“अम्मा को मेरा लडकों के साथ खेलना हमेशा से नापसंद था। अब बताओ जरा, वो क्या आदमी खाते हैं जो उनकी प्यारी बेटी को खा जायेंगें”
ये शब्द हैं उर्दू साहित्य का चौथा स्तंभ कही जाने वाली महान लेखिका इस्मत चुग़ताई के। वही इस्मत आपा जिन्हें सालों पहले उनके काम के लिए किसी ने अश्लील लेखक कहा तो किसी ने बेशर्म; पर जनाब, आज का उर्दू साहित्य उनका ऋणी है और शायद ताउम्र रहे।
21 अगस्त 1911 को उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मी इस्मत ने अपनी कहानियों के जरिये समाज को बताया कि महिलाएं सिर्फ हाड़-मांस का पुतला नहीं, उनकी भी औरों की तरह भावनाएं होती हैं। वे भी अपने सपने को साकार करना चाहती हैं। 20वीं शताब्दी का समाज और एक मुसलमान लड़की का बागी स्वाभाव, आख़िरकार समाज को उसकी हस्ती के सामने झुकना ही पड़ा।
इस्मत आपा ने महिलाओं के सवालों को नए सिरे से उठाया, जिससे वे उर्दू साहित्य की सबसे विवादस्पद लेखिका बन गयीं। वह दौर, जब महिलाओं के बारे में सिर्फ ऊपर-ऊपर से लिखा जाता था और हमारे समाज की दिखावटी सभ्यता को सच्चाई का जामा पहनाकर परोसा जाता था। ऐसे में इस्मत आपा ने उन मुद्दों पर लिखा, जिन्हें बंद कमरों में औरतें हर रोज़ झेलती थी और जिन पर अक्सर शर्म का पर्दा गिरा दिया जाता था।
इस्मत ने इन सभी पर्दों को हटाकर अपनी कहानियों की नायिकाओं को कुछ इस तरह गढ़ा, कि वे आम औरतों का चेहरा बन गयीं। उनकी कहानियों पर कई नाटक रचने वाले अभिनेता नसरुद्दीन शाह ने उनके लिए लिखा था…
“उन्होंने (इस्मत आपा) कभी भी किसी लड़की और लड़के के प्यार में पड़ने और बाद में ख़ुशी-ख़ुशी साथ रहने के बारे में नहीं लिखा। वह हमेशा असफल संबंधों के बारे में बात करती। वह उनके बारे में लिखती जो कि इन खुशियों से वंचित रह गये। उन्होंने एक भंगन, एक जमादारनी की कहानी लिखी। उन्होंने एक अंग्रेज के बारे में लिखा है, जो आज़ादी के बाद भारत छोड़ने से इंकार कर देता है क्योंकि वह वेश्या से प्यार करता था और सड़कों पर भीख मांगते हुए मर जाता है। उन्होंने एक बूढ़े आदमी और एक युवा लड़की के प्यार के बारे में लिखा है। उस समय ये सब बातें चौंकाने वाली थीं।”
साल 1942 में जब उनकी कहानी ‘लिहाफ’ प्रकाशित हुई तो साहित्य-जगत में बवाल मच गया। समलैंगिक रिश्ते पर लिखी गयी इस कहानी को लोगों ने अश्लील करार दिया। यहाँ तक कि उन पर लाहौर कोर्ट में मुकदमा भी चला। उस दौर को इस्मत ने अपने लफ़्ज़ों में यों बयान किया,
“उस दिन से मुझे अश्लील लेखिका का नाम दे दिया गया। ‘लिहाफ’ से पहले और ‘लिहाफ’ के बाद मैंने जो कुछ लिखा किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। मैं सेक्स पर लिखने वाली अश्लील लेखिका मान ली गई। ये तो अभी कुछ वर्षों से युवा पाठकों ने मुझे बताया कि मैंने अश्लील साहित्य नहीं, यथार्थ साहित्य दिया है। मैं खुश हूँ कि जीते जी मुझे समझने वाले पैदा हो गए। मंटो को तो पागल बना दिया गया। प्रगतिशीलों ने भी उस का साथ न दिया। मुझे प्रगतिशीलों ने ठुकराया नहीं और न ही सिर चढ़ाया। मंटो खाक में मिल गया क्योंकि पाकिस्तान में वह कंगाल था…
‘लिहाफ’ का लेबल अब भी मेरी हस्ती पर चिपका हुआ है। जिसे लोग प्रसिद्धि कहते हैं, वह बदनामी के रूप में इस कहानी पर इतनी मिली कि उल्टी आने लगी। ‘लिहाफ’ मेरी चिढ़ बन गया। जब मैंने ‘टेढ़ी लकीर’ लिखी और शाहिद अहमद देहलवी को भेजी, तो उन्होंने मुहम्मद हसन असकरी को पढ़ने को दी। उन्होंने मुझे राय दी कि मैं अपने उपन्यास की हीरोइन को ‘लिहाफ’ ट्रेड का बना दूं। मारे गुस्से के मेरा खून खौल उठा। मैंने वह उपन्यास वापस मंगवा लिया। ‘लिहाफ’ ने मुझे बहुत जूते खिलाए थे।”
इन सबके बावजूद इस्मत ने माफ़ी न मांग कर कोर्ट में लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। उनके एक भाई मिर्जा अज़ीम बेग चुग़ताई प्रतिष्ठित लेखक थे। वे इस्मत के पहले शिक्षक और ‘मेंटर’ भी रहे। 1936 में जब इस्मत बीए में थीं, लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ सम्मेलन में शरीक हुई थीं। बीए और बीएड करने वाली वे पहली भारतीय मुस्लिम महिला थीं।
उनकी रचनाओं का बेबाकपन इतना था कि सआदत हसन मंटों ने भी एक बार उनके लिए कहा था कि अगर वे औरत होते तो इस्मत होते या फिर इस्मत मर्द होती तो मंटों होती।
अपनी शर्तों पर अपनी ज़िन्दगी जीने वाली इस्मत आपा ने ज़िन्दगी में खूब उतार-चढ़ाव देखें। उन्हें अश्लील पत्र लिखे गये, मारने की धमकियाँ मिली और उन्हें कचहरी के चक्कर काटने पड़े। पर उन्होंने कभी भी अपनी किसी परेशानी का रोना किसी और के सामने नहीं रोया। वो तो बड़ी ही खुद्दारी से महफ़िल में बैठ अपने करीबियों के साथ ताश खेला करती थीं।
आज जिस फेमिनिज्म पर हम बहस करते हैं, उस विचारधारा को इस्मत आपा ने आज से सात दशक पहले ही चेहरा दे दिया था। इससे पता चलता है कि उनकी सोच अपने समय से कितनी आगे थी। उन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री चरित्रों को बेहद संजीदगी से उभारा। इसी कारण उनके पात्र जिंदगी के बेहद करीब नजर आते हैं।
उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी काम किया। इस्मत आपा कुल 13 फिल्मों से जुड़ी रहीं। उनकी आखिरी फिल्म ‘गर्म हवा’ (1973) के लिए उन्हें नेशनल फिल्म अवार्ड और फिल्मफेयर अवार्ड मिला।
ज़िन्दगी को पूरी जिंदादिली से जीने वाली इस्मत आपा को मौत से भी कोई गिला न था। उनके उपर लिखी गयी एक किताब में कुर्रतुलएन हैदर ने उनके लिए ‘लेडी चंगेज़ खान’ लिखा है। इस लेख में उन्होंने उजागर किया,
इस्मत आपा अक़सर कहती थीं, “भई मुझे तो क़ब्र से बहुत डर लगता है। मिट्टी में थोप देते हैं, दम घुट जायेगा…….मैं तो अपने आप को जलवाऊंगी।”
80 साल की उम्र में 24 अक्टूबर 1991 को इस्मत आपा ने इस दुनिया से विदा ली। उनकी वसीयत के मुताबिक उनके पार्थिव शरीर को दफ़नाने की बजाय अग्नि दी गयी। पर इस्मत कोई जिस्म नहीं जो जल जाए! इस्मत तो वो मशाल है, जो हर दौर में रुढ़िवादी समाज के अंधेरों को मिटाकर नौजवानों में बगावत की रौशनी जलाए रखेगी!
संपादन – मानबी कटोच