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‘कर्नल’ निज़ामुद्दीन: वह वीर, जिसने खुद गोली खाकर बचायी थी, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जान!

भारत को आज़ादी मिले 70 साल से भी ज़्यादा वक़्त बीत चूका है और इस बीतते वक़्त के साथ बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों की यादें धुंधली- सी हो गयी हैं। ऐसे कई नाम हैं हमारे आज़ादी के इतिहास में, जिन्होंने देश के लिए खुद को समर्पित कर दिया; पर आज लोगों को उनके नाम तक नहीं पता हैं।

ऐसे ही भूले- बिसरे नायकों में से एक थे, ‘कर्नल’ निज़ामुद्दीन। बहुत कम भारतीय ही इनके बारे में जानते होंगें। ‘कर्नल’ निज़ामुद्दीन, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के वो साथी थे, जिन्होंने कभी बर्मा के जंगलों में नेताजी की जान बचाने के लिए खुद बंदूक की तीन गोलियाँ खायी थीं। नेताजी ने ही अपने इस साथी को ‘कर्नल’ उपनाम से नवाज़ा।

आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िये ‘कर्नल’ निज़ामुद्दीन की अनसुनी कहानी!

कर्नल निज़ामुद्दीन

निज़ामुद्दीन का वास्तविक नाम सैफुद्दीन था। उनका जन्म साल 1901 में धक्वान गाँव (वर्तमान में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले में स्थित) में हुआ था। उनकी माँ एक गृहणी थी और उनके साथ गाँव में रहती थी, जबकि पिता रंगून में एक कैंटीन चलाते थे।

20 साल की उम्र पार करने के बाद, सैफुद्दीन ब्रिटिश सेना में भर्ती होने के लिए घर से भाग निकले। ब्रिटिश सेना में नौकरी करते हुए एक दिन, उन्होंने किसी ब्रिटिश अफ़सर को गोरे सैनिकों से बात करते हुए सुना कि भारतीय सैनिकों को बचाने से ज़्यादा ज़रूरी उन गधों को बचाना है, जिन पर लाद कर बाकी सेना के लिए राशन पहुँचाया जाता है।

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अपने साथियों के लिए ऐसी निर्मम और कटु बातों को सुनकर, सैफुद्दीन बौखला गये और उन्होंने उस ब्रिटिश अफ़सर को गोली मार दी। यहाँ से भागकर वे सिंगापुर पहुँचे और अपना नाम बदल कर निज़ामुद्दीन रख लिया। सिंगापुर में ही, सुभाष चन्द्र बोस की मौजूदगी में उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज ज्वाइन की।

साल 1943 में, नेताजी बर्लिन से सिंगापुर आये और यहाँ आज़ाद हिन्द फ़ौज की कमान संभाली। यहीं से उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण अध्याय की शुरुआत हुई।

आईएनए के सैनिकों से मिलते हुए नेताजी- स्त्रोत

आज़ाद हिन्द फ़ौज के साथ जुड़ने के बाद, धीरे- धीरे निज़ामुद्दीन सुभाष चन्द्र बोस के विश्वसनीय सहयोगी बन गए। वे नेताजी की 12-सिलिंडर कार के ड्राईवर थे, जो उन्हें मलय के राजा ने उपहार में दी थी। साल 1943 से 1944 तक, उन्होंने नेताजी के साथ बर्मा (वर्तमान में म्यांमार) के जंगलों में ब्रिटिश सेना के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।

साल 2016 में द टेलीग्राफ को दिए साक्षात्कार में निज़ामुद्दीन ने बताया, “हम जंगल में थे और अचानक मैंने झाड़ियों के बीच से बन्दूक की नली देखी और मैं तुरंत नेताजी के सामने कूद गया। तीन गोलियाँ लगने के बाद, मैं बेहोश हो गया और जब होश आया, तो नेताजी मेरी बगल में खड़े थे। कप्तान लक्ष्मी सहगल ने मेरे शरीर से गोलियाँ निकाली। यह साल 1943 की बात है।”

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उनके साहस और समर्पण से प्रभावित होकर, नेताजी ने उन्हें ‘कर्नल’ की उपाधि दी। और फिर निज़ामुद्दीन ने अगले चार साल तक नेताजी के ड्राईवर और बॉडीगार्ड के तौर पर काम किया। वे नेताजी की हर एक यात्रा में, चाहे जापान हो, वियतनाम, थाईलैंड, कम्बोडिया, मलेशिया या सिंगापुर हो, उनकी परछाई की तरह उनके साथ चले।

नेताजी के साथ निज़ामुद्दीन (खड़े हुए)- स्त्रोत

अगस्त 1945 में जापान के समर्पण के बाद, नेताजी ने आज़ाद हिन्द फ़ौज को भंग कर दिया। इसके बाद निज़ामुद्दीन ने अज्बुन निशा से शादी की और रंगून के एक बैंक के लिए ड्राईवर की नौकरी करने लगे। उनके बेटे और बेटियों का जन्म भी रंगून में ही हुआ।

जून 1969 में निज़ामुद्दीन अपने परिवार के साथ भारत लौट आये और अपने पैतृक गाँव में बस गए। उन्होंने गाँव में अपने घर का नाम ‘हिन्द भवन’ रखा और आज भी उनके घर की छत पर तिरंगा लहराता है। वे लोगों का अभिवादन भी ‘जय हिन्द’ कह कर करते थे, जैसा कि आज़ाद हिन्द फ़ौज में नियम था। वैसे भी कहते हैं न कि ‘पुरानी आदतें जल्दी नहीं छूटती!’

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अपने जीवन के अंतिम समय तक निज़ामुद्दीन धक्वान में ही रहे और फिर 6 फरवरी 2017 को उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली। मृत्यु के समय, वे 117 साल के थे। हालांकि, दिलचस्प बात यह है कि आज़ादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाले इस स्वतंत्रता सेनानी के बारे में लोगों को साल 2016 में पता चला, जब उन्होंने और उनकी 107 वर्षीय पत्नी ने बैंक में अपना खाता खुलवाया था।

इस सच्चे देशभक्त को हमारा नमन!

मूल लेख: संचारी पाल
संपादन: निशा डागर


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