“मैं अपने लेखन में जिजीविषा की तलाश करता हूँ। मनुष्य की जो जिजीविषा है, जो जीवन है, वह बहुत बड़ा यथार्थ है।”
– कुंवर नारायण
शायद यही जिजीविषा थी, जिसने कुंवर नारायण को यथार्थ का कवि बना दिया! कुंवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं।
जीवन से भरपूर उनकी कविताएँ मृत्यु के अटल सत्य के भी परिचायक हैं!
जीवन से वही मेल रोज़ धीरे धीरे,
कर न दे मलिन
आत्मदर्पण अति परिचय से;
ऊब से, थकन से, बचा रहे…
रहने दो अविज्ञात बहुत कुछ….
(कुंवर नारायण के प्रथम कविता संग्रह ‘चक्रव्यूह’ से)
‘घर रहेंगे, हमीं उनमें रह न पाएंगे
समय होगा,हम अचानक बीत जाएंगे.
अनर्गल जिंदगी ढोते किसी दिन हम
एक आशय तक पहुंच सहसा बहुत थक जाएंगे..मृत्यु होगी खड़ी सम्मुख राह रोके,
हम जगेंगे यह विविधिता,स्वप्न, खो के
और चलते भीड़ में कन्धे रगड़कर हम
अचानक जा रहे होंगे कहीं सदियों अलग होके.
(घर रहेंगे : तीसरा सप्तक 1959)
‘चक्रव्यूह’ की कविताओं के माध्यम से कवि के मानस और व्यक्तित्व की जो झलक दिखती है, वह पाठक में और भी जानने की इच्छा जगाती है! वहीं ‘आत्मजयी’ में मृत्यु संबंधी शाश्वत समस्या को कठोपनिषद का माध्यम बनाकर अद्भुत व्याख्या के साथ कुंवर हमारे सामने रखते हैं।
पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, क्योंकि
तुम्हारा वर्तमान जिस दिशा में मुड़ता है
वहां कहीं एक भयानक शत्रु है जो तुम्हें मारकर तुम्हारे संचयों को तुम्हारे ही मार्ग में ही लूट लेता है, और तुम खाली हाथ लौट आते हो।– ‘आत्मजयी’ से
हालाँकि कुंवर किसी भी गुटबाज़ी से परे रहें पर राजनितिक और असामजिक तत्वों के बारे में बेबाक लिखने से वे कभी नहीं कतराए! उनकी यह बेबाकी उनकी कविता ‘दुनिया की चिंता’ में भलीभांति नज़र आती है –
छोटी सी दुनिया
बड़े-बड़े इलाके
हर इलाके के
बड़े-बड़े लड़ाके
हर लड़ाके की
बड़ी-बड़ी बन्दूकें
हर बन्दूक के बड़े-बड़े धड़ाके
सबको दुनिया की चिन्ता
सबसे दुनिया को चिन्ता ।
और दुनिया की चिंता करने वाला यह कवि अक्सर अपनी कविताओं में देश के हालात बयां कर, हताश भी हो जाता था…
अजीब वक्त है –
बिना लड़े ही एक देश- का देश
स्वीकार करता चला जाता
अपनी ही तुच्छताओं के अधीनता !
कुछ तो फर्क बचता
धर्मयुद्ध और कीट युद्ध में –
कोई तो हार जीत के नियमों में
स्वाभिमान के अर्थ को फिर से ईजाद करता ।
कुंवर की यह हताशा व्यर्थ तो नहीं पर दुर्भाशी ज़रूर थी….
क्या फिर वही होगा
जिसका हमें डर है ?
क्या वह नहीं होगा
जिसकी हमें आशा थी?क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे
बाजारों में
अपनी मूर्खताओं के गुलाम?क्या वे खरीद ले जायेंगे
हमारे बच्चों को दूर देशों में
अपना भविष्य बनवाने के लिए ?क्या वे फिर हमसे उसी तरह
लूट ले जायेंगे हमारा सोना
हमें दिखाकर कांच के चमकते टुकडे?और हम क्या इसी तरह
पीढी-दर-पीढी
उन्हें गर्व से दिखाते रहेंगे
अपनी प्राचीनताओं के खण्डहर
अपने मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे?
पर हताशा कुंवर का स्वभाव न था…वह तो उद्दंड था, बागी था तभी तो पुनश्च जागता है वह और अस्वीकार कर देता है घुट घुट कर जीने के इस नियम को!
पुनश्च
इस्तीफा देता हूं
व्यापार से
परिवार से
सरकार से
मैं अस्वीकार करता हूं
रिआयती दरों पर
आसान किश्तों में
अपना भुगतान
मैं सीखना चाहता हूं
फिर से जीना…
बच्चों की तरह बढ़ना
घुटनों के बल चलना
अपने पैरों पर खड़े होना
और अंतिम बार
लड़खड़ा कर गिरने से पहले
मैं कामयाब होना चाहता हूं
फिर एक बार
जीने में
अलविदा श्रद्धेय!
अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूँगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं
समझना मुश्किल है कि कभी जीवन, कभी मृत्यु, कभी हताशा तो कभी बगावत की बातें करता यह कवि कैसे कवि मन के उधेड़बुन को भी सरल शब्दों में अपनी कविताओं से सहजता से कह जाता था….
कुंवर नारायण की ऐसी ही कुछ सरल पर बेहद सुन्दर कविताएँ –
जल्दी में
प्रियजन
मैं बहुत जल्दी में लिख रहा हूं
क्योंकि मैं बहुत जल्दी में हूं लिखने की
जिसे आप भी अगर
समझने की उतनी ही बड़ी जल्दी में नहीं हैं
तो जल्दी समझ नहीं पायेंगे
कि मैं क्यों जल्दी में हूं ।
जल्दी का जमाना है
सब जल्दी में हैं
कोई कहीं पहुंचने की जल्दी में
तो कोई कहीं लौटने की …
हर बड़ी जल्दी को
और बड़ी जल्दी में बदलने की
लाखों जल्दबाज मशीनों का
हम रोज आविष्कार कर रहे हैं
ताकि दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती हुई
हमारी जल्दियां हमें जल्दी से जल्दी
किसी ऐसी जगह पर पहुंचा दें
जहां हम हर घड़ी
जल्दी से जल्दी पहुंचने की जल्दी में हैं ।
मगर….कहां ?
यह सवाल हमें चौंकाता है
यह अचानक सवाल इस जल्दी के जमाने में
हमें पुराने जमाने की याद दिलाता है ।
किसी जल्दबाज आदमी की सोचिए
जब वह बहुत तेजी से चला जा रहा हो
-एक व्यापार की तरह-
उसे बीच में ही रोक कर पूछिए,
‘क्या होगा अगर तुम
रोक दिये गये इसी तरह
बीच ही में एक दिन
अचानक….?’
वह रुकना नहीं चाहेगा
इस अचानक बाधा पर उसकी झुंझलाहट
आपको चकित कर देगी ।
उसे जब भी धैर्य से सोचने पर बाध्य किया जायेगा
वह अधैर्य से बड़बड़ायेगा ।
‘अचानक’ को ‘जल्दी’ का दुश्मान मान
रोके जाने से घबड़ायेगा । यद्यपि
आपको आश्चर्य होगा
कि इस तरह रोके जाने के खिलाफ
उसके पास कोई तैयारी नहीं….
बीमार नहीं है वह
बीमार नहीं है वह
कभी-कभी बीमार-सा पड़ जाता है
उनकी ख़ुशी के लिए
जो सचमुच बीमार रहते हैं।किसी दिन मर भी सकता है वह
उनकी खुशी के लिए
जो मरे-मरे से रहते हैं।कवियों का कोई ठिकाना नहीं
न जाने कितनी बार वे
अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं।उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं
उनकी ख़ुशी के लिए
जो कभी नहीं मरते हैं।
बाकी कविता
पत्तों पर पानी गिरने का अर्थ
पानी पर पत्ते गिरने के अर्थ से भिन्न है।जीवन को पूरी तरह पाने
और पूरी तरह दे जाने के बीच
एक पूरा मृत्यु-चिह्न है।बाकी कविता
शब्दों से नहीं लिखी जाती,
पूरे अस्तित्व को खींचकर एक विराम की तरह
कहीं भी छोड़ दी जाती है…
घर पहुँचना
हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
अपने अपने घर पहुँचना चाहतेहम सब ट्रेनें बदलने की
झंझटों से बचना चाहतेहम सब चाहते एक चरम यात्रा
और एक परम धामहम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
और घर उनसे मुक्तिसचाई यूँ भी हो सकती है
कि यात्रा एक अवसर हो
और घर एक संभावनाट्रेनें बदलना
विचार बदलने की तरह हो
और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों
वही हो
घर पहुँचना
सुबह हो रही थी
सुबह हो रही थी
कि एक चमत्कार हुआ
आशा की एक किरण ने
किसी बच्ची की तरह
कमरे में झाँकाकमरा जगमगा उठा
“आओ अन्दर आओ, मुझे उठाओ”
शायद मेरी ख़ामोशी गूँज उठी थी।
और जीवन बीत गया
इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने झगड़ने कोपर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहाऔर जीवन बीत गया..।
एक और दुखद और आश्चर्य की बात यह है कि इस कवि की लिखी हुई लगभग तीन दशक पुरानी कविता आज भी देश में प्रासंगिक है! यह कविता है –
अयोध्या, 1992
हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर – लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्यअयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है !हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान – किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !
इतनी सरलता से हर बात कह जाने वाले कुंवर नारायण की भी एक ‘मुश्किल’ थी! वह मुश्किल यह थी-
‘एक अजीब सी मुश्किल में हूं इन दिनों-
मेरी भरपूर नफरत कर सकने की ताकत
दिनों-दिन क्षीण पड़ती जा रही,मुसलमानों से नफ़रत करने चलता
तो सामने ग़ालिब आकर खड़े हो जाते
अब आप ही बताइए किसी की कुछ चलती है
उनके सामने?अंग्रेजों से नफ़रत करना चाहता
जिन्होंने दो सदी हम पर राज किया
तो शेक्सपियर आड़े आ जाते
जिनके मुझ पर न जाने कितने अहसान हैंऔर वह प्रेमिका
जिससे मुझे पहला धोखा हुआ था
मिल जाए तो उसका खून कर दूं!
मिलती भी है, मगर
कभी मित्र, कभी मां, कभी बहन की तरह
तो प्यार का घूंट पीकर रह जाता ….
(इन दिनों : 2002)