गाँव के लीची बगान में सरफ़राज खान से मुलाकात होती है। इस युवा ने कम्पयूटर साइंस की पढ़ाई की है और अब वह किसानी करेगा। लेकिन सरफ़राज के इस फ़ैसले पर गाँव घर में तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं, मसलन पढ़-लिखकर भला कोई किसानी क्यों करे? लेकिन सरफ़राज अपने फ़ैसले पर अडिग है।
सरफ़राज का एक सवाल भी है। उसने पूछा कि, “क्या स्मार्ट सिटी की तरह स्मार्ट किसान बनाने की भी कोई सरकारी योजना है?”
दरअसल हम सब स्मार्ट शब्द की माया के फेर में फंस चुके हैं। कुछ लोग तो अब यह भी कह रहे हैं कि यह देश का स्मार्ट काल है। लेकिन इन सबके बावजूद हमें सरफ़राज़ के सवाल पर बात करनी चाहिए।
दरअसल किसानी को लेकर हम ढेर सारी बातें करते हैं, बहस करते हैं लेकिन खेत और खलिहान के बीच जूझते किसान को एक अलग रूप में पेश करने के लिए हम अब तक तैयार नहीं हुए हैं। किसानों का कोई ब्रांड एम्बेसडर है या नहीं ये मुझे पता नहीं लेकिन इतना तो पता है कि देश में ऐसे कई किसान होंगे जो अपने बल पर बहुत कुछ अलग कर रहे हैं।
स्मार्ट किसान की जब भी बात होती है तब मुझे मक्का की खेती में जुटे किसान की याद आने लगती है। खास कर बिहार के सीमांचल इलाके में जिस तरह से खेतों में मक्का दिख रहा है और इस फसल से किसानों की तकदीर जिस रफ्तार में बदल रही है, इस पर खूब बातें होनी चाहिए।
वैसे तो विकास के कई पैमानों पर बिहार का पूर्णिया, किशनगंज और सीमांचल का अन्य इलाका देश के दूसरे कई हिस्सों से पीछे हैं लेकिन मक्के के उत्पादन में इन इलाकों के किसानों का प्रदर्शन ज़बरदस्त है। अक्टूबर में बोई जाने वाली मक्के की रबी फ़सल का औसतन उत्पादन बिहार में तीन टन प्रति हेक्टेयर है, हालांकि यह तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के प्रति हेक्टेयर औसत उत्पादन से कम है।
मक्के की खेती से जमीन को होने वाले नुकसान पर भी बातें हो रही है लेकिन इस फसल ने जिस तरह से किसानों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाया है, वह काबिले तारीफ है।
कहा जाता है कि मक्का से किसानों ने पक्का मकान का सफर तय किया है।
वहीं अब कई किसान सफ़ेद मक्के की खेती करने लगे हैं जो स्वादिष्ट होता है लेकिन पीले मक्के की तरह पोषक तत्वों से भरपूर नहीं होता, क्योंकि इसमें बीटा कैरोटीन और विटामिन ए नहीं होता है। लेकिन इन सबके बावजूद सफेद मक्के की पैदावार दोगुना होती है। स्मार्ट किसान बनने की ट्रेनिंग शायद हम किसानों को मक्का दे रहा है। गौरतलब है कि मक्का से पहले बिहार के इन इलाकों में जूट की खूब खेती होती थी। मक्का की तरह जूट भी नकदी फसल होती है।
मक्का की खेती ने किसानों को वैज्ञानिक खेती के तौर-तरीके के करीब ला दिया है। दरअसल मक्का की खेती में बीज बोने के सही तरीकों और दूरी का ख़्याल रखना होता है। वहीं दूसरी ओर बिहार के किसान मक्के को बेचने के लिए सरकार पर निर्भर नहीं हैं, स्टार्च और पोल्ट्री उद्योग की ओर से पहले से ही मक्के की मांग होती रही है। मक्के की रबी फसल बाज़ार में उस वक्त पहुंचती है जब बाज़ार में आपूर्ति कम होती है।जीडीपी की बढ़ोत्तरी में
मक्के जैसी फ़सल का काफी योगदान है क्योंकि बदलते हुए हालात में आय बढ़ने के साथ बदलते खान-पान के साथ मक्का फिट बैठता है। सरकार फूड प्रोसेसिंग कंपनियों को सीधे किसानों से मक्का खरीदने की इजाज़त देकर मक्के की खेती को बढ़ावा दे सकती है, लेकिन कई राज्य सरकारें ऐसा नहीं करती हैं।
अब वक्त आ गया है कि हम किसानी को एक पेशे की तरह पेश करें। दरअसल किसान को हमें केवल मजबूत ही नहीं बल्कि स्मार्ट भी बनाना होगा। वैसे यह भी सच है कि स्मार्ट सिटी की बहसों के बीच स्मार्ट किसान हमें खुद ही बनना होगा।