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कभी थे चंबल के बाग़ी, आज हैं ‘चीता मित्र’! सरकार ने सिकरवार को सौंपी बड़ी ज़िम्मेदारी

रमेश सिंह सिकरवार के नाम से कभी चंबल घाटी कांपती थी। 1970-80 के दशक में चंबल के बीहड़ों में उनका राज चलता था। आज, इतने सालों बाद उनके हाथों में फिर से बंदूक है। लेकिन इस बार उन्होंने किसी की जान लेने के लिए नहीं, बल्कि चीतों की हिफ़ाज़त के लिए बंदूक उठाई है। रमेश सिंह सिकरवार को वन विभाग की पहल पर चीता मित्र नियुक्त किया गया है। पूरे जज़्बे के साथ रमेश सिंह सिकरवार ने द बेटर इंडिया से कहा कि वह जान देकर भी इस ज़िम्मेदारी को निभाएंगे। 

लगभग एक दशक तक लोगों के बीच ख़ौफ़ का कारण बने रहे, 72 साल के रमेश सिंह सिकरवार के नाम 250 से ज़्यादा डकैती और 70 से ज़्यादा हत्या के मामले दर्ज हैं। हालांकि 1984 में आत्मसमर्पण के बाद से वह करहल में खेती कर सामान्य जीवन गुज़ार रहे हैं। उनकी बात इस क्षेत्र में बड़े ध्यान से सुनी जाती है। श्योपुर और मुरैना के 175 गाँवों में हर आदमी उन्हें इज़्ज़त से मुखिया कहकर पुकारता है।

सिकरवार को चीता मित्र बनाने की क्या वजह थी?

17 सितंबर, 2022 को, अफ्रीका से लाए गए 8 चीते भारत के कूनो नेशनल पार्क में छोड़े गए। कुल 50 चीतों को अगले पांच वर्षों में भारत लाए जाने की योजना है। इसे लेकर ग्रामीणों में डर का माहौल है। ग्रामीणों को चीतों के बारे में कई गलतफहमियां भी हैं। 

वन विभाग को अफ्रीका से लाए जा रहे चीतों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए कुछ प्रभावशाली लोगों की तलाश थी। ऐसे में, उसने पहले कुछ ग्रामीणों को चुना, लेकिन कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। इसके बाद एक रेंज अधिकारी ने लोगों के मन से डर निकालने और उनकी गलतफहमियां दूर करने के लिए जून, 2022 में रमेश सिंह सिकरवार से संपर्क किया। क्योंकि मुखिया जी की बात हर कोई सुनता है। 

इसके अलावा, शिकारी भी वन अधिकारियों के लिए चिंता की वजह बने हुए हैं। अगस्त में ही कूनो के बफर ज़ोन के मौरावां में तेंदुए की खाल के साथ पांच लोगों को गिरफ़्तार किया गया था। ऐसे में सिकरवार और उनके सहयोगी चीतों की रक्षा में अहम कड़ी साबित होंगे।

सिकरवार को क्या ज़िम्मेदारी सौंपी गई है?

मध्य प्रदेश के चंबल में रमेश सिंह सिकरवार को चीता मित्र के तौर पर, अफ्रीका से लाए गए चीतों को लेकर स्थानीय लोगों को जागरूक करने का ज़िम्मा सौंपा गया है। इसके लिए वह उन गाँवों में जा रहे हैं, जो कूनो नेशनल पार्क से लगते हैं।

रमेश सिंह सिकरवार बताते हैं, “गाँव वाले हमारे दरवाज़े पर आकर डर ज़ाहिर कर चुके थे। उनमें अपनी आजीविका और उससे भी ज़्यादा, अपने जीवन को लेकर डर बैठा हुआ था, क्योंकि तेंदुए, काले हिरण और नीलगाय जैसे जानवर पहले से ही उनके लिए मुसीबत बने हुए हैं। चीते और भी ख़तरनाक होते हैं। हम चीतों के बारे में अनजान हैं, क्योंकि हमने उन्हें कभी देखा नहीं। लेकिन वन अधिकारियों के अनुसार चीते शायद ही कभी इंसानों पर हमला करते हैं।” 

सिकवार कहते हैं, “हम गाँव वालों को बता रहे हैं कि चीता काला हिरण खाता है; जो फ़सल को नष्ट कर देता है। इसलिए यह हमारी समस्याओं का समाधान करेगा। हम उन्हें समझा रहे हैं कि चीते के आने से क्षेत्र में समृद्धि आएगी। वे मानने भी लगे हैं कि उन्हें चीतों का स्वागत करना चाहिए।” 

रमेश सिंह सिकरवार इस जागरूकता कार्यक्रम के लिए अपने करीब दो दर्जन सहयोगियों के साथ कूनो के पास के गाँवों का दौरा कर रहे हैं।

आख़िर हत्या, डकैती के रास्ते पर क्यों चल पड़े थे सिकरवार?

चीता मित्र बने रमेश सिकरवार को आख़िर अपनी पुरानी ज़िंदगी में हत्या और डकैती के रास्ते पर क्यों चलना पड़ा था; इस बात का जवाब चंबल में हर कोई जानता है। महज़ सातवीं कक्षा पास रमेश सिंह ने बताया, “हम श्योपुर जिले की करहल तहसील स्थित नहरौनी में रहते थे। हमारे पास 90 बीघा ज़मीन थी, लेकिन चाचा ने सारी क़ब्ज़ा ली।” 

उनके पिता को कुछ भी देने से साफ़-साफ़ मना कर दिया। वे लोग पुलिस के पास गए तो पुलिस ने भी उनकी एक नहीं सुनी। उनके परिवार के साथ बड़ी ज़्यादती हुई। उन्हें गाँव छोड़कर जाना पड़ा। ऐसे में लालची चाचा के अन्यान्य के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए उन्होंने बंदूक उठा ली। वह बाग़ी बन गए। 

यह 1975 का साल था और रमेश सिकरवार की उम्र केवल 22 साल थी। इस दौरान हत्या, डकैती के खूब मामले उनके नाम पर चढ़े, लेकिन सिकरवार कहते हैं कि उन्होंने कभी किसी के साथ न तो अन्याय किया और न ही अन्याय का समर्थन किया। 

डाकू रमेश सिंह सिकरवार

वह कहते हैं, “मैंने अपने गिरोह के 32 सदस्यों के साथ 1984 में आत्मसमर्पण कर दिया। उस वक्त राज्य सरकार की ओर से उनके गिरोह पर एक लाख रुपये से भी ज़्यादा का इनाम घोषित था। उन्होंने आठ साल जेल में बिताए। इसके बाद रिहाई हुई तो उन्होंने करहल में खेती शुरू कर दी। अपराध से सालों से दूर रहने के बावजूद क्षेत्र में उनका दबदबा बरकरार है।

चंबल में दस्यु गिरोह के सरदार रहे रमेश सिंह सिकरवार कहते हैं कि चीतों की रक्षा और ग्रामीणों को जागरूक करने के लिए कुल 452 चीता मित्र बनाए गए, जिसमें वह भी शामिल हैं।

सिकरवार अपनी ज़िम्मेदारी बेहद ईमानदारी के साथ निभा रहे हैं। वह भूखे-प्यासे गाँव-गाँव घूम रहे हैं और अपने प्रभाव का इस्तेमाल लोगों को चीतों के प्रति धारणा बदलने में कर रहे हैं। बस, उन्हें एक ही बात का अफ़सोस है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीतों को छोड़ने के लिए कूनो नेशनल पार्क पहुंचे तो उनकी मुलाक़ात प्रधानमंत्री से नहीं हो पाई। 

संपादन – भावना श्रीवास्तव

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