सदियों से प्लेग, हैजा, खसरा, चेचक, फ्लू जैसी महामारियों के संकट यूरोप समेत अनेक महाद्वीपों ने झेले हैं। लेकिन हैरत की बात है कि इटली लगभग हर महामारी की गिरफ्त में आता रहा है। इसकी एक बड़ी वजह इसका मध्य एशिया से पश्चिमी यूरोप के बीच व्यापारिक मार्ग पर मौजूद होना है तो रोमन साम्राज्य का पालना होने का गौरव भी इटली को जब-तब महामारियां फैलाने वाले रोगाणुओं के संपर्क में लाता रहा है। प्राचीन काल से मध्य काल तक सेनाओं, योद्धाओं, गुलामों के अलावा व्यापारियों काफिलों के जरिए रोग यूरोप के देशों तक पहुंचे तो आधुनिक दौर में सैलानियों की आवाजाही ने भी इस कहर को बरपा करने में कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी है। 167ई के एंतोनाइन प्लेग ने रोमन साम्राज्य को बुरी तरह से झिंझोड़ दिया था और छठी शताब्दी के जस्टिनियन प्लेग ने तो उसकी चूलें ही हिलाकर रख दी थीं। मध्यकाल में यूरोप में फैली प्लेग मध्य एशिया से क्रीमिया पहुंची और यहां से इतालवी व्यापारिक जहाज़ों पर सवार चूहों के शरीरों में पलने वाले पिस्सुओं के साथ इसने भूमध्यसागरीय ज़मीन को अपनी रंगभूमि चुना था। ये रोगाणु देखते ही देखते यूरोप के बड़े भूभाग में फैल गए और इस भयंकर महामारी को ‘ब्लैक डैथ’ के नाम से इतिहास में जाना गया।
काली घटाओं की तरह छाया ब्लैक डैथ
सिसली के मेसिना बंदरगाह पर अक्टूबर 1347 में करीब एक दर्जन जहाज़ काले सागर से लंबी यात्रा कर पहुंचे थे। इन जहाज़ों से लौट रहे नाविकों के स्वागत में तट पर लोग जमा थे। ये लोग इंतज़ार ही करते रह गए मगर जहाज़ों पर से कोई भी उतरकर बाहर नहीं आया तो कुछ लोगों ने खुद अंदर जाकर देखने की हिम्मत जुटायी। स्वागती जत्थे यह देखकर सकते में आ गए थे कि जहाज़ों में सवार होकर लौटने वाले नाविकों की जगह उनकी लाशें पड़ी थीं, जो बचे थे वे बुरी तरह बीमार थे और तकलीफ में कराह रहे थे।
इन जिंदा बचे लोगों को उतारा गया और लाशों को दफनाने की चुनौती पूरी भी नहीं हुई थी कि शहर के स्वस्थ लोग भी बीमार पड़ने लगे। जहाज़ों पर लदे माल-असबाब को लूटने की कारस्तानियों ने भी लुटेरों और फिर उनसे बाकी शहरवासियों को संक्रमण का शिकार बनाया। फिर तो जैसे बारिश में घटाएं छाती हैं वैसे मौत का साम्राज्य सिसली शहर को लीलने लगा। उधर, कस्तुंतुनिया से क्रीमिया में यह रोग घुस चुका था जहां से वेनिस, रोम, फ्लोरेंस होते हुए इंग्लैंड, दक्षिणी स्पेन, पुर्तगाल और स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, स्विट्ज़रलैंड, बाल्टिक देश तक इसकी गिरफ्त में आ गए। यूरोप के इन देशों से पूरब की ओर पसरते हुए पोलैंड और फिर रूस के मॉस्को शहर तक जा पहुंची थी प्लेग। यूरोप की आबादी उस वक़्त करीब 8 करोड़ थी और इनमें 5 करोड़ लोग प्लेग की भेंट चढ़ चुके थे। ये आंकड़े आज लगभग सात सौ साल बाद भी होश उड़ाने के लिए काफी हैं। यूरोप ने अपनी इस खोयी आबादी को पुन: तैयार करने में अगली दो सदियां लगा दीं और फ्लोरेंस जैसे शहर तो अठारहवीं शताब्दी के अंत तक इस कवायद में उलझे रहे थे।
जब मौत ने किया लोगों को मानव धर्म से विमुख
यूरोप में जो महामारी आयी वह ब्यूबॉनिक प्लेग थी। इसमें जीवाणु शरीर में प्रविष्ट होने के 1 से 7 दिन बाद अपना असर दिखाने लगता था जिससे बुखार, सर्दी लगना, सिरदर्द, बदनदर्द, जोड़ों में दर्द, कमज़ोरी महसूस होना और शरीर में जगह-जगह काली गांठे (Bubo-गिल्टी) बन जाया करती थीं जिनका आकार कई बार बढ़कर मुर्गी के अंडे जितना हो जाया करता और इनमें तेज़ दर्द उठता था। इन काली गिल्टियों की वजह से ही इस प्लेग को ‘ब्लैक डैथ’ कहा गया था। प्लेग की बीमारी इतने बड़े पैमाने पर लोगों को लील रही थी कि शहरों के प्रशासनिक और सफाई तंत्र चरमराने लगे थे और लाशों से पटे पड़े शहरों से सड़ांध उठने लगी थी। मुसीबतों का आलम यह था कि अखाड़े, नाचघर, कहवाघर, रंगभूमि में चुप्पियां पसर रही थीं जबकि मुर्दाघर, कब्रिस्तान आबाद हो रहे थे।
डॉक्टरों ने मरीज़ों को देखने और पादरियों ने मृतकों की अंत्येष्टि की रस्में निभाने से इंकार कर दिया था। लोग अपने ही मृत परिजनों को छोड़कर भागने लगे थे। फ्रांस में जब ब्लैक डैथ पहुंची तो लोग बीमार जनता को घरों में बंद कर बाहर से ताला जड़कर भाग खड़े हुए। गलियों-सड़कों पर लाशें जमा होने लगी थीं। मृत लाशों पर ललचायी नज़रों से टूट पड़ने वाले गिद्ध-चील भी मर रहे थे। यूरोप में यह मौत का तांडव था जो अगले चार-पांच साल चला और इसकी रुख्सती होने तक समूचे यूरोप महाद्वीप की करीब एक-तिहाई आबादी निपट चुकी थी।
”जब कब्रिस्तान कम पड़ने लगे और अंतिम संस्कार करने वालों का टोटा होने लगा तो कितने ही शहरों में लोग बड़े-बड़े गहरे कुंएनुमा गड़ढे खोदकर रातभर में मरने वाले की लाशें इनमें दिनभर डालते रहते, जब इस तरह काफी लाशों से गड़ढा पटने लगता तो ऊपर से मिट्टी की परत बिछाकर फिर ऊपर से मृतकों को भरने का काम शुरु हो जाता।”
उस दौर के इतिहासनामे दर्ज करने वाले लेखकों के संस्मरणों में ऐसे कितने ही हादसे जमा हैं। इतिहास खुद इस बात का गवाह है कि महामारियां जब आती हैं तो नाते-रिश्ते बिखरने लगते हैं, सामाजिक ताना-बाना चकनाचूर हो जाता है और व्यवस्था की जगह लूटपाट लेने लगती है।
मध्यकाल में नहीं हो सकी थी प्लेग के जीवाणु की पहचान
यूरोप की इस प्लेग का कारण आंखों से दिखायी भी नहीं देने वाला अति सूक्ष्म जीवाणु येरसीनिया पेस्टिस (Yersinia Pestis) था जो कृतंकों (rodents) पर पलने वाले पिस्सुओं के काटने से फैलता है। यूरोप में काले चूहों से मध्यकाल में फैली यह प्लेग मध्य एशिया या सुदूर पूर्व एशिया से सिल्क रूट के रास्ते व्यापारियों के काफिलों पर सवार होकर या समुद्री जहाज़ी बेड़ों के साथ चली आयी थी। यहां तक कि मक्का में भी 1349 में इसके फैलने के जिक्र मिलते हैं। धार्मिक नेताओं ने इसे आसमान के रास्ते आया खुदा का पैगाम कहना शुरु कर दिया था और डॉक्टरों-हकीमों से इसका इलाज न करवाने की सलाह यह कहते हुए दे डाली थी कि मरने वालों को सीधे जन्नत नसीब होगी। बेल्जियम के एक ज्योतिषी कोविन ने प्लेग को बृहस्पति और शनि की युति का असर बताया। जिसे जो सूझ रहा था, वही कह रहा था। सच तो यह था कि मध्यकालीन यूरोप से लेकर एशिया तक में न किसी को इस प्लेग का कारण पता था और न किसी के पास इसका इलाज था। हालांकि यूरोप में प्लेग की वजह यानी येरसीनिया पेस्टिस बैक्टीरिया करीब 3000 साल पहले से मौजूद होने का प्रमाण स्वीडन में एक पुरानी कब्र में भी मिला है। अब यह अलग बात है कि इस बैक्टीरिया की पहचान उन्नसवीं सदी में एक स्विस-फ्रांसीसी चिकित्सक अलैक्सांद्र येरसीनिया ने की थी।
सामाजिक ताना-बाना हुआ ध्वस्त
ब्लैक प्लेग इंसानी सभ्यता के इतिहास की भीषणतम त्रासदियों में से एक है जिसने तत्कालीन देशों के आर्थिक, सामाजिक और यहां तक कि धार्मिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया था। कई कस्बे, शहर खाली हो गए क्योंकि वहां के लोग डरकर भाग गए थे। कहीं पुरानी खब़्त ने सिर उठा लिया था और इस कहर का ठीकरा यहूदियों पर फोड़ा गया। उन्हें मौत के घाट उतारा जाने लगा तो कितने ही यहूदी जान बचाकर पूर्वी यूरोप के देशों को निकल गए। जब इस महामारी का खौफ खत्म हुआ तो नई दिक्कतों ने सिर उठा लिया। खेतों में काम करने वाले किसानों का अकाल पड़ गया, इसी तरह उत्पादन घटने लगा, कीमतें बढ़ गईं। आम जन-जीवन पर भी असर पड़ा क्योंकि मनमानियां बढ़ने लगी थीं, लोग सरकारों और चर्चों की सत्ताओं को चुनौतियां देने लगे थे। और जैसा कि स्वाभाविक है अगले कुछ सालों में कहीं-कहीं दंगे भी भड़के। ऐसा छोटे-मोटे शहरों में नहीं हुआ था बल्कि पेरिस, लंदन, फ्लोरेंस जैसे बड़े शहरों का सच बन गया था। जिंदगी को वापस ढर्रे पर आने में अगले चार-पांच दशक लग गए।
दुर्भाग्यवश, महामारियां (और पैंडेमिक) बार-बार इंसानी सभ्यता को चुनौती देती रही हैं। इंफ्लुएंज़ा के इतिहास को देखें तो साफ पता चलता है कि हर 20 से 50 साल में यह किसी न किसी रूप में आता रहा है। इसके अलावा, डिप्थीरिया, हैजा, चेचक, मलेरिया भी महामारियों के सबब बने हैं। स्पेनिश फ्लू के बाद सबसे बड़ी महामारी एचआईवी एड्स अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में आयी और लाखों लोगों को ग्रास बना चुकी है। फिर इबोला, सार्स, स्वाइन फ्लू, डेंगु, चिकुनगुनिया ने भी खासी तबाही मचायी है।
तुलसीदास से निराला, गांधी तक ने किया है महामारियों का बयान
हम आज जिस ‘क्वारंटाइन’ को बीमारी को फैलने से रोकने में कारगर हथियार के रूप में देखते हैं उसका विवरण उर्दू के सदाबहार कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी (1915-1984) ने अपनी लघु कथा ‘क्वारंटाइन’ में भी किया था, जिसे पढ़कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। यह कहानी उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में भारत में आयी ब्यूबॉनिक प्लेग की पृष्ठभूमि में लिखी गई थी। ब्रिटिश शासन ने इस महामारी को नियंत्रित करने के लिए जो कठोर कदम उठाए उनमें महामारी अधिनियम, 1897 प्रमुख मील का पत्थर था और इसमें क्वारंटाइन का प्रावधान था।
बेदी लिखते हैं, ”हिमाला के पांव में लेटे हुए मैदानों पर फैलकर हरेक चीज़ को धुंधला बना देने कोहरे के मानिंद प्लेग के खौफ ने चारों तरफ तसल्लुत जमा लिया था। शहर का बच्चा-बच्चा उसका नाम सुनकर कांप जाता था। प्लेग तो खौफनाक थी ही, क्वारंटाइन उससे भी ज्यादा खौफनाक थी। लोग प्लेग से इतने हरासां नहीं थे जितने क्वारंटाइन से थे।”
साहित्य में समाज की तकलीफों की गूंज हमेशा सुनायी देती रही है, बेदी से पहले और बाद में भी साहित्यकारों ने महामारियों को अपने लेखन का विषय बनाया है। काशी में 1673-80 के बीच महामारी फैली थी और गोस्वामी तुलसीदास की ‘कवितावली’ के कुछ छंदों में तत्कालीन काशी में इस महारोग का उल्लेख है –
”बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं,
बूझिए न ऐसी गति संकर-सहरकी।”
मॉरीशस के वरिष्ठ साहित्यकार रामदेव धुरंधर लिखते हैं- ”1900 के आसपास भारतीयों को मजदूर के रूप में मॉरिशस लाना जारी था। उन दिनों यहां विकराल रूप से महामारी का दुर्योग आया था। लगभग हर घर में मृत्यु होती थी। अंग्रेज़ सरकार ने अर्थी जलाने पर पाबंदी लगा दी थी। यह हिंदुओं की दाह संस्कार की रीति से एकदम विपरीत था लेकिन देश की परिस्थिति को ध्यान में रखकर कोई इसके विरुद्ध नहीं जा पाता था। तब भारतीय मजदूरों की लाशों को भी कब्रिस्तान में दफनाया जाने लगा। एक गड्ढे में तीन-चार शव दफनाए जाते और दफन क्रिया पूरी हो जाने के बाद ऊपर से एक खूंटी गाड़ दी जाती थी। यानी, जितने शव उतनी खूंटियां। बाद में रोग का प्रकोप थमने के बाद सरकारी अधिकारी वहां पहुंचकर उन खूंटियों की गिनती करने पहुंचते थे।”
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला भी 102 साल पहले फैली स्पेनिश फ्लू की महामारी में अपनी पत्नी समेत परिवार के कई लोगों को गंवा चुके थे। उस दौर की त्रासदी का बयान करते हुए उन्होंने लिखा था – ”अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियां नहीं मिल रही थीं तो लोगों ने गंगा में लाशें बहानी शुरु कर दी और हाल यह हो गया कि गंगा की लहरों पर दूर-दूर तक फूली हुईं लाशें तैरती दिखती थीं ….”
1918 में इसी महामारी ने महात्मा गांधी को भी नहीं छोड़ा और तब उन्होंने एकांतवास (आइसोलेशन) तथा खान-पीन एवं व्यवहार में कठोर संयम का परिचय देकर आश्रम में और बहुत से लोगों को इसकी चपेट में आने से बचा लिया था। अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में उन्होंने इस घटना के बारे में भी लिखा है।
हाल में कोरोनावायरस से उपजे संकट ने कलाकारों को अपनी कला के जरिए आम जन तक इस बारे में संदेश पहुंचाने के लिए प्रेरित किया। इस कड़ी में ओडिशा के सैंड आर्टिस्ट सुदर्शन पटनायक के रेत शिल्पों ने पूरी ध्यान को झकझोरा तो दिल्ली की पेंटर आशिमा मेहरोत्रा ने ‘कोरोनाविनाशिनी’ थीम पर आधारित पेंटिंग बनायी है।
आशिमा ने इस पेंटिंग के विषय को स्पष्ट करते हुए बताया कि इसमें देवी दुर्गा चेहरे पर मास्क लगाए हुए हैं और हाथों में ग्लव्स धारण किए हैं। कोरोनाविनाशीनी देवी दुर्गा ने कोरोनावायरस का खात्मा करने के लिए एक हाथ में डिसइंफेक्टेंट, दूसरे से सैनिटेशन का सामान, तीसरे में चिकित्सा उपकरण उठा रखे लिए हैं। देवी दुर्गा का यह कोरोनाकालीन स्वरूप आज की मल्टीटास्कर महिलाओं का प्रतीक हैं। इसमें देवी ने स्वयं को मौजूदा हालात के मुताबिक ढाल लिया है, जो घर और बाहर की दुनिया को कुशलता से निभाने के लिए कोरोना रूपी शैतान से टक्कर लेने के लिए संहारक रूप में हैं और वहीं अपने परिवार के पोषण का ख्याल रखते हुए अपने हाथों से भोजन भी पका रही हैं।
मौजूदा दौर में एक बार फिर वैश्विक महामारी से गुजर रही दुनिया एक और घातक वायरस के खिलाफ जंग लड़ रही है। बीती शताब्दियों की महामारियों और उनसे उपजी तबाहियों के सबक हमारे सामने हैं, वही तो गर्दिश के इस दौर की नज़ीर हैं।
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संपादन – मानबी कटोच