महाराष्ट्र में पुणे के दो युवा संगठन, स्वराज्यचे शिलेदार और रायगड परिवार आस-पास के गांवों में सभी शहीद स्मारक या वीरगलों को फिर से सहेज रहे हैं। समय-समय पर शहीदों की याद में बनवाये गए ये स्मृति स्मारक या फिर पत्थर आज खोते जा रहे हैं। न तो सरकार ही इन पर ध्यान दे रही है और न ही नागरिक।
ऐसे में ये 20 युवा आगे बढ़कर इतिहास के इन स्मृति-चिह्नों को बचाने के प्रयास में जुटे हैं। साथ ही वे अधिकारी व स्थानीय लोगों को भी इस बारें में जागरूक कर रहे हैं।
दरअसल, जुलाई में मुलशी में ये युवा ट्रेक के लिए गए। जहां उन्हें ये वीरगल जहां-तहां पड़े मिले। इन स्मारकों को साफ़ करने पर पता चला कि ऐतिहासिक रूप से ये हमारी विरासत का हिस्सा हैं। इसीलिए इन युवाओं ने मावल, मुलशी और हवेली के आस-पास के गांवों में वीरगल संरक्षण अभियान चलाया।
एम.कॉम के छात्र और स्वयंसेवक, मंगेश नवघाने ने बताया, “हम मुलशी में ट्रेक पर गए थे और पाउड के पास वलेन गांव में एक मंदिर गए थे। यहां, हमने खेतों, वन क्षेत्रों आदि पर और सड़क के किनारे पर कई वीरगल बिखरे हुए देखे। स्थानीय लोगों को उनके बारे में बहुत नहीं पता था, हालांकि इन पत्थरों पर अपने गांव की विरासत का प्रतीक था। फिर हमने ऑनलाइन खोज-बीन की और हमें इनका महत्व पता चला। हम जानते थे कि अब हमें कुछ करना है।”
ये युवा हर वीकेंड पर ऐसे स्मारकों को खोजने की कोशिश करते हैं जो बहुत ही दयनीय स्थिति में या तो इधर-उधर पड़े हुए हैं या फिर जमीन में दब गए हैं।
इन स्मारकों को किसी जमाने में इन अनजाने सैनिकों और शहीदों के घरवाले या फिर गांववालों ने उनकी याद में बनवाया था। इनमें से अधिकांश को यादव और शिलाहारा राजवंशों के शासन के दौरान 5 वीं और 13 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच बनवाया गया है।
कई स्मारक नक्काशीदार हैं, जिनपर शहीदों की जीवन घटनाओं को दर्शाया गया है। ये पत्थर आज हमारे लिए इतिहास के कई अनसुने पहलुओं के दरवाजे खोल सकते हैं। लेकिन आज इनकी यह स्थिति वाकये ही अपमानजनक है। किसी जमाने में इनका उपयोग कपड़े धोने के पत्थर या फिर गांवों और घरों की सीमा चिह्नित करने के लिए होता था। इन स्मारकों पर सिंदूर से टीका लगाने के निशान भी मिले हैं।
अब तक सिर्फ मुलशी के पास ही इन युवाओं ने ऐसे 70 वीरगलों को ढूंढ निकाला है। इन वीरगलों को ढूंढकर ये इन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देते हैं। फिलहाल, बिना किसी भी अधिकारी की मदद से वे इन वीरगलों का रख-रखाव स्वयं कर रहे हैं।
एक अन्य स्वयंसेवक वैभव सलुंखे ने कहा, “इन स्मारकों की स्थिति दयनीय है, और सरकार इन्हें बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रही है। अब हम अपने वीकेंड ऐसे वीरगलों ढूंढने और उन्हें सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित करने के लिए खर्च कर रहे हैं।”
एक इंटीरियर डिजाइनर अनिल काडु ने वर्णन किया कि इनमें से कई पत्थरों पर नक्काशी में सूर्य, चंद्रमा, अमृत का एक बर्तन, या यहां तक कि एक युद्ध दृश्य जैसे प्रतीक थे। और प्रत्येक पत्थर पर एक अलग दृश्य है।
इंडोलॉजिस्ट सैली पलांडे दतार ने वीरगल के महत्वपूर्ण संरक्षण के बारे में बात करते हुए कहा कि ये 5 वीं और 13 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच हुई घटनाओं का सबूत हैं। पांडुलिपियों की अनुपलब्धता के कारण प्राचीन काल का इतिहास काफी हद तक लापता है। ये हमारे समृद्ध इतिहास में कुछ बिंदुओं को जोड़ने में हमारी मदद कर सकते हैं।
इन वीरगलों की रक्षा के लिए सरकारी कदमों की कमी के बारे में बात करते हुए, राज्य पुरातत्व और संग्रहालय विभाग के सहायक निदेशक विलास वाहने ने कहा कि उनकी रक्षा या संरक्षण करने की कोई नीति नहीं है।
उन्होंने कहा, “युवाओं द्वारा इस तरह के प्रयास सराहनीय हैं क्योंकि यह सार्वजनिक भागीदारी को संकेत देता है। हम ग्रामीणों के बीच इन पत्थरों की रक्षा के लिए जागरूकता पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि वास्तव में ये इतिहास की विरासत है। हमने इन छोड़े गए वीरगलों को आस-पास के मंदिरों जैसे सुरक्षित स्थानों पर लाने के लिए एक अभियान चलाया है।”
उन्होंने कहा कि अकेले राज्य में वीरगलों की संख्या 45,000 से अधिक है, लेकिन विभाग सीमाओं के कारण प्रत्येक पत्थर को संरक्षित नहीं किया जा सकता है। उस स्थिति में, स्वयंसेवक समूह एक महान काम कर रहे हैं।