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काकोरी कांड का वह वीर जिसे अंगेज़ों ने तय समय से पहले दे दी फाँसी!

“…मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि स्वतंत्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ”

ये अंतिम शब्द थे फांसी के फंदे पर चढने वाले स्वतंत्रता सेनानी राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के। राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी भारत के अमर शहीद क्रांतिकारियों में से एक हैं जिन्होंने जीते-जी देश की सेवा की और उसी देश के लिए एक दिन कुर्बान भी हो गये।

प्रसिद्द ‘काकोरी कांड’ के लिए फांसी दिए जाने वाले क्रांतिकारियों में से बिस्मिल मुख्य थे जिन्होंने काकोरी कांड की योजना बनाई थी। पर बिस्मिल के साथ ऐसे बहुत से और भी देशभक्त थे, जिन्होंने अपनी जान की परवाह किये बना, खुद को देश के लिए समर्पित कर दिया था।

काकोरी कांड के लिए गिरफ्तार होने वाले 16 स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी!

काकोरी कांड में शहीद हुए क्रांतिकारियों में से एक

इनका जन्म बंगाल के पाबना ज़िले के भड़गा नामक गाँव में 23 जून, 1901 को हुआ था। इनके पिता का नाम क्षिति मोहन शर्मा और माँ का नाम बसंत कुमारी था। उनके जन्म के समय उनके पिता बंगाल में चल रही अनुशीलन दल की गुप्त गतिविधियों में योगदान देने के आरोप में कारावास में कैद थे।

साल 1909 में राजेन्द्र को बंगाल से वाराणसी भेजा गया ताकि उनके मामा के यहाँ उनकी पढ़ाई हो सके। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। लेकिन देशभक्ति और निडरता तो राजेन्द्र को पिता से विरासत में मिली थी। जब राजेन्द्र काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इतिहास में एम. ए. कर रहे रहे थे तब उनकी मुलाकात बंगाल के क्रांतिकारी ‘युगांतर’ दल के नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई।

शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी

शचीन्द्रनाथ ने उनके भीतर के देशभक्त क्रांतिकारी को पहचान कर उन्हें अपने साथ रखा और बनारस से प्रकशित होने वाली पत्रिका ‘बंग वाणी’ के सम्पादन का कार्य भार राजेन्द्र को सौंपा। अब धीरे-धीरे राजेन्द्र की मुलाकात बाकी क्रांतिकारियों से होने लगी। वे सभी साथ में मिलकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग छेड़ने की योजना बनाने लगे।

राजेन्द्र भी अब क्रांतिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ से जुड़ चुके थे और सक्रीय सदस्य बन गए। बाकी सबके साथ मिलकर वे क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने लगे।

राजेन्द्र का स्वाभाव भले ही क्रांतिकारी था पर उनकी रूचि साहित्य में भी थी। कहीं न कहीं वे भी जानते थे कि शिक्षा ही देश का उद्धार कर सकती है। उन्होंने अपने भाइयों के साथ मिलकर अपनी माँ बसंता कुमारी के नाम से एक पारिवारिक पुस्तकालय भी शुरू किया। राजेन्द्र नियमित रूप से लेख लिखते थे और साथ ही, इनका लगातार प्रयास रहता था कि क्रांतिकारी दल का प्रत्येक सदस्य अपने विचारों को लेख के रूप में दर्ज़ करे।

काकोरी कांड

क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे आज़ादी के आन्दोलन को गति देने के लिए धन और साधनों की ज़रूरत को देखते हुए शाहजहांपुर में रामप्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेज़ी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी। योजना के अनूसार दल के प्रमुख सदस्य रहे राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी ‘आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन’ को चेन खींच कर रोका।

काकोरी कांड

क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ां, चन्द्रशेखर आज़ाद व छह अन्य सहयोगियों की मदद से ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया गया। काकोरी कांड के बाद राजेन्द्र नाथ को बिस्मिल ने बम बनाने के प्रशिक्षण के लिए कलकत्ता भेज दिया।

कलकत्ता के पास ही दक्षिणेश्वर में वे बम बनाने का अभ्यास कर रहे थे। एक दिन किसी साथी की जरा-सी असावधानी से एक बम अचानक ब्लास्ट हो गया। इसकी तेज़ धमाकेदार आवाज़ को पुलिस ने सुन लिया और तुरंत ही मौके पर पहुँच कर वहा मौजूद 9 लोगों के साथ राजेन्द्रनाथ को गिरफ्तार कर लिया।

11वें नंबर पर हैं राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी

शुरू में उन्हें 10 साल की जेल की सजा सुनाई गयी लेकिन बाद में एक अपील के चलते सजा को 5 वर्ष कर दिया गया। दूसरी तरफ, काकोरी कांड को अंजाम देने वाले क्रांतिकारियों की धर-पकड़ भी जोरों पर थी। ऐसे में एक-एक कर ब्रिटिश पुलिस ने सभी प्रमुख क्रांतिकारियों को पकड़ लिया और साथ ही, राजेन्द्रनाथ का नाम भी उजागर हो गया।

राजेन्द्रनाथ को बंगाल से बनारस लाया गया और उन पर काकोरी कांड के लिए ही मुकदमा शुरू हो गया। अंग्रेज़ी हुकूमत ने उनकी पार्टी ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर साम्राज्य के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया। इसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ां तथा ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सज़ा सुनायी गयी।

काकोरी काण्ड के चार अमर बलिदानी: (बायें से) राजेन्द्र लाहिडी, अशफाक उल्ला खाँ, पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एवं ठाकुर रोशनसिंह

बताया जाता है कि फांसी की सजा मिलने के बाद भी राजेन्द्रनाथ हमेशा की तरह अपना सारा समय व्यतीत करते थे। उनकी दिनचर्या में कोई भी बदलाव नहीं आया था। इसे देख एक दिन जेलर ने उनसे सवाल किया कि

“पूजा-पाठ तो ठीक हैं लेकिन ये कसरत क्यों करते हो अब तो फांसी लगने वाली हैं तो ये क्यों कर रहे हो?”

तब जेलर को जवाब देते हुए राजेन्द्रनाथ ने कहा,

“अपने स्वास्थ के लिए कसरत करना मेरा रोज़ का नियम हैं और मैं मौत के डर से अपना नियम क्यों छोड़ दूँ? यह कसरत अब मैं इसलिए करता हूँ क्योंकि मुझे दूसरे जन्म में विश्वास है और मुझे दुसरे जन्म में बलिष्ठ शरीर मिले इसलिए करता हूँ, ताकि ब्रिटिश साम्राज्य को मिट्टी में मिला सकूँ।।”

राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की प्रतिमा और उन्हें समर्पित कविता

इन क्रांतिकारियों की फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष और भारत के तमाम राजनैतिक नेताओं के दबाव और कई अपीलों के कारण अंग्रेजी सरकार घबराने लगी। इसलिए उन्होंने राजेन्द्रनाथ को नियत समय के दो दिन पहले ही, 17 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गयी थी।

भारत माँ के ये वीर तो सदा के लिए चले गये, लेकिन अपने पीछे क्रांति की वह चिंगारी फूंक गये, जिसने देश में आज़ादी की ज्वाला प्रज्वलित की।


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