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बीना दास : 21 साल की इस क्रांतिकारी की गोलियों ने उड़ा दिए थे अंग्रेज़ों के होश!

तारीख

6 फरवरी 1932

इतिहास का वह स्वर्णिम दिन, जब 21 साल की एक भारतीय लड़की की हिम्मत ने अंग्रेज़ों के होश उड़ा दिए थे। साथ ही, इस लड़की ने उस रुढ़िवादी सोच को भी जड़ से हिला दिया, कि हथियार चलाना सिर्फ पुरुषों काम है।

यह 21 साल की लड़की थी बीना दास। बंगाल के कृष्णानगर में 24 अगस्त 1911 को प्रसिद्द ब्रह्मसमाजी शिक्षक बेनी माधव दास और समाज सेविका सरला देवी के घर जन्मी बीना बचपन से ही क्रांतिकारी स्वाभाव की थी। उनके पिता माधव दास उस समय के प्रसिद्द शिक्षक थे और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता भी उनके छात्र रहे थे।

बीना की बड़ी बहन कल्याणी दास भी स्वतंत्रता सेनानी रहीं। अपने स्कूल के दिनों से ही दोनों बहनों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने वाली रैलियों और मोर्चों में भाग लेना शुरू कर दिया था। इनकी माता सरला देवी भी सार्वजनिक कार्यों में बहुत रुचि लेती थीं और निराश्रित महिलाओं के लिए उन्होंने ‘पुण्याश्रम’ नामक संस्था भी बनाई थी।

बीना दास (साभार: फेसबुक)

साल 1928 में अपनी स्कूल की शिक्षा के बाद वे छात्री संघ (महिला छात्र संघ) में शामिल हो गयीं। यह संघ ब्राह्मो गर्ल्स स्कूल, विक्टोरिया स्कूल, बेथ्यून कॉलेज, डायोकेसन कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज में पढ़ने वाली छात्राओं का समूह था। बंगाल में संचालित इस समूह में 100 सदस्य थे, जो भविष्य के लिए क्रांतिकारियों को इसमें भर्ती करते और साथ ही ट्रेनिंग भी देते थे।

संघ में सभी छात्राओं को लाठी, तलवार चलाने के साथ-साथ साइकिल और गाड़ी चलाना भी सिखाया जाता था। इस संघ में शामिल कई छात्राओं ने अपना घर भी छोड़ दिया था और ‘पुण्याश्रम’ में रहने लगीं, जिसका संचालन बीना की माँ सरला देवी करती थीं। हालांकि, यह छात्रावास बहुत सी क्रांतिकारी गतिविधियों का गढ़ भी था। यहाँ के भंडार घर में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए हथियार, बम आदि छिपाए जाते थे।

बताया जाता है कि कमला दास ने ही बीना को रिवोल्वर लाकर दी थी। साथ ही वे टिन के बक्सों में बाकी क्रांतिकारियों के लिए बम आदि भी लाती थीं।

कलकत्ता के ‘बेथ्युन कॉलेज’ में पढ़ते हुए 1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार के समय बीना ने अपनी कक्षा की कुछ अन्य छात्राओं के साथ अपने कॉलेज के फाटक पर धरना दिया। वे स्वयं सेवक के रूप में कांग्रेस अधिवेशन में भी सम्मिलित हुईं। इसके बाद वे ‘युगांतर’ दल के क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आईं। उन दिनों क्रांतिकारियों का एक काम बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों को गोली का निशाना बनाकर यह दिखाना था कि भारतीय उनसे कितनी नफ़रत करते हैं।

6 फ़रवरी, 1932 को बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैक्सन को कलकत्ता विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को दीक्षांत समारोह में उपाधियाँ बाँटनी थीं। बीना दास को बी.ए. की परीक्षा पूरी करके दीक्षांत समारोह में अपनी डिग्री लेनी थी। उन्होंने अपने साथियों से परामर्श करके तय किया कि डिग्री लेते समय वे दीक्षांत भाषण देने वाले बंगाल के गवर्नर स्टेनले जैक्सन को अपनी गोली का निशाना बनाएंगी।

उन दिनों जैक्सन को ‘जैकर्स’ के रूप में जाना जाता था और उन्होंने इंग्लैंड की क्रिकेट टीम में अपनी सेवाएँ दी थी, इसलिए उनका नाम काफ़ी मशहूर था।

जैसे ही जैक्सन ने समारोह में अपना भाषण देना शुरू किया, बीना ने भरी सभा में उठ कर गवर्नर पर गोली चला दी। पर बीना का निशाना चुक गया और गोली जैक्सन के कान के पास से होकर गुज़री। गोली की आवाज़ से सभा में अफ़रा-तफ़री मच गयी।

इतने में लेफ्टिनेन्ट कर्नल सुहरावर्दी ने दौड़कर बीना का गला एक हाथ से दबा दिया और दूसरे हाथ से पिस्तोल वाली कलाई पकड़ कर हॉल की छत की तरफ़ कर दी। इसके बावजूद बीना एक के बाद एक गोलियाँ चलाती रहीं। उन्होंने कुल पाँच गोलीयां चलाई। बीना को तुरंत ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

इसके बाद बीना दास सभी अख़बारों की सुर्खियाँ बन गयीं – ‘कलकत्ता की ग्रेजुएशन कर रही एक छात्रा ने गवर्नर को मारने का प्रयास किया!’

‘रीडिंग ईगल’ अख़बार की एक क्लिपिंग

बीना दास पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें नौ साल के कठोर कारावास की सज़ा हुई। मुकदमे के दौरान उन पर काफ़ी दबाव बनाया गया कि वे अपने साथियों का नाम उगल दें, लेकिन बीना टस से मस न हुईं। उन्होंने मुकदमे के दौरान कहा,

“बंगाल के गवर्नर उस सिस्टम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने मेरे 30 करोड़ देशवासियों को गुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है।”

उन्होंने आगे कहा कि वे गवर्नर की हत्या कर इस सिस्टम को हिला देना चाहती थीं।

गवर्नर स्टेनली जैक्सन(बाएं) और ग्लासगो हेराल्ड में छपा एक लेख (दायें)
स्त्रोत: विकिमीडिया कॉमन्स/गूगल समाचार पत्र

सज़ा मिलने से पहले उन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट में कहा,

“मैं स्वीकार करती हूँ, कि मैंने सीनेट हाउस में अंतिम दीक्षांत समारोह के दिन गवर्नर पर गोली चलाई थी। मैं खुद को इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार मानती हूँ। अगर मेरी नियति मृत्यु है, तो मैं इसे अर्थपूर्ण बनाना चाहती हूँ, सरकार की उस निरंकुश प्रणाली से लड़ते हुए जिसने मेरे देश और देशवासियों पर अनगिनत अत्याचार किये हैं….”

उनके संस्मरण, ‘जीबन अध्याय’ में उनकी बहन कल्याणी दास ने लिखा है कि कैसे भाग्य ने दोनों बहनों को फिर से एक साथ ला खड़ा किया था जब उन्हें भी हिजली कैदखाने में लाकर बंद कर दिया गया था। बाद में इस जगह को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया।

मकरंद परांजपे द्वारा लिखे गए इस संस्मरण की एक समीक्षा के अनुसार, बीना अपने साथियों के साथ भूख हड़ताल करके अपनी दर्द सहने की क्षमता को जांचती थीं। इतना ही नहीं वह कभी जहरीली चींटियों के बिल पर अपना पैर रख देती तो कभी अपनी उँगलियों को लौ पर और इस तरह देखा जाए तो वे सही मायनों में ‘आग से खेलती थी’!

बीना दास- एक संस्मरण

कितनी भी मुश्किलें और चुनौतियाँ बीना के रास्ते में आई हों, लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता के लिए लड़ना नहीं छोड़ा। साल 1937 में प्रान्तों में कांग्रेस सरकार बनने के बाद अन्य राजबंदियों के साथ बीना भी जेल से बाहर आईं। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय उन्हें तीन वर्ष के लिये नज़रबन्द कर लिया गया था। 1946 से 1951 तक वे बंगाल विधान सभा की सदस्या रहीं। गांधी जी की नौआख़ाली यात्रा के समय लोगों के पुनर्वास के काम में बीना ने भी आगे बढ़कर हिस्सा लिया था।

उन्होंने 1947 में अपने साथी स्वतंत्रता सेनानी ज्योतिष भौमिक से शादी की, लेकिन आज़ादी की लड़ाई में भाग लेती रहीं। अपने पति की मृत्यु के बाद वे कलकत्ता छोड़कर, ज़माने की नजरों से दूर ऋषिकेश के एक छोटे-से आश्रम में जाकर रहने लगीं थीं। अपना गुज़ारा करने के लिए उन्होंने शिक्षिका के तौर पर काम किया और सरकार द्वारा दी जाने वाली स्वतंत्रता सेनानी पेंशन को लेने से इंकार कर दिया।

देश के लिए खुद को समर्पित कर देने वाली इस वीरांगना का अंत बहुत ही दुखदपूर्ण था। महान स्वतंत्रता सेनानी, प्रोफेसर सत्यव्रत घोष ने अपने एक लेख, “फ्लैश बैक: बीना दास – रीबोर्न” में उनकी मार्मिक मृत्यु के बारे में लिखा है। उन्होंने कहा,

“उन्होंने सड़क के किनारे अपना जीवन समाप्त किया। उनका मृत शरीर बहुत ही छिन्न-भिन्न अवस्था में था। रास्ते से गुज़रने वाले लोगों को उनका शव मिला। पुलिस को सूचित किया गया और महीनों की तलाश के बाद पता चला कि यह शव बीना दास का है। यह सब उसी आज़ाद भारत में हुआ जिसके लिए इस अग्नि-कन्या ने अपना सब कुछ ताक पर रख दिया था। देश को इस मार्मिक कहानी को याद रखते हुए, देर से ही सही, लेकिन अपनी इस महान स्वतंत्रता सेनानी को सलाम करना चाहिए।”

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मूल लेख: जोविटा अरान्हा

संपादन – मानबी कटोच


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