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अंग्रेज़ों को चकमा दे, जेल से फ़रार हुए इस क्रांतिकारी को कभी नहीं पकड़ पाई थी ब्रिटिश पुलिस!

हरूपिया बनकर अंग्रेज़ों की आँखों में धूल झोंकने वाले क्रांतिकारी की बात होते ही आपको चंद्रशेखर आज़ाद याद आ जाते होंगे। पर आज हम आपको ऐसे एक क्रांतिकारी का किस्सा सुनायेंगे, जिसने अंग्रेज़ों को ऐसा चकमा दिया कि अंग्रेज़ हाथ मलते रह गए पर वो मरते दम तक उनकी गिरफ़्त में नहीं आया!

यह क्रांतिकरी थे – पंडित गेंदालाल दीक्षित।

जिस समय देश के लोगों को अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध खड़ा करने की जद्दोज़हद चल रही थी, उस समय इन्होंने डकैतों को इकट्ठा कर अंग्रेज़ी सरकार के खिलाफ़ ‘शिवाजी समिति’ का गठन किया। उनके इस संगठन ने अंग्रेज़ी सरकार की नींद हराम कर दी थी।

पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर 1888 को उत्तर-प्रदेश के आगरा जिले के मई गाँव में हुआ। मात्र 3 वर्ष की आयु में ही अपनी माँ को खो देने वाले गेंदालाल का बचपन बिना किसी वात्सल्य और सुख-सुविधा के बीता। शायद इसी वजह से वे शरीर और मन दोनों से ही मज़बूत बन गए थे।

पंडित गेंदालाल दीक्षित
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घर की आर्थिक परिस्थिति ठीक न होते हुए भी गेंदालाल ने किसी तरह दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की। आगे पढ़ने की इच्छा तो थी, परन्तु घर के खर्चों में हाथ बंटाने के लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में औरैया जिले की डीएवी स्कूल में शिक्षक की नौकरी स्वीकार कर ली। इसी दौरान 1905 में हुए बंग-भंग के बाद चले स्वदेशी आन्दोलन का उन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। क्रांति के इस दौर में गेंदालाल को एक ऐसी योजना सूझी, जो शायद ही किसीको सूझती! उस वक़्त डैकेतों का बड़ा प्रहार था। ये डकैत बहादुर तो बहुत थे, पर केवल अपने स्वार्थ के लिए लोगों को लूटते थे। ऐसे में गेंदालाल ने ऐसा उपाय सोचा, जिससे इन डकैतों की बहादुरी और अनुभव का फ़ायदा स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए उठाया जा सकता था।

उन्होंने गुप्त रूप से सभी डकैतों को इकट्ठा कर अपनी ‘शिवाजी समिति’ बनाई और शिवाजी की ही भांति उत्तर-प्रदेश में ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ़ गतिविधियाँ शुरू कर दी। पंडित गेंदालाल भले ही अपनी गतिविधियाँ चोरी-छिपे करते थे पर क्रांतिकारी नेताओं में वे धीरे-धीरे मशहूर होने लगे। उनकी बहादुरी के किस्से जब महान क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल तक पहुंचे, तो उन्होंने गेंदालाल से अपने अभियान के लिए मदद मांगी।

गेंदालाल ने भी इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकृति दे दी। और जल्द ही गेंदालाल की शिवाजी समिति के साथ बिस्मिल ने ‘मातृवेदी’ की स्थापना की। इस संस्था के काम करने का मुख्य केंद्र मैनपुरी था। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि इस केंद्र की किसीको कानो-कान ख़बर न हो पर दल के ही एक सदस्य दलपतसिंह अंग्रेज़ों का मुखबीर बन गया। इस गद्दार ने अंग्रेज़ों को यहाँ का पता दे दिया। ख़बर लगते ही अंग्रेज़ अधिकारियों ने इस अड्डे पर छापा मारकर, गेंदालाल और उनके कुछ साथियों को गिरफ़्तार कर लिया।

गेंदालाल को अपने बाकी साथियों से अलग कर, आगरा के किले ले जाकर कड़ी निगरानी में रखा गया। अंग्रेज़ उनसे अन्य लोगों का पता उगलवाने का भरसक प्रयास कर रहे थे।

उधर बिस्मिल ने अपने इस क्रांतिकारी साथी को मुक्त कराने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। एक दिन गुप्त रूप से किले में आकर बिस्मिल ने गेंदालाल से मुलाकात की।

इन दोनों ने संस्कृत में बात की ताकि सिपाहियों को कोई शक न हो और गेंदालाल की जेल से फ़रार होने की योजना बनाई। योजना के अनुसार गेंदालाल ने पुलिस को सब कुछ बताने के लिए हामी भर दी। बयान देने के लिए उन्हें आगरा से मैनपुरी भेज दिया गया, जहाँ उनके बाकी साथियों को रखा गया था।

यहाँ पहुँचते ही गेंदालाल ने एकदम से पैंतरा बदला और पुलिस से नाटक करते हुए कहा कि ‘इन लड़कों को क्या पता, मैं इस कांड का सारा भेद जानता हूँ।’ पुलिस उनके झाँसे में आ गयी और उन्हें क्रांतिकारियों के साथ उसी बैरक में बंद कर दिया गया।

बाकायदा चार्जशीट तैयार की गयी और मैनपुरी के स्पेशल मैजिस्ट्रेट बी॰एस॰क्रिस की अदालत में गेंदालाल दीक्षित सहित सभी नवयुवकों पर अंग्रेज़ो के विरुद्ध साजिश रचने का मुकदमा दायर किया गया। इस मुकदमे को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में मैनपुरी षड्यन्त्र के नाम से जाना जाता है।

मुकदमा अभी चल ही रह था कि गेंदालाल ने एक और चाल चली। उन्होंने जेलर को यकीन दिला दिया कि क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ गवाही देने वाला सरकारी गवाह उनका अच्छा दोस्त है और अगर उन्हें इस सरकारी गवाह के साथ एक ही बैरक में रख दिया जाये, तो कुछ और षड्यन्त्रकारी गिरफ़्त में आ सकते हैं।

जेलर ने गेंदालाल की बात का विश्वास करके उन्हें सी॰आई॰डी॰ की देखरेख में सरकारी गवाह के साथ हवालात में भेज दिया। थानेदार ने एहतियात के तौर पर गेंदालाल का एक हाथ और सरकारी गवाह का एक हाथ आपस में एक ही हथकड़ी में कस दिया ताकि रात में वे हवालात से भाग न सकें। लेकिन गेंदालाल को कहाँ कोई जेल और हथकड़ी रोकने वाली थी। वे खुद तो जेल से फ़रार हुए ही साथ में उनके सरकारी गवाह को भी भगा ले गये। पूरी ब्रिटिश सरकार हका-बक्का रह गयी कि कैसे एक मामूली-सा स्कूल का मास्टर उनकी पूरी पुलिस फ़ोर्स को चकमा दे गया।

ब्रिटिश पुलिस ने हर एक हथकंडा आजमाया लेकिन कभी भी गेंदालाल को पकड़ न पाई। इस घटना के बाद, गेंदालाल दिल्ली पहुंचे और वहां अज्ञात नाम से आजीवन क्रांतिकारियों की मदद करते रहे।

देश की सेवा में बिना रुके और बिना थके काम करने वाले इस क्रांतिकारी को आख़िर क्षय रोग ने हरा दिया और 21 दिसंबर 1920 को उन्होंने आख़िरी सांस ली।

भारत की आज़ादी की नींव रखने वाले ऐसे न जाने कितने ही क्रांतिकारी हैं, जिनका नाम कभी इतिहास हम तक न पहुंचा पाया। परन्तु देश सदा इन अनसुने, अनदेखे, गुमनाम क्रांतिकारियों का ऋणी रहेगा।

संपादन – मानबी कटोच


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