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‘अमूल बटर’ से पहले था ‘पोलसन’ का बोलबाला, जानिए इस मक्खन की कामयाबी के पीछे छिपे राज़

जब भी हम ‘अमूल बटर’ की बात करते हैं, तो हमारे जहन में नीले बालों वाली एक छोटी सी बच्ची की तस्वीर उभरती है, जिसने लाल पोल्का डॉट्स वाली फ्रॉक पहनी हुई है और अपने एक हाथ में अमूल बटर लगा हुआ एक टोस्ट पकड़ा हुआ है। अगर, हमें यह तस्वीर कहीं दिख भी जाए, तो भी हमें समझ में आ जाता है कि यह अमूल ब्रांड है। जाहिर है, ‘अमूल’ किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि अमूल बटर, आधे से ज्यादा भारतियों के दैनिक जीवन का हिस्सा कैसे बन गया?

अमूल ब्रांड के पहले, ‘पोलसन ब्रांड'(Polson Butter) अस्तित्व में आया था। जिसके बटर का स्वाद आज भी बहुत से लोगों की जुबान पर है। दिल्ली में रहने वाले अलका और राकेश सिंह बताते हैं कि पोलसन बटर ज्यादा क्रीमी हुआ करता था और अमूल के आने से पहले हर घर में इसी का राज था।

64 वर्षीया अलका कहतीं हैं कि उस वक्त वह सिर्फ छह साल की थीं, जब हर जगह पोलसन बटर ही हुआ करता था। कुछ सालों बाद, उनके परिवार में अमूल बटर इस्तेमाल होने लगा। लेकिन, पोलसन के प्रति उनका लगाव कभी कम नहीं हुआ।  

इसी तरह दिल्ली की रहने वाली 74 वर्षीया कल्पना वत्स, उत्तर-प्रदेश के खुर्जा शहर में बिताए अपने बचपन को याद करते हुए बताती हैं कि वह नैनीताल में पढ़ती थीं। इसलिए जब भी वह खुर्जा से नैनीताल आती-जाती थीं, तब वह स्टेशन से सफर के लिए अपने राशन के साथ बहुत सारा पोलसन बटर भी खरीदती थीं। वह कहतीं हैं, “मुझे याद है कि मैं सफर के लिए बहुत सारा पोलसन बटर लेकर जाती थी। इसके पैकेट अमूल के 100 ग्राम के पैकेट की तरह नहीं बल्कि बड़े होते थे।” 

कैसे हुई शुरुआत:

जब अंग्रेज भारत आये, तब यहाँ पर बटर की डिमांड बढ़ी। खाद्य वैज्ञानिक और इतिहासकार केटी अचय के मुताबिक, इसका जिक्र सबसे पहले 1780 में किया गया था। तब कोलकाता की एलिज़ा फेय, अपने दोपहर के भोजन में बटर का उपयोग करती थीं। उन दिनों मक्खन, दूध की मलाई का इस्तेमाल करके, घर पर ही बनाया जाता था। एक पारसी युवक ने बड़े स्तर पर इसका उत्पादन शुरू किया था। 

मशहूर होने से पहले, ‘पोलसन’ बॉम्बे (अब मुंबई) में एक कॉफ़ी बनाने की दूकान हुआ करती थी। साल 1888 में, लगभग 13 साल की उम्र में पेस्तोनजी इडुलजी दलाल ने कॉफी भूनने और पीसने के लिए एक स्टोर खोला था। द अमूल इंडिया स्टोरी के इतिहासकार, रुथ हेरेडिया के मुताबिक, इडुलजी ने अपनी बहन से 100 रुपए उधार लेकर, अपना कारोबार शुरू किया था। उन्होंने, आठ रुपए महीने किराये पर एक स्टोर खोला। एक हाथ से चलने वाली मशीन से यहाँ कॉफी को पीसा जाता था और फिर इन्हें ब्राउन पेपर में पैक करके घर-घर बेचा जाता था। 

A can of Polson’s French Coffee (Source)

इस ब्रांड का नाम ‘पोलसन’ इसलिए पड़ा क्योंकि इडुलजी के दोस्त उन्हें प्यार से ‘पोली’ कहते थे। इसलिए, इस नाम में थोड़ा अंग्रेजी प्रभाव लाने के लिए उन्होंने इसे ‘पोलसन’ कर दिया। उनके ज्यादातर सहायक अंग्रेज और उच्च वर्ग के लोग थे। जैसे-जैसे व्यवसाय बढ़ा इडुलजी ने 1905 और 1907 में अपनी दुकान को बढ़ाया। साथ ही, उन्होंने कासनी (Chicory) मिलाकर कॉफी बनाना शुरू किया, जिसे वह ‘पोलसन की फ्रेंच कॉफी’ नाम से बेच रहे थे। 

अंग्रेज उनके स्टोर के नियमित ग्राहक थे और 1910 तक पोलसन ब्रांड ठीक-ठाक स्थापित हो चुका था। उस समय वह नए अवसर तलाश रहे थे, जब उनका मिलना ‘सप्लाई कॉर्प्स’ (आपूर्ति सैन्य-दल) के ग्राहकों से हुआ, जिन्होंने उन्हें बताया कि सेना के लिए बटर की कमी हो रही है। इस मौके को उन्होंने हाथ से नहीं जाने दिया और गुजरात के कैड़ा (अब खेड़ा) गाँव में डेयरी शुरू की। साथ ही, उन्होंने बटर का उत्पादन बढ़ाने के लिए रेलवे और सेना के अधिकारियों से सम्पर्क बनाया।  

पोलसन लगा ना

हेरेडिया कहते हैं कि पोलसन की सफलता की नींव तीन युद्धों से रखी गयी: द बोअर वॉर और दोनों विश्व युद्ध। तब इडुलजी ने अंग्रेज और अमेरिकी सेना को बटर सप्लाई किया। साल 1930 तक पोलसन (Polson Butter) की आधुनिक डेयरी गुजरात के आनंद में स्थापित हो गई। 

हेरेडिया लिखते हैं, “जल्दी ही, ‘पोलसन कॉफी’ के साथ-साथ ‘पोलसन बटर’ ने भी उच्च वर्ग की गृहिणियों की ग्रॉसरी लिस्ट में अपनी जगह बना ली।”

ग्राहकों को इसके साथ मिलने वाले गिफ्ट कूपन भी भा रहे थे, जिन्हें वह इकट्ठा करके बाद में, मिक्सर या टोस्टर ले सकते थे। 1945 तक, पोलसन बटर (Polson Butter) का उत्पादन सालाना तीन मिलियन पौंड तक बढ़ गया था। पोलसन, बटर का पर्यायवाची कुछ ऐसे बन गया, जैसे ‘ज़ेरॉक्स’ और फोटोकॉपी। इसके अलावा, बताया जाता है कि कश्मीर में चापलूसी करने को ‘पोलसन लगाना’ कहा जाता था। 

An advertisement for Polson (Source: Twitter)

साल 1946 में, अमूल अस्तित्व में आ गया था। तब तक सरकार के सहयोग से पूरे बाजार पर सिर्फ पोलसन (polson butter) का ही बोलबाला था और किसान भी किसी दूसरे विक्रेता को दूध नहीं बेच पाते थे। 1945 में, बॉम्बे सरकार ने बॉम्बे मिल्क योजना शुरू की थी, जिसके तहत शहर से 400 किमी दूर कैड़ा गाँव से दूध लेकर रियायती दरों पर बेचा जाता था। यह एकाधिकार पोलसन को प्रदान किया गया था। योजना द्वारा दी गई महंगी कीमत का लाभ उत्पादकों को नहीं दिया जा रहा था और कैड़ा के किसानों की स्थिति में भी कोई बदलाव नहीं आ रहा था। असंतोष बढ़ने पर, एक प्रतिनिधिमंडल सरदार वल्लभभाई पटेल से मिला और उनकी सलाह पर, डेयरी सहकारी (Dairy cooperative) शुरू की गयी। इस कदम ने ही अमूल के लिए आगे के रास्ते खोल दिए।

लेकिन, बाजार में आने के बाद भी काफी समय तक अमूल, पोलसन (polson butter) की बराबरी नहीं कर पाया था। पोलसन की डेयरी में दूध की क्रीम को कुछ दिन खट्टा होने के लिए छोड़ा जाता था, जिससे बटर को अपना एक अलग स्वाद मिलता था। इसके बाद इसमें नमक मिलाया जाता और इसे तैयार किया जाता था। द इकोनॉमिक टाइम्स के मुताबिक, क्रीम को खट्टा करना एक यूरोपीयन तरीका था ताकि लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया स्वाभाविक रूप से डायसीटल का निर्माण करे, जो इसे मक्खन जैसा स्वाद देता है। 

लेकिन अमूल केवल ताजा क्रीम से मक्खन बनाने के सिद्धांत पर काम कर रहा था- दूध से लेकर मक्खन बनने तक की सभी प्रक्रिया एक ही दिन में की जाती थी। परिणाम यह हुआ कि यह पोलसन की बराबरी करने में विफल रहा क्योंकि, पोलसन के पुराने ग्राहकों को अमूल का स्वाद फीका लगा। पोलसन अपने बटर में खूब नमक मिलाता था, ताकि यह लम्बे समय तक चले। हालांकि, धीरे-धीरे वर्गीज कुरियन ने अपने तरीकों में थोड़े बदलाव किए। उन्होंने अपने मक्खन में नमक मिलाना शुरू किया और इसका रंग हल्का पीला कर दिया, जिससे यह गाय के दूध जैसा लगे क्योंकि, भारतीय ग्राहक भैंस के सफेद दूध की बजाय गाय के पीले दूध के प्रति ज्यादा सहज थे। 

अमूल को मिली सफलता:

60 के दशक में, सिल्वेस्टर डी कुन्हा और यूजीन फर्नांडिज, पोलसन की बटर गर्ल के जवाब में अमूल गर्ल को डिजाइन करने के लिए आए थे। पोलसन गर्ल को एक नीली और सफेद धारीदार पोशाक पहने एक सुनहरे बालों वाली लड़की के रूप में चित्रित किया गया था, जिसकी मेज पर पोलसन के कई डिब्बे रखे हुए थे और वह एक टोस्ट पर मक्खन लगा रही थी। उनके मक्खन को बच्चों की पसंद के रूप में मार्केट किया जा रहा था और बटर के पैकेट में, माता-पिता के लिए एक सलाह थी कि “अपने बच्चों का ख्याल रखें और उन्हें सर्वश्रेष्ठ प्रदान करें।” पोलसन गर्ल एक कोमल बच्ची का प्रतीक थी, वहीं अमूल गर्ल तेजतर्रार थी, जो देश में चल रहे हालातों पर चुटकी लिया करती थी। 

The Polson Girl (left) and the Amul Girl.

अमूल की मार्केटिंग रणनीति और ग्राहकों के मुताबिक उनके स्वाद ने उन्हें बाजार में स्थापित करने का काम किया। इससे बाजार में पोलसन (polson butter) का बोलबाला कम होने लगा था। इडुलजी के एकाधिकारवादी तरीकों ने आखिरकार उनके अस्तित्व को ही खत्म कर दिया और अमूल ने अपनी निष्पक्ष और बेहतर रणनीति से बाजार में अपनी जगह बनाई। 70 के दशक तक, इडुलजी के बच्चे बाहर चले गए और उनकी कंपनी को आगे ले जाने के लिए कोई नहीं बचा था। इसके बाद, कंपनी बिक गयी और यह चमड़े के उत्पादों का निर्माण करने लगी। 

2012-13 में एक खबर निकली थी कि पोलसन बटर वापसी कर रहा है और एक दुकान पर इसे बेचा भी गया। हालांकि, यह खबर मुंबई के कोलाबा में ‘फार्म प्रोडक्ट्स’ स्टोर की थी। यह स्टोर एक सदी से अधिक पुराना और शहर का सबसे पुराना कोल्ड स्टोरेज है। ब्रांड को कथित रूप से इडुलजी के रिश्तेदार द्वारा फिर से लॉन्च किया गया था, लेकिन परिवार के बाकी लोग इस फैसले से बहुत खुश नहीं थे। इसलिए यह ब्रांड एक बार फिर गायब हो गया और इसके बाद इसकी कोई चर्चा नहीं हुई। 

बहुत सी कंपनियां बटर बाजार में अपना सिक्का जमाने में लगी हुई हैं, लेकिन अमूल सबसे अलग है, क्योंकि अपने नमकीन स्वाद की वजह से यह अपने ग्राहकों के मन में बसा हुआ है। अमूल न सिर्फ भारतीय ग्राहकों, बल्कि विदेशियों को भी वही स्वादिष्ट नमकीन स्वाद परोस रहा है। अमूल मक्खन के स्वाद में आज भी कहीं न कहीं वही बात है, जो इसके शुरूआती दौर में थी। यह स्वाद पोलसन बटर से प्रभावित था और इस तरह, इस बटर में पोलसन के स्वाद का कुछ असर आज भी बरकरार हैं।

मूल लेख: दिव्या सेतु 

संपादन- जी एन झा

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