भारत में खेल जगत के इतिहास में ऐसी बहुत सी सच्ची कहानियां हैं जब खिलाडियों ने निजी ज़िन्दगी की मुश्किलों का सामना करते हुए खेल के मैदान पर खुद को साबित किया है। साल 2006 में जब भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली दिल्ली के लिए कर्नाटक के खिलाफ रणजी ट्रॉफी में खेल रहे थे तब उनके मैच वाले दिन ही उनके पिता का देहांत हो गया।
यह सबसे मुश्किल घडी थी कि पिता के अंतिम संस्कार के लिए जाएं या फिर दिल्ली के लिए बैटिंग करें। कोहली ने दिल्ली के लिए बैटिंग की। न सिर्फ बैटिंग बल्कि 90 रन बनाकर दिल्ली को जीताया भी।
आने वाले एशियाई खेलों में भारतीय टीम के गोलकीपर के रूप में दूसरे विकल्प के तौर पर कृष्ण पाठक हैं। उनकी कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं।
पाठक के पिता, टेक बहादुर पंजाब के कपूरथला में एक क्रेन ऑपरेटर थे, जो नेपाल में अपने परिवार को बेहतर जीवन देने के लिए अपना घर छोड़ कर यहां आये। भविष्य में टीम इंडिया के इस गोलकीपर के लिए जीवन बहुत ही चुनौतीपूर्ण रहा है। दरअसल, कृष्ण अक्सर अपने पिता की निर्माण स्थलों पर मदद किया करते थे, जिससे परिवार को थोड़े अधिक पैसे मिलें।
जब कृष्ण 12 साल के थे तब उनकी माँ इस दुनिया से चल बसी और अब 20 साल के होने से पहले ही उन्होंने दिल के दौरे के चलते अपने पिता को भी खो दिया था। उनके पिता की मौत उनके अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट से दो दिन पहले हुई। जब उन्हें इंग्लैंड की जूनियर टीम के साथ 7 मैच की सीरीज खेलनी थी। साल 2016 में होने वाले जूनियर हॉकी वर्ल्ड कप की तैयारी के लिए यह टूर्नामेंट बहुत जरूरी था।
कृष्ण ने बताया, “मेरी ज़िन्दगी हमेशा से ही अनिश्चित रही है। अब मैं एक अनाथ हूँ। मेरे लिए घर पर इंतज़ार करने वाला कोई नहीं है। मुझे नहीं पता कि ऐसी कोई जगह है मेरे लिए जिसे मैं घर कह सकूं। मैंने जीवन में इतनी कठिनाइयों का सामना किया है कि यदि हॉकी नहीं होती तो शायद मैं नशे का शिकार होता।”
कृष्ण के लिए फैसला मुश्किल था लेकिन उन्होंने अपने पिता के अंतिम संस्कार को छोड़ टीम के साथ मैच के लिए जाने का फैसला किया। हालांकि, जूनियर टीम के कोच हरेंद्र सिंह ने उसे जाने की अनुमति दे दी थी और साथ ही उसे आश्वासन भी दिया था कि टीम में उसकी जगह पर कोई खतरा नहीं होगा।
“मेरे लिए बहुत मुश्किल था। यह फैसला लेना बिल्कुल भी आसान नहीं था। मैंने नेपाल में मेरे घर पर मेरी बहनों और चाचा जी को फ़ोन किया। उन्होंने मुझे वापिस आने के लिए नहीं कहा बल्कि मुझे आश्वासन दिया कि मुझे भारत के लिए खेलना चाहिए। हरेंद्र सर ने मुझे जाने की अनुमति दी लेकिन मैं खुद को साबित करना चाहता था,” कृष्ण ने कहा।
छह महीने बाद, भारत जूनियर हॉकी विश्व चैंपियन बन गया। यह साबित करता है कि कृष्ण पाठक के पास जुनून और इच्छा है कि वह न केवल भारत का प्रतिनिधित्व करे, बल्कि अपने जीवन में इस तरह के कठिन समय में भी खुद को विश्व स्तर पर साबित करे।
टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए, हरेंद्र (जो अब सीनियर टीम के कोच हैं) ने कहा, “मैंने उसे कहा और आश्वासन दिया कि टीम में उसका स्थान खतरे में नहीं होगा, लेकिन उसने कहा कि सर मेरे पिता चाहते थे कि मैं भारत का प्रतिनिधित्व करूं। उस समय, मुझे एहसास हुआ कि वह मानसिक रूप से बहुत मजबूत है। उसमें खेलने और अपने खेल को और बेहतर करने की ललक है।”
आज, वह अपने चाचा, चंद्र पाठक के साथ कपूरथला में एक किराए के कमरे में रहता है। भारत को जूनियर हॉकी विश्व चैंपियन बनाने वाली टीम के हर खिलाड़ी को पंजाब सरकार ने 25-25 लाख रूपये देने का वादा किया था। लेकिन अभी तक किसी भी खिलाड़ी को यह पैसा नहीं मिला है।
कृष्ण उस पैसे से अपने लिए एक घर बनाना चाहते हैं। लेकिन वे कहते हैं कि यह मेरे हाथ में नहीं कि पैसा कब मिलेगा। इसलिए अभी वे जकार्ता, इंडोनेशिया में होने वाले एशियाई खेलों पर ध्यान केंद्रित कर रहे है।