काकोरी कांड ने ब्रिटिश भारत की नींव हिला दी थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के चंद नौजवानों की बहादुरी के किस्से पुरे देश में गूंज रहे थे। जहाँ एक तरफ ब्रिटिश अधिकारियों की दमनकारी नीतियाँ अपने चरम पर थीं तो वहीं सभी स्वतंत्रता सेनानी इस जुगत में लगे थे कि आखिर कैसे काकोरी कांड के लिए गिरफ्तार किये गये क्रांतिकारियों को बचाया जाये।
तस्द्दुक हुसैन उस वक्त दिल्ली के एसपी हुआ करते थे और ऐसे में उन्होंने एक मुस्लिम क्रांतिकारी से काकोरी का सच उगलवाने के लिए और उसे राम प्रसाद बिस्मिल के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के इरादे से उससे कहा कि बिस्मिल इस देश में सिर्फ हिन्दुओं के लिए काम कर रहा है। वह भारत को हिंदूवादी ही बनाएगा। ऐसे में उस क्रांतिकारी ने जवाब दिया,
“खान साहिब, बिस्मिल को मैं आपसे ज़्यादा अच्छे तरीके से जनता हूँ, जैसा आप कह रहें हैं, वो बिल्कुल भी वैसे नहीं हैं और दूसरी बात यह कि मुझे यकीं हैं, हिन्दू भारत ब्रिटिश भारत से बहुत बढ़िया होगा।”
अपनी ही कौम के एक ब्रिटिश अधिकारी को यह खरा जवाब देने वाले और कोई नहीं बल्कि महान क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खान थे।
अशफाक 22 अक्टूबर 1900 को ब्रिटिश भारत के उत्तर प्रदेश के जिले शाहजहांपुर में पैदा हुए थे। अशफ़ाक अपने चार भाइयों में सबसे छोटे थे और किशोरावस्था से ही उन्हें उनकी शायरी के लिए लोग पहचानने लगे थे। वे ‘हसरत’ उपनाम के साथ अपनी शायरी लिखते थे।
घर में जब भी शायरियों की बात चलती, उनके एक बड़े भाईजान अपने साथ पढ़नेवाले रामप्रसाद बिस्मिल का जिक्र करना नहीं भूलते। बिस्मिल की कविताओं और उनकी बहादुरी के किस्से सुन-सुनकर अशफाक उनसे प्रेरित होने लगे।
अशफाक ने मन बना लिया कि रामप्रसाद से मिलना है। उसी वक़्त हिंदुस्तान में गांधी जी का शुरू किया हुआ असहयोग आंदोलन अपने जोरों पर था। शाहजहांपुर में एक मीटिंग में भाषण देने रामप्रसाद बिस्मिल आए हुए थे। अशफाक को यह बात पता चली तो वो भी वहां पहु्ंच गए। प्रोग्राम खत्म होते ही वे बिस्मिल से मिले।
शायरी सुनने- सुनाने से शुरू हुई उनकी दोस्ती मौत के साथ ही खत्म हुई।
उनकी दोस्ती के चर्चे हर जगह होते थे। एक बार अशफाक बीमार पड़ गये और वे सिर्फ “राम राम” कह रहे थे। उनके अब्बू और अम्मी को चिंता हुई कि आखिर अशफाक हिन्दुओं के भगवान का नाम क्यों रट रहा है? उन्हें लगा कि किसी बुरी आत्मा का साया अशफाक पर पड़ गया है।
पर एक पड़ोसी ने जब यह सुना तो उन्होंने कहा कि वे राम भगवान नहीं बल्कि राम प्रसाद बिस्मिल का नाम ले रहे हैं। इसके बाद तुरंत बिस्मिल को बुलाया गया। उनके आने के बाद ही अशफाक की तबीयत सुधरी।
रामप्रसाद बिस्मिल आर्य समाज के प्रवक्ता थे और अशफाक पांच वक़्त नमाज़ पढने वाले मुसलमान। फिर भी देश-प्रेम की डोर ने उन्हें जोड़कर रखा। अपने देश को आज़ाद देखने की चाह इतनी थी कि उन्होंने हर जात-पात और धर्म की रेखा को पार कर सद्भावना और भाईचारे की नींव रखी।
साल 1922 में जब चौरीचौरा कांड के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फैसला किया तो कई युवाओं को उनके इस कदम से निराशा हुई। उन युवाओं में रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक भी थे। उन्होंने फैसला किया कि वे अब हथियार उठाकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ जंग करेंगें।
और फिर मशहूर काकोरी लूट की योजना बनाई गयी। 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया। इस पूरी योजना को अशफाक और बिस्मिल ने निर्देशित किया। ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों के इस बहादुरी भरे कदम से चौंक गयी और उन्होंने हर हाल में इन चोरो को पकड़ने की ठान ली।
26 सितंबर 1925 को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को भी गिरफ्तार कर लिया गया और सारे लोग भी शाहजहांपुर में ही पकड़े गए। लेकिन अशफाक भाग निकले। बाद में, अशफाक दिल्ली गये, जहाँ से वे विदेश जाकर लाला हरदयाल सिंह से मिलकर भारत के लिए मदद चाहते थे। लेकिन उन्हें यहाँ उनके पठान दोस्त ने धोखा दिया और उन्हें ब्रिटिश पुलिस के हवाले कर दिया।
काकोरी षड्यंत्र में चार लोगों- अशफाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रौशन सिंह को फांसी की सजा हुई। और दूसरे 16 लोगों को चार साल कैद से लेकर उम्रकैद तक की सजा हुई। अशफाक रोज जेल में भी पांचों वक्त की नमाज पढ़ा करते थे और खाली वक्त में डायरी लिखा करते थे।
अशफाक की डायरी में से उनकी लिखी जो नज्में और शायरियां मिली हैं, उनमें से एक है,
“किये थे काम हमने भी जो कुछ भी हमसे बन पाये, ये बातें तब की हैं आज़ाद थे और था शबाब अपना
मगर अब तो जो कुछ भी हैं उम्मीदें बस वो तुमसे हैं, जबां तुम हो लबे-बाम आ चुका है आफताब अपना!
19 दिसम्बर, 1927, जिस दिन अशफाक को फांसी होनी थी, अश्फाक ने सबसे पहले फांसी का फंदा चूमा और बोले,
“मेरे हाथ किसी इन्सान के खून से नहीं रंगे हैं और मेरे ख़िलाफ़ जो भी आरोप लगाए गए हैं, झूठे हैं। अल्लाह ही अब मेरा फैसला करेगा।”
फिर उन्होंने वह फांसी का फंदा अपने गले में डाल लिया। वे पहले मुसलमान क्रांतिकारी थे, जिन्हें फांसी की सजा मिली। उन्होंने अपने आखिरी सन्देश में लिखा कि उन्हें गर्व है और ख़ुशी है कि वो पहले मुसलमान हैं, जो अपने देश के लिए कुर्बान हो रहे हैं।
जेल में अपने अंतिम दिनों में बिस्मिल ने भी अपनी आत्म-कथा लिखी और चुपके से इसे जेल के बाहर पहुंचाया। उन्होंने भी अपनी आत्म-कथा में अशफाक और अपनी दोस्ती के बारे में बहुत ही प्यारे और मार्मिक ढंग से लिखा है। उन्होंने लिखा,
“हिन्दू और मुसलमान में चाहे कितने भी मुद्दे रहे, पर फिर भी तुम मेरे पास आर्य-समाज के हॉस्टल में आते रहते। तुम्हारे अपने लोग तुम्हें काफिर कहते पर तुम्हें सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम एकता की फ़िक्र थी। मैं जब भी हिंदी में लिखता, तो तुम कहते कि मैं उर्दू में भी लिखूं ताकि मुसलमान भाई भी मेरे विचारों को पढ़कर प्रभावित हों। तुम एक सच्चे मुसलमान और देश-भक्त हो।”
जिंदगी भर दोस्ती निभाने वाले अशफाक और बिस्मिल, दोनों को अलग-अलग जगह पर फांसी दी गई। अशफाक को फैजाबाद में और बिस्मिल को गोरखपुर में। पर दोनों साथ ही इस दुनिया से गए।
संपादन – मानबी कटोच