किसी ने बिलकुल सच ही कहा, “हमारे देश का तिरंगा हवा से नहीं बल्कि हर एक उस सैनिक की आखिरी साँस से लहराता है जो इसकी आन-बाण-शान की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का बलिदान देते हैं।”
देश के लिए शहीद होने वाले सैनिकों की बहादुरी का इतिहास उतना ही पुराना है जितना की हमारे देश का। युद्ध चाहे जो भी हो, जिस भी देश से हो, भारतीय सैनिकों ने पीछे हटना नहीं सीखा। बल्कि वे तो अपने आप को अपने देश के लिए हँसते हुए अर्पित कर देते हैं।
बिडंबना यह है कि ऐसे नगीनों के बारे में आम जनता कम ही जान पाती है। साल 1971 में हुए भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए भारतीय नौसेना के कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला के बलिदान से भी ज्यादा लोग परिचित नहीं हैं। कप्तान महेंद्र नाथ मुल्ला, जो भारतीय नौसेना के हर एक सैनिक के लिए प्रेरणा है।
साल 1971, तारीख 3 दिसम्बर, शाम के 5:45 बज रहे थे जब पाकिस्तानी एयरफोर्स ने भारत के छह हवाई अड्डों पर आक्रमण कर दिया। उसी रात आईएफ कैनबेरा विमान ने पाकिस्तानी विमान-अड्डों को ध्वस्त कर दिया। 1971 का युद्ध शुरू हो चूका था और शीघ्र ही भारतीय नौसेना भी युद्ध में शामिल हो गयी।
तारीख – 5 दिसम्बर 1971 :
भारतीय नौसेना को सुचना मिली कि अरब सागर की उत्तरी दिशा से डाफ्ने-क्लास की पाकिस्तानी पनडुब्बी आक्रमण के लिए आगे बढ़ रही है। भारतीय नौसेना ने भी तेजी दिखाते हुए अपने पनडुब्बी रोधी लड़ाकू जहाज दल को इसका पता लगाने व खत्म करने का आदेश दिया।
8 दिसम्बर 1971 :
आईएनएस खुकरी (कप्तान मुल्ला की कमान में) व आईएनएस किरपान बॉम्बे से रवाना हुए। परन्तु अनुसन्धान के लिए तैनात प्रयोगात्मक सोनार उपकरण के कारण दुश्मन को भारतीय नौसेना की इस गतिविधि को भांपते देर न लगी।
9 दिसम्बर :
पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस हंगोर ने भारतीय आईएनएस खुकरी पर तारपीडो से हमला बोल दिया। तकनीकी कमियों के चलते आईएनएस खुकरी किसी भी मायने में पाकिस्तानी हंगोर का सामना नहीं कर सकता था। हमले के कुछ समय के भीतर ही जहाज डूबने लगा।
समय को हाथ से निकलते देख कप्तान मुल्ला ने जहाज को बचाने में ताकत न बर्बाद करते हुए अपने साथियों को बचाना उचित समझा। यह जानते हुए भी कि उनके ज्यादातर साथी जहाज की छत के नीचे दबे हैं उन्होंने खुद सबको निकालना शुरू कर दिया। अपनी चोट की परवाह किये बिना कप्तान ने हर उस सैनिक को बचाया जिसे वे बचा सकते थे।
उन कुछ कमजोर लम्हों में, यदि कप्तान मुल्ला चाहते तो स्वयं को बचा सकते थे पर इस असाधारण लीडर ने अपनी जान की बजाय अपने सिपाहियों की जान बचायी। यह था उस महान आदमी का व्यक्तित्व जिसने अपनी आखिरी साँस तक अपने साथियों को बचाने में लगा दी।
बहुत से सैनिक जिन्हें कप्तान ने बचाया था, उन्होंने बताया कि अपने आखिरी समय में भी कप्तान ने पुल पर खड़े होकर गार्ड रेल को पकड़े रखा जब तक की जहाज पूरी तरह डूब नहीं गया। और आईएनएस खुकरी ने 176 नाविक, 18 अधिकारी और एक बहादुर कप्तान के साथ अरब सागर के पानी में अपनी समाधी ले ली।
जीवित बचे 67 लोगों को अगली सुबह आईएनएस कटचल की मदद से निकाला गया। आईएनएस खुकरी अब तक इकलौता भारतीय लड़ाकू जहाज है जिसे भारत ने युद्ध के दौरान खोया है और कप्तान मुल्ला एकमात्र ऐसे कप्तान हैं जो अपने पोत के साथ खुद भी डूब गए।
कप्तान मुल्ला ने जो उन आखिरी क्षणों में किया वह न केवल उस हमले में बचे हुए सैनिकों का अपितु हर एक भारतीय सैनिक का हौसला बढ़ाता रहेगा। रिटायर मेजर जनरल ईआन कार्डोज़ो ने अपनी किताब, “द सिंकिंग ऑफ़ आईएनएस खुकरी: सरवाइवर्स स्टोरीज” में भी कप्तान मुल्ला की बहादुरी का जिक्र किया है।
उन्होंने किताब के प्रकाशन के दौरान कहा, “इस कभी न भुलाने वाली कार्यवाही में कप्तान मुल्ला ने हमें न केवल जीना बल्कि कैसे मरा जाता है यह भी सिखाया है। हम सभी को देश का बेहतर नागरिक बनने के लिए उनके सिद्धांत और मूल्यों को अपने जीवन में उतारना चाहिए।”
खुकरी के सभी शहीदों की याद में दिउ में भारतीय नौसेना ने एक मेमोरियल बनवाया। जिसमें आईएनएस खुकरी का स्केल मॉडल रखा गया है। कप्तान मुल्ला आज़ाद भारत के पहले कप्तान थे जो अपने जहाज को बचाने के लिए स्वयं भी उसके साथ डूब गए! उन्हें मरोणोपरांत महावीर चक्र से नवाज़ा गया।
कप्तान मुल्ला की पत्नी सुधा मुल्ला ने भी अपने पति के नक़्शे-कदम पर चलते हुए, अपना जीवन खुकरी में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों के जीवन को सुधारने में लगा दिया। कप्तान मुल्ला जैसे रत्न हर रोज जन्म नहीं लेते और अब यह हम देशवासियों का कर्तव्य है कि इस बलिदान को सर-आँखो पर रखते हुए अपने देश के विकास की दिशा में कदम बढ़ाएं।
(संपादन – मानबी कटोच)