दिखाई पड़ती है।
संपादन – भगवती लाल तेली
मूल लेख – जोविता आरन्हा