“हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
ग़ालिब को इस दुनिया से गए लगभग 147 बरस हो गए, इस अरसे में सैकड़ों शायर आए-गए लेकिन ग़ालिब का ये शेर आज भी उतना ही सच है जितना तब था।
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” का जन्म 27 दिसम्बर 1796 को आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। वे उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। उन्हें उर्दू का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है। फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का भी श्रेय ग़ालिब को ही दिया जाता है। वक्त के साथ हिन्दुस्तान के दो टुकड़े हो गए और वह भारत और पकिस्तान में बंट गया पर ग़ालिब दोनों ही मुल्कों के अज़ीम शायर बन कर हमेशा जिंदा रहे।
मुग़लों की दिल्ली यानि शाहजहांनाबाद में गालिब ने अपने जीवन के करीब पचपन बरस बिताएं। ग़ालिब का अधिकतर जीवन गली कासिम जान में बीता। दिल्ली के भूगोल के हिसाब से यह गली आज के चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के भीतर जाने पर शम्शी दवाखाना और हकीम शरीफखाँ की मस्जिद के बीच में है।
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
एक कुरआने सुखन का सफ्हा खुलता है
असद उल्लाह खाँ गालिब का पता मिलता है
ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा, मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे।
1850 मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र-2 ने मिर्ज़ा गालिब को “दबीर-उल-मुल्क” और “नज़्म-उद-दौला” के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे “मिर्ज़ा नोशा” का खिताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार मे एक महत्वपुर्ण दरबारी थे। नाम, शोहरत, रुतबा और इज्ज़त सब कुछ ग़ालिब के कदम चूम रहे थे। और फिर अंग्रेज़ आ गए।
अंग्रेजो के दिल्ली पर कब्ज़ा करने से पहले ग़ालिब को कौन नहीं जानता था। पर बहादुर शाह ज़फर की गिरफ्तारी के बाद मानो ग़ालिब भी गुमनामी की गिरफ्त में आ गए। ग़ालिब इस बात का बयाँ कुछ इस तरह करते है –
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या!!
देश के पहले स्वतन्त्रता संग्राम (1857) के बाद दिल्ली में हुई मारकाट के बारे में 1858 में अपने शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम लिखी चिट्ठी में ग़ालिब ने ग़दर का हाल बयान किया है-
“अंग्रेज की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए,
उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द।
हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा
तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा।”
और शायद यही हुआ … नयी दिल्ली के अंग्रेजों की राजधानी बनने से पहले ही 15 फरवरी 1869 की रोज़ इस महान शायर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। शायद यही कारण है कि वे आज की नयी दिल्ली की कहानी से गायब है। शायद इस भावी तिरस्कार और एकाकीपन का अंदाजा ग़ालिब को पहले ही से था –
लेता नहीं मेरे दिल ए आवारा की खबर
अब तक वो जानता है कि मेरे पास है
उर्दू काव्य के इस शीर्ष कवि की मज़ार दिल्ली में ही है। दक्षिणी दिल्ली की बस्ती निज़ामुद्दीन में गालिब की मजार हिन्दी ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माता-अभिनेता सोहराब मोदी के कारण सुरक्षित है। सोहराब मोदी ने ही हजरत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के पास गालिब की कब्र पर संगमरमर पत्थर चिनवा कर उसकी सुरक्षा की वरना शायद किसीको पता न लगता कि ग़ालिब अब कहाँ है।
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!
हुई मुद्दत के ‘ग़ालिब’ मर गया, पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता?
-मिर्ज़ा ग़ालिब