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23 वर्षों से दुनिया के सबसे छोटे सुअर को बचाने के लिए संघर्षरत हैं असम के यह शख्स!

असम के रहने वाले पराग डेका को बचपन से ही वन्यजीवों खास लगाव रहा है। शायद इसलिए कि उनकी परवरिश, यहाँ के पश्चिमी सीमा पर स्थित कोकराझार में हुई, जो हर तरफ से साल के जंगलों से घिरा है।

केवल 8 साल की उम्र में, उन्होंने कुछ छोटे पक्षियों को बचाया था, जो तूफान से घायल होकर जमीन पर गिर गए थे। वह उन पक्षियों को घर ले गए। लेकिन, दुखद रूप से अधिकांश पक्षियों की मौत हो गई, जिसे उन्होंने पूरे रीति-रिवाजों के साथ दफन कर दिया। जो पक्षी बचे, उसे पूरी तरह ठीक होने के बाद, उन्होंने खुले आसमान में छोड़ दिया।

वह अपने जीवन में पहली बार जानवरों को बचाने की खुशी का अनुभव कर रहे थे और इस तरह, उन्होंने अपना पूरा जीवन विलुप्ति की कगार पर पहुँच चुके, बेजुबानों के संरक्षण के लिए ही समर्पित कर दिया।

डेका अब एक पशुचिकित्सक और संरक्षक हैं, जो पिग्मी हॉग संरक्षण कार्यक्रम के प्रमुख हैं। इस कार्यक्रम को भारत सरकार के संबंधित विभाग, गैर-लाभकारी संस्था अरण्यक और ब्रिटेन की संस्था ड्यूरेल वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट द्वारा मिल कर चलाया जाता है।

इस कड़ी में डॉ. डेका ने द बेटर इंडिया को बताया, “इसने मेरे जीवन को एक ध्येय दिया है। अपने कार्यों को लेकर मेरा नजरिया यह है कि, मैं एक जीव को पूरी तरह से विलुप्त होने से बचाने के लिए अपना जीवन खर्च कर रहा हूँ।”

दुनिया का सबसे छोटा सूअर

पिग्मी हॉग (Pygmy Hog) दुनिया का सबसे छोटा और खास किस्म का जंगली सूअर है। इसकी लंबाई  औसतन 60 सेंटीमीटर और ऊंचाई 25 सेंटीमीटर होती है। जबकि,  इसका वजन 8 से 9 किलोग्राम होता है। वर्तमान समय में, इस विलुप्तप्राय स्तनपायी की संख्या करीब 200 है।

फिलहाल, यह प्रजाति उत्तर-पश्चिम असम के मानस टाइगर रिजर्व, सोनाई रुपाई वन्यजीव अभ्यारण्य और ओरंग राष्ट्रीय उद्यान जैसी जगहों में ही पाई जाती है।

पिग्मी हॉग (Pygmy Hog) बेहद चौकन्ने और संवेदनशील होते हैं। ये केवल हरे मैदानों में ही रह सकते हैं। 

धीरे-धीरे, इन मैदानों को खेतों और गाँवों में बदल दिया गया। इस तरह, मानवीय गतिविधि बढ़ने के कारण, उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया।

एक संकेतक प्रजाति के तौर पर, पिग्मी हॉग्स पारिस्थितिकी तंत्र की समग्र स्थिति और अन्य प्रजातियों के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं, जो पर्यावरणीय परिस्थितियों के साथ-साथ सामुदायिक संरचना के पहलुओं की गुणवत्ता और परिवर्तनों को दर्शाती है।

डेका बताते हैं, “ये गीले घास के मैदान, बारिश के दिनों में बाढ़ की रोकथाम करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जबकि, गर्मी के दिनों में इससे उच्च भूजल स्तर को बनाए रखने में मदद मिलती है। अप्रत्यक्षतः इससे किसानों को फायदा होता है।”

पिग्मी हॉग संरक्षण कार्यक्रम 

यह वास्तव में प्रकृतिवादी और संरक्षणवादी गेराल्ड ड्यूरेल थे, जिन्हें पिग्मी हॉग में खासी दिलचस्पी थी और 1960-70 के दशक में, उन्होंने इसके संरक्षण की मुहिम शुरू की।

इसके बाद, साल 1995 में, जीवविज्ञानी डॉ. गौतम नारायण और ड्यूरेल वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट के विलियम ऑलिवर द्वारा पिग्मी हॉग संरक्षण कार्यक्रम की शुरुआत की गई। उस दौरान, पिग्मी हॉग की संख्या काफी कम थी।

साल 1997 में, डेका, जो कि पशु चिकित्सा विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे थे, एक इंटर्न के तौर पर, उनकी टीम का हिस्सा बने। इंटर्नशिप पूरा होने के बाद, उन्हें एक कॉलेज में लेक्चरर के रूप में शामिल होने का मौका मिला। लेकिन, अपने दिल की आवाज सुनते हुए, वह पीएचसीपी के साथ बने रहे।

इस कड़ी में वह कहते हैं, “मैं सिर्फ ड्यूरेल, ओलिवर और गौतम की विरासत को संभाल कर रख रहा हूँ, जिन्होंने इस पहल को शुरू किया।”

कैसे करते हैं पिग्मी हॉग का संरक्षण

किसी विलुप्तप्राय जीव को बचाने के लिए, एक बहुआयामी दृष्टिकोण को अपनाने की जरूरत होती है। एक सक्षम प्रजनन केंद्र के तौर पर, पीएचसीपी का प्रयास है इसकी आबादी को बढ़ाना है, ताकि इसे विलुप्त होने से बचाया जा सके।

साल 1996 में, सिर्फ 2 नर और 4 मादा पिग्मी हॉग बचे थे और मानस टाइगर रिजर्व से इसे बशिष्ठ रिसर्च एंड ब्रीडिंग सेंटर लाया गया। ताकि, इसकी सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।

इस तरह, पीएचसीपी की अपनी सुविधाओं में हमेशा कम से कम 70 पिग्मी हॉग होते हैं। जबकि, पिछले 11 वर्षों के दौरान उन्होंने मानस टाइगर रिजर्व, सोनाई रुपाई वन्यजीव अभ्यारण्य, बरनाडी वन्यजीव अभ्यारण्य और ओरंग राष्ट्रीय उद्यान में 170 पिग्मी हॉग को फिर से रखा।

हॉग्स को जंगलों में फिर से छोड़ने से पहले इन्हें नामेरी टाइगर रिजर्व में, जंगल में जीवित रहने की ट्रेनिंग दी जाती है। यहाँ इनके स्वास्थ्य और गतिविधियों की ट्रेकिंग के लिए कैमरा ट्रैप और रेडियो टेलीमेट्री जैसे आधुनिक तकनीकों का भी इस्तेमाल किया जाता है।

इस मुहिम का एक और महत्वपूर्ण पहलू, उप-हिमालयी घास के मैदानों का उन्नयन और संरक्षण है। इसके लिए डेका, स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर काम करते हैं, ताकि वे इसके रखरखाव के प्रति जागरूक हो हों।

आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल

डेका, पिग्मी हॉग्स की पहली तस्वीरों को लेकर कहते हैं, “3 वर्ष पहले, मैं नामेरी में अपने कमरे में हजारों कैमरा ट्रैप चित्रों को देख रहा था। यह एक कठिन प्रक्रिया है। लेकिन, हमें इस बात का सख्त प्रमाण चाहिए होता है कि जंगलों में फिर से छोड़ने के बाद, हॉग्स की गतिविधियाँ क्या होती हैं।”

वह कहते हैं कि अभी तक उनकी यह पहल काफी सफल रही है और 2021 के शुरुआती दिनों से, मानस के भुइंयापार रेंज में 5 साल की अवधि के दौरान 60 और हॉग रिलीज किए जाएँगे। इसके लिए सुरक्षित घास के मैदानों की पहचान जारी है।

निकट भविष्य में, डेका की योजना अन्य लुप्तप्राय जीवों के संरक्षण की भी है। ड्यूरेल की “रीवाइल्ड आवर वर्ल्ड” की नीति से प्रेरित होकर, पीएचसीपी अब बंगाल फ्लोरिकन, द हिसपिड हरे, इस्टर्न बरसिंघा और वाटर बफेलो जैसे पशु-पक्षियों को बचाने की दिशा में प्रयासरत है।

इस प्रक्रिया में, उन्होंने त्रि-आयामी दृष्टिकोण को अपनाया है – पर्यावरण की पुनर्स्थापना, समुदायों के साथ फिर से जुड़ना और लुप्तप्राय जीवों की संख्या को बढ़ाना।

डेका अंत में कहते हैं, “हमने 2025 तक के लिए एक मसौदा तैयार किया है, जो गेराल्ड ड्यूरेल की 100 वीं जयंती है। उनके विचारों के फलस्वरूप ही, पिग्मी हॉग्स को विलुप्त होने से बचाने में मदद मिली।”

मूल लेख  –

संपादन – जी. एन. झा

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