बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर, भारत के पहले कानून एवं न्यायमंत्री और ‘भारतीय संविधान के निर्माता’ थे। जीवन की हर चुनौती और संघर्ष को उन्होंने शिक्षा के दम पर जीता। बचपन से ही पढ़ाई में अव्वल रहने वाले आम्बेडकर पहले भारतीय थे, जिन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त की।
भारत लौटकर उन्होंने भारत में फैले बहुत से सामाजिक मुद्दों पर लिखा और साथ ही यूरोप में बिताये दिनों के अपने अनुभव के बारे में भी कई बार लिखा है।
बाबासाहेब को किताबें पढ़ने का बड़ा शौक था। माना जाता है कि उनकी निजी-लाइब्रेरी दुनिया की सबसे बड़ी व्यक्तिगत लाइब्रेरी थी, जिसमें 50 हज़ार से अधिक पुस्तकें थीं।
उनकी शैक्षिक योग्यताओं से प्रभावित होकर बड़ौदा के शाहू महाराज ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया था। पढ़ने के शौक़ीन बाबासाहेब ने यहाँ पर भी लाइब्रेरी की सदस्यता ले ली। उनका ज़्यादातर समय लाइब्रेरी में पुस्तकों के बीच ही बीतने लगा।
इसी दौरान कई ऐसी घटनाएँ भी हुई, जिनकी वजह से बाबासाहेब का लोगों के प्रति और लोगों का उनके प्रति नज़रिया बिल्कुल ही बदल गया।
बताया जाता है कि एक बार वे इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान लंच-टाइम में अकेले लाइब्रेरी में बैठ-बैठे ब्रेड का एक टुकड़ा खा रहे थे। लाइब्रेरी में खाना खाने पर मनाही थी इसलिए जब वहां लाइब्रेरियन ने उन्हें देख लिया तो उन्हें डांटने लगा कि कैफेटेरिया में जाने की बजाय वे यहाँ छिपकर खाना क्यूँ खा रहे हैं। लाइब्रेरियन ने उन पर फाइन लगाने और उनकी सदस्यता ख़त्म करने की धमकी दी।
तब बाबासाहेब ने बहुत ही विनम्रता से उनसे माफ़ी मांगी और उनसे सदस्यता रद्द ना करने की प्रार्थना की। बाबासाहेब ने उन्हें बताया कि कितनी मुश्किलों और संघर्षों के बाद वे यहाँ पढ़ाई कर पा रहे हैं। साथ ही, उन्होंने यह भी बड़ी ईमानदारी से कबूल किया कि कैफेटेरिया में जाकर खाना खाने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं।
उनकी बात सुनकर और उनकी ईमानदारी से प्रभावित होकर लाइब्रेरियन ने कहा,
“आज से तुम लंच के समय में यहाँ नहीं बैठोगे बल्कि तुम कैफेटेरिया चलोगे और मेरे साथ मेरा टिफ़िन शेयर करोगे…”
यह सुनकर बाबासाहेब कुछ बोल नहीं पाए, पर उनके दिल में उस लाइब्रेरियन का ओहदा बहुत ऊँचा हो गया था। वह लाइब्रेरियन एक यहूदी था और उसके इस व्यवहार के कारण बाबासाहेब के मन में यहूदियों के लिए एक विशेष स्थान बन गया। उन्होंने अपने लेखन में भी यहूदियों को विशेष स्थान दिया।
उस वक़्त शायद उस नेकदिल लाइब्रेरियन को भी नहीं पता था कि एक दिन यही लड़का भारत के संविधान का निर्माता बनेगा।