‘शरतचंद्र’ बांग्ला के उन श्रेष्ठ साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने बांग्ला साहित्य की धारा को बिल्कुल नई दिशा दी। बांग्ला साहित्य में जितनी जल्दी शरतचंद्र को ख्याति मिली, उतनी जल्दी शायद ही किसी और साहित्यकार को मिली हो। ‘देवदास’, ‘परिणीता’ जैसी सुपरहिट फ़िल्में शरतचंद्र के उपन्यासों पर ही आधारित थीं! उन्होंने अपने कथा साहित्य से केवल बंगाल के समाज के सामने ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय समाज के सामने स्त्री जीवन से सम्बंधित विभिन्न प्रश्नों को सजगता के साथ उखेर के रख दिया था l
उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय नवजागरण ने सामाजिक महत्त्व के कई प्रश्नों को उठाया था जिनमें स्त्री-शिक्षा और उनके जीवन और अधिकारों से जुड़े विभिन्न प्रश्न भी एक महत्त्वपूर्ण आयाम के रूप में हमारे समक्ष रहें। राजा राममोहन राय द्वारा ‘सती प्रथा’ के विरोध में चलाए गए आन्दोलन से नारी जागरण का सूत्रपात हुआ। इसके पश्चात नारी स्वाधीनता और उनके अधिकारों के संदर्भ में कई आवाजें उठीं। इन आंदोलनों को बल देने के लिए अनेक रचनाकारों ने भी साथ दिया और नारी-जीवन की विडम्बनाओं को दूर करने का प्रयास भी किया गया। नारी अधिकारों के आंदोलनों से प्रभावित होकर भारत में जो एक प्रगतिशील वर्ग तैयार हुआ था, शरतचंद्र भी उसकी एक कड़ी थे। बंगाल में उनके पहले रविंद्रनाथ टैगोर ने भी स्त्री अधिकारों और उनकी समस्याओं को लेकर बेजोड़ रचनाएँ की थींl
शरतचंद्र बांग्ला साहित्य के उन लोगों में से एक थे, जिन्होंने भारतीय साहित्य में नारी जीवन और उनके अधिकारों को लेकर सबसे पहले मुखरता दिखाई। उन्होंने नारी-मुक्ति की परिकल्पना को विस्तृत रूप प्रदान किया तथा उसे सही मायनों में सामाजिक और राजनीतिक धरातल से जोड़ कर देखा।
उनका मानना था कि “औरतों को हमने जो केवल औरत बनाकर ही रखा है, मनुष्य नहीं बनने दिया, उसका प्रायश्चित स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए। अपने स्वार्थ की खातिर जिस देश ने जिस दिन से केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है, उसके मनुष्यत्व का कोई ख्याल नहीं किया, उसे उसका क़र्ज़ पहले चुकाना ही होगा।”
शरतचंद्र की स्त्री जीवन की परिकल्पना बहुत ही प्रगतिशील है। उन्होंने स्त्री को केवल स्त्री बने रहने से अलग मनुष्य बनने के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने हमेशा यह प्रयास किया है कि स्त्री का अपना अलग अस्तित्व समाज में बने, वह पराश्रित न दिखे। उन्होंने ‘नारी मूल्य’ नामक निबंध में स्त्री मुक्ति के संदर्भ में विभिन्न देशों की संस्कृतियों और इतिहास के हवाले से विस्तृत विवेचन करते हुए जिन गंभीर विचारों को सामने रखा है उसने न सिर्फ हमारे साहित्य में हलचल मचा दी बल्कि उसे अप्रतिम ढंग से समृद्ध भी किया।
उन्होंने नारी जीवन की विभिन्न समस्याओं का सम्यक् चित्रण किया है और उसके शोषण का खुलकर विरोध किया है। अपने उपन्यासों में उन्होंने स्त्री चरित्र को समाज में तर्कशील और प्रगतिशील छवि प्रदान करते हुए प्रस्तुत किया हैं।उनकी परवर्ती उपन्यासों में स्त्रियाँ समाज के कई रुग्ण बंधनों को तोड़ते हुए दिखाई देती हैं। इन चरित्रों में ‘शेष प्रश्न’ नामक उपन्यास की ‘कमल’ को एक सशक्त स्त्री पात्र के रूप में शरतचंद्र ने खड़ा करवाया, जो समाज की हर किस्म की प्रतिगामी रूढ़ियों को तोड़ती हुई दिखाई देती है। इतना ही नहीं, वह स्त्रियों के लिए एक नवीन समाज की परिकल्पना रखते हुए भी दिखाई देती है।
स्त्री जीवन और स्त्री-मुक्ति के विषय को लेकर रचना करने वाले प्रत्येक रचनाकार के लिए ‘शेष प्रश्न’ अनिवार्य है। यह रचना परवर्ती रचनाकारों को नई दिशा और नए विचारों को समग्रता में अर्जित करने में पृष्ठभूमि की तरह है।
शरतचंद्र की रचनाओं में स्त्री की विभिन्न छवियाँ आलोकित होती हैं। उन्होंने स्त्री जीवन के विभिन्न प्रश्नों और पहलुओं को सजगता के साथ अपनी रचनाओं में उठाया है। उन्होंने स्त्री के आदर्शवादी रूप के साथ ही सामाजिक दृष्टि से उनके पतित और कलंकित समझे जाने वाले स्वरूप का भी सृजन किया है। हर तरह के स्त्री चरित्रों को चित्रित कर शरतचंद्र ने अपनी गहरी स्त्री संवेदना का परिचय दिया है।
शरतचंद्र हमेशा से यह मानते थे कि सतीत्व ही नारीत्व नहीं होता।
उन्होंने समाज में पतित मानी जाने वाली स्त्रियों में भी त्याग, ममता, सेवा भावना से प्रेरित गुणों को दिखाया है और यह केवल उन्होंने कल्पना के आधार पर नहीं किया। अपने जीवन में वे समय-समय पर ऐसी स्त्रियों के संपर्क में आते रहे जिन्हें सभ्य समाज भले ही पतित मानता हो लेकिन जिनमें मानवीय गुणों की कोई कमी नहीं थी। अगर उनके पास ऐसे स्त्री पात्र हैं जो ममता, त्याग और बलिदान की भावना से ओत-प्रोत हैं तो ऐसे भी स्त्री पात्र हैं जो पतनशील और चरित्रहीन हैं।
स्त्री जीवन के संदर्भ में शरतचंद्र का साहित्य निरंतर परिपक्वता की ओर ही आगे बढ़ता गया है। अपनी प्रगतिवादी चिंतन को परिलक्षित करते हुए अपनी परवर्ती रचनाओं में परंपरा से चली आ रही पितृ-सत्तात्मक मान्यताओं पर प्रहार करते हुए स्त्री-पुरुष की समानता की बात कही है। उनका यह मानना था कि जब तक स्त्री को समाज में पूर्ण मुक्ति और समान अधिकार नहीं मिल जाता तब तक देश का उत्थान नहीं होने वाला। आज बंगाली समाज में अगर शरतचंद्र इतने स्वीकार्य हैं तो इसी कारण की बंगाल की स्त्रियाँ आज भी उनकी रचनाओं में अपने जीवन की उधेड़बुन को देख पाती हैं। अपनी मुक्ति की कामना लिए, युगों से अपने पैरों में बँधी बेड़ियों को तोड़ने की छटपटाहट वे इन रचनाओं को पढ़कर और शिद्द्त से महसूस करती हैं।
उनका साहित्य मूलतः नारी मन की संवेदनाओं, उनके जीवन के विविध पक्षों, उनके उत्थान और उनके अधिकारों के चित्रों से भरा पड़ा है। ये चित्र किसी एक वर्ग की स्त्रियों के नहीं हैं बल्कि विभिन्न वर्गों और समुदायों से आने वाली स्त्रियों के हैं। उनकी कथाओं में नारी मन की कुंठाओं और द्वन्द्व का जो वर्णन है वह बेजोड़ है। नारी मन की विभिन्न परतों को इतनी गहराई से जानने वाला रचनाकार निःसंदेह विश्व-साहित्य में भी मिलना विरल होगा। उनके व्यक्तिगत जीवन में ऐसी स्त्रियाँ समय-समय पर आईं जिनके स्त्रीत्व को समझने में समाज विफल रहा। यह भी एक वजह है कि उनके स्त्री पात्र सामाजिक बंदिशों को तोड़ने की छटपटाहट से भरे रहते हैं। उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक स्त्री को समाज में पूर्ण रूप से मुक्ति नहीं मिलती तब तक समाज का उत्थान नहीं होने वाला।
शरतचंद्र का पूरा साहित्य ही कम-ओ-बेश नारी जीवन और उनके अधिकारों के ही इर्द-गिर्द नज़र आता है। उस दौर में उन्होंने ‘नारी का मूल्य’ जैसा गंभीर निबंध रचकर विश्व की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में नारी के शोषण के इतिहास को बताकर समाज में व्याप्त कुसंगतियों को प्रंश्नांकित किया है। और भारतीय साहित्य को ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य को मार्ग दर्शन दिया हैंl नारी के अंतर्द्वंद्व को जितने सूक्ष्म रूप में उन्होंने प्रकट किया है वैसा स्त्रियों द्वारा लिखे गए साहित्य में भी प्रकट होना कठिन है। एक पुरुष रचनाकार होते हुए भी उन्होंने स्त्रियों के भावों को बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा है और रचना में बखूबी उसकी प्रस्तुति भी की है। इस विशिष्ट प्रतिभा के लिए भारतीय साहित्य में उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा।