बात साल 1961 की है, जब पूरे विश्व में शीत-युद्ध चल रहा था और शायद, फिर से एक और विश्व युद्ध होने के संकेत मिल रहे थे। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ किसी भी कीमत पर एसा नहीं होने देना चाहता था। इसलिए उन्होंने शांति के समर्थक देशों की सहायता मांगी ताकि जिन भी देशों में तनाव की स्थिति है वहां सेना भेजी जा सकें।
भारत सदैव से ही शांति प्रस्ताव का पक्षधर रहा है। जब अफ्रीका के कांगो में गृह युद्ध छिड़ा और इससे निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने खूब प्रयास किए पर उन्हें सफलता नहीं मिली तो भारतीय सेना से मदद मांगी गई। भारत ने भी मदद के लिए हाँ कर दी और अपने जांबाज सैनिकों की एक टुकड़ी अफ्रीका भेजी।
जिनमें से कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया भी एक थे। उन्हें संयुक्त राष्ट्र के सैन्य प्रतिनिधि के रूप में एलिजाबेथ विले में दायित्व सौंपा गया था।
गुरबचन सिंह सलाारिया का जन्म 29 नवंबर 1935 को पंजाब के शकरगढ़ के पास एक गांव जनवाल (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी राम था और माता धनदेवी थीं। इनके पिता भी फौजी थे और ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के डोगरा स्क्वेड्रन, हडसन हाउस में नियुक्त थे। हमेशा से ही इन्होंने अपने पिता की बहादुरी की कहानियाँ सुनी थीं और इसीलिए इन्होंने सेना में भर्ती होने का फैसला किया।
बचपन से ही गुरबचन साहसी थे और इन्हें कबड्डी खेलने का बहुत शौक था। इनकी सबसे खास बात थी कि वह अपने आत्मसम्मान के साथ बिल्कुल भी समझौता नहीं करते थे। बेहद शांत स्वभाव वाले गुरबचन को एक बार एक लड़के ने परेशान करने की कोशिश की लेकिन आत्मसम्मान को लेकर सचेत रहने वाले गुरबचन भी कहां शांत रहने वाले थे!
वह लड़का कद काठी से मजबूत था, फिर भी गुरबचन सिंह ने ना आव देखा न ताव, उसे बॉक्सिंग के रिंग में मिलने की चुनौती दे दी। तय समय पर मुकाबला शुरू हुआ। सभी को यही लग रहा था कि गुरबचन सिंह हार जाएंगे, लेकिन रिंग के अंदर जिस मुस्तैदी के साथ गुरबचन सिंह ने उस लड़के पर मुक्कों की बरसात की और अंत में जीत गुरबचन सिंह की हुई।
भारत-विभाजन के बाद इनका परिवार गुरदासपुर में आकर बस गया। उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी से 9 जून 1957 को अपनी पढ़ाई पूरी की। सलारिया को शुरू में 3 गोरखा राइफल्स की दूसरी बटालियन में नियुक्त किया गया था, लेकिन बाद में 1-गोरखा राइफल्स की तीसरी बटालियन में भेज दिया गया।
संयुक्त राष्ट्र शांतिरक्षक कैप्टेन गुरबचन सिंह
साल 1960 से पहले कांगो पर बेल्जियम का राज हुआ करता था। जब कांगों को बेल्जियम से आज़ादी मिली तो कांगो दो गुट में बंट गया और वहां गृह युद्ध जैसे हालात हो गए। इस समस्या से निपटने के लिए कांगो सरकार ने संयुक्त राष्ट्र से मदद मांगी और संयुक्त राष्ट्र ने एक सैन्य टुकड़ी कांगो में भेज दी।
लेकिन समय के साथ कांगो के हालात और बिगड़ते गए। ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत से सैन्य मदद मांगी। भारत ने कांगो में शांति और स्थिरता के लिए अपने 3000 सैनिक यूएन के झंडे तले भेज दिए। इन सैनिकों में कैप्टन गुरबचन सिंह सालरिया भी शामिल थे।
5 दिसंबर 1961 को दुश्मनों ने एयरपोर्ट और संयुक्त राष्ट्र के स्थानीय मुख्यालय की तरफ जाने वाले रास्ते एलिजाबेथ विले को चारों ओर से घेर लिया, जिसमें 100 से अधिक दुश्मन सैनिक दो बख्तरबंद वाहनों के साथ मुस्तैद थे। इन दुश्मनों को हटाने के लिए 3/1 गोरखा राइफल्स के 16 सैनिकों की एक टीम को रवाना किया गया। इस टीम के नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी कैप्टेन गुरबचन सिंह को।
जैसे ही लड़ाई शुरू हुई तो दोनों तरफ से गोलीबारी होने लगी। मौका देखते ही गुरबचन सिंह ने रॉकेट लॉन्च करने का आदेश दे दिया, जिसके वार से दुश्मनों के दोनों बख्तरबंद वाहन नष्ट हो गए और साथ ही उनके कई जवान घायल हो गए। दुश्मनों की संख्या बहुत ज्यादा थी और उनके पास हथियारों की भी कमी नहीं थी।
लेकिन गोरखा पलटन की इस खुकरी ने वह तहलका मचाया कि देखते ही देखते दुश्मन दल के चालीस सैनिक मौत के घाट उतार दिए गये। यह देखकर दुश्मन दल में अफरा-तफरी मच गयी। कैप्टन के इस जज्बे और हिम्मत को देखकर वे दंग रह गए थे और मौका मिलते ही वहां से भाग खड़े हुए।
गोरखा राइफल्स यह लड़ाई जीत चुकी थी। पर इस लड़ाई में उन्होंने अपने जांबाज कैप्टेन को खो दिया। दरअसल, लड़ाई के दौरान दुश्मन की दो गोली कैप्टेन को लग गयी थीं लेकिन उन्होंने पीछे हटने की जगह लड़ाई जारी रखी। अपनी शाहदत देकर भी गुरबचन सिंह ने दुश्मनों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था।
मात्र 26 साल की उम्र में कैप्टेन गुरबचन सिंह सलारिया शहीद हुए थे। भारत के राष्ट्रपति ने 26 जनवरी 1962 को कैप्टन गुरबचन सिंह सालरिया को अदम्य साहस और शौर्य के लिए भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘परम वीर चक्र’ (मरणोपरांत) से सम्मानित किया।
कैप्टेन गुरबचन परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले एकमात्र संयुक्त राष्ट्र शांतिरक्षक हैं। देश सदा इस महान वीर का ऋणी रहेगा जिसने विदेशी धरती पर देश का गौरव बढ़ाया। उनके नाम पर भारत सरकार ने अपने एक शिपिंग टैंकर का नाम भी रखा।
भारत माँ के इस सच्चे सपूत को द बेटर इंडिया का सलाम!