कहते हैं कि अंधेरे को कोसने की बजाय, हमें एक दिया जलाने की कोशिश करनी चाहिए और ऐसा ही कुछ भारत रत्न से सम्मानित समाज सुधारक धोंडो केशव कर्वे ने किया। उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत में महिला उत्थान के लिए समर्पित कर दिया।
जिस जमाने में महिलाओं को चारदीवारी में भी घूँघट के पीछे रखा जाता था, उस जमाने में कर्वे ने अपने कार्यों से महिलाओं को न सिर्फ़ घूँघट से बल्कि घर की दहलीज से भी बाहर निकालकर, पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने का हौसला दिया।
शुरूआती जीवन:
18 अप्रैल 1858 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के शेरावली में जन्मे और मरुड कस्बे में पले-बढ़े केशव कर्वे के मन में आत्मसम्मान और स्वाभिमान के बीज उनकी माँ ने रोपे थे। भले ही उनके घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, लेकिन उनकी माँ कभी भी उन्हें किसी से कोई दान-दक्षिणा नहीं लेने देती थीं। अपनी माँ के बाद, उनके एक शिक्षक और मार्गदर्शक, विनायक लक्ष्मण सोमन का उन पर काफ़ी प्रभाव पड़ा।
बताया जाता है कि गाँव के लोगों को भी देश में घट रही घटनाओं की जानकारी होनी चाहिए, इसलिए वे कर्वे से ऊँची आवाज़ में अखबार पढ़वाते थे। यहीं से समाज के प्रति कर्वे की जागरूकता बढ़ी और उन्होंने बहुत से विचारकों और समाज सुधारकों को पढ़ना शुरू किया।
साल 1884 में उन्होंने मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से गणित विषय से अपनी ग्रेजुएशन की और इसके बाद उन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक स्कूल में अध्यापक के तौर पर की। इस दौरान उन्होंने निश्चय किया कि उनकी कमाई का एक हिस्सा वे अपने गाँव के उत्थान के लिए खर्च करेंगे। आगे चलकर गोपाल कृष्ण गोखले के आमंत्रण पर उन्होंने पुणे के फ़र्ग्युसन कॉलेज में बतौर गणित प्रोफेसर पढ़ाना शुरू किया।
यह वह वक़्त था जब देश में क्रांतिकारी बदलाव हो रहे थे। कर्वे भी राजाराम मोहन राय, इश्वरचंद्र विद्यासागर, विष्णु शास्त्री, पंडिता रमाबाई और ज्योतिराव फुले जैसे महान सुधारकों के संपर्क में आये। इनके विचारों से सहमत कर्वे ने भी देश में महिलाओं की, ख़ासकर कि विधवाओं की स्थिति को सुधारने की दिशा में काम करने का प्रण लिया।
बदलाव का प्रारम्भ:
कर्वे जब 14 वर्ष के थे तो उनका विवाह राधाबाई से हुआ था। राधाबाई ने हर एक सामाजिक कार्य में उनका साथ दिया। लेकिन फिर साल 1891 में बच्चे के जन्म के दौरान बहुत ही कम उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी। इस घटना का कर्वे पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
इसके बाद, कर्वे ने बाल विवाह, कम उम्र में गर्भधारण आदि के चलते होने वाली परेशानियाँ और बाल-विधवा जैसे मुद्दों पर सिर्फ़ विचार-विमर्श नहीं किये, बल्कि साल 1893 में उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह के लिए एक मण्डली बनायी। देश में एक उदाहरण स्थापित करने के लिए उन्होंने खुद अपने एक दोस्त की विधवा बहन, गोदुबाई से शादी कर ली।
समाज के खिलाफ़ जाकर इतना बड़ा कदम उठाने के लिए कर्वे को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी, क्योंकि यह तो उनके समाज सुधार कार्यों की सिर्फ़ शुरुआत थी। अब तक उन्हें समझ आ गया है कि अगर बदलाव लाना है तो पहले लोगों को शिक्षित करना होगा और सबसे ज़्यादा महिलाओं को शिक्षित करना होगा ताकि वे अपने हक़ की आवाज़ उठा सकें।
महिला विद्यालय की स्थापना:
सबसे पहले उन्होंने विधवाओं और अनाथ लड़कियों के रहने के लिए एक आश्रम की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने पुणे की हिंगणे नामक जगह पर विधवाओं के लिए देश का पहला स्कूल शुरू किया। कर्वे की विधवा भाभी, पार्वती अठावले इस स्कूल की पहली छात्रा थीं। स्कूल के बाद उन्होंने 1907 में पुणे में महिला विद्यालय की भी स्थापना की, जो कि लड़कियों के लिए एक रेजिडेंट स्कूल था और यहाँ उन्हें नौकरी के लिए ट्रेन किया जाता था।
पितृसत्तात्मक समाज के तानों और बहिष्कार के अलावा, महिला आश्रम और स्कूल को चलाने के लिए फंडिंग जुटा पाना भी एक बड़ी समस्या थी। बहुत बार उन्हें इधर-उधर से चंदा इकट्ठा करना पड़ता था क्योंकि आश्रम के कामों में व्यस्त होने के करण उनकी अपनी प्रोफेसर की नौकरी पर असर पड़ता था। इस वजह से कई बार उन्हें सैलरी भी नहीं मिल पाती थी। कहते हैं कि उनके अपने बच्चे और पत्नी बहुत ही गरीबी में रहे, लेकिन उन्होंने अपने महिला आश्रम और विद्यालय को जैसे-तैसे चलाए रखा।
सालों तक, वे जगह-जगह जाकर लोगों को समझाते, उन्हें अपनी बेटियों और बहुओं को शिक्षित करने के लिए जागरूक करते। लेकिन रुढ़िवादी समाज उन्हें हमेशा तिरस्कृत ही करता। फिर भी कर्वे न तो पीछे हटे और न ही रुके। उन्होंने अपना सफर जारी रखा।
उनके कार्यों की गूंज इस कदर बढ़ने लगी कि खुद गाँधी जी ने उनके सम्मान में अपने साप्ताहिक पत्र, इंडियन ओपिनियन में उनके बारे में लिखा। उस वक़्त गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। लेकिन वे खुद को कर्वे के लिए लिखने से नहीं रोक पाए।
देश की पहली महिला यूनिवर्सिटी:
साल 1914 में कर्वे ने अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और खुद को पूरी तरह से अपने संगठनों के लिए समर्पित कर दिया। जापान में टोक्यो के महिला विश्विद्यालय के बारे में जानकार, कर्वे ने भी तय कर लिया कि वे भारत में भी सिर्फ़ महिलाओं के लिए एक यूनिवर्सिटी शुरू करेंगे और इसके लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए उन्होंने देश-विदेश की यात्राएँ की।
लगभग 2 .5 लाख रुपये के चंदे के साथ कर्वे ने यूनिवर्सिटी की नींव रखी, लेकिन पैसों की कमी के चलते काम बीच में ही रुक गया। ऐसे में, मुंबई के मशहूर उद्योगपति विठ्ठलदास दामोदर ठाकरसी ने इस विश्वविद्यालय को 15 लाख रुपए दान दिए। जिसके बाद विश्वविद्यालय का नाम ठाकरसी की माता के नाम पर “श्रीमती नत्थीबाई दामोदर ठाकरसी (एस.एन.डी.टी.) विश्वविद्यालय रखा गया।
मात्र 5 छात्राओं के साथ साल 1916 में यह यूनिवर्सिटी शुरू हुई। लेकिन आज इस यूनिवर्सिटी के 26 कॉलेजों में 70 हज़ार से भी ज़्यादा छात्राएं पढ़ती हैं। लड़कियों के तीन स्कूल भी इस यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आते हैं और आर्ट, मैनेजमेंट, टेक्नोलॉजी आदि जैसे लगभग 38 डिपार्टमेंट इस यूनिवर्सिटी में संचालित हैं!
देश के लिए निःस्वार्थ भाव से काम करने कारण ही लोग उन्हें ‘महर्षि कर्वे’ कहने लगे। क्योंकि उन्होंने भारतीय महिलाओं को अंधेरे से निकल कर रौशनी की तरफ आने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भारतीय समाज को अंधविश्वासों और कुरूतियों से मुक्त करने में अहम् भूमिका निभाई।
साल 1929 में वे विश्व-भ्रमण पर भी गये, उन्होंने यूरोप, अमेरिका और जापान की यात्रा की।यहाँ उन्होंने शिक्षा पर हो रहीं कई कॉन्फ्रेंस में भाग लिया और एक शिक्षाविद के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने दुनिया के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाईन से भी मुलाकात की। अपने इस टूर पर उन्होंने अपनी यूनिवर्सिटी के विकास के लिए चंदा भी इकट्ठा किया और भारत वापिस आये।
शिक्षा के साथ-साथ कर्वे जातिवाद के मुद्दे पर भी काम करते रहे। वे गाँव-गाँव घूमकर लोगों को समझाते, उन्हें जागरूक करते। गांवों में शिक्षा के प्रचार के लिए कर्वे ने “महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति” की स्थापना की, जिसने धीरे-धीरे विभिन्न गाँवों में 40 प्राथमिक विद्यालय खोले। इसके बाद उन्होंने ‘समता संघ’ की भी शुरुआत की, जिसके तहत उनका उद्देश्य लोगों को यह समझाना था कि सभी इंसान समान है और सभी को शिक्षा का, सम्मान का अधिकार है।
1955 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से अलंकृत किया और 100 वर्ष की आयु पूरी हो जाने पर, 1957 में मुंबई विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया। साल 1958 में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया। भारत सरकार के डाक तार विभाग ने इनके सम्मान में एक डाक टिकट निकालकर इनके प्रति अपना सम्मान ज़ाहिर किया।
9 नवम्बर 1962 को 104 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कहा। लेकिन हमारा देश और हम देशवासी, कर्वे द्वारा किये गये महान कार्यों के लिए आजीवन उनके आभारी रहेंगे। द बेटर इंडिया, देश के इस अनमोल रत्न और सच्चे देशभक्त को सलाम करता है!
(Inputs from Sanchari Pal)
संपादन – मानबी कटोच
Article Summary: Dhondo Keshav Karve was a renowned Indian social reformer who devoted his life to the field of women’s welfare. He pioneered women’s education in India and set up India’s first school for widows and first university for women. He has been awarded with Padam Shri and Bharat Ratna.