भारत की संस्कृति इसकी कला से किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई है। वहीं, हमारे देश के कई कलाकार अपनी संस्कृति और कला को सहेजने के लिए जी-जान से प्रयास कर रहे हैं।
गुजरात की प्राचीन कलाओं की बात आते ही, सबसे पहले हमें पाटन की पटोला साड़ी ही याद आती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कच्छी कालीन, खराद भी अपनी अलग पहचान रखती है? तक़रीबन 700 साल पुरानी इस बुनाई कला को जीवित रखने के लिए कच्छ का एक परिवार सालों से प्रयास कर रहा है।
यूं तो कच्छ में मिलनेवाली कई हैंडमेड चीजें यहां आनेवाले पर्यटकों को लुभाती हैं। फिर चाहे हैंडमेड शॉल हो या बेडशीट। लेकिन हाथ से बनी खराद बुनाई की अपनी अलग जगह है। लुप्त होती जा रही कच्छ की इस बुनाई कला को मात्र तेजशीभाई और उनके परिवारवाले ही बचाए हुए हैं।
बकरी और ऊंट के ऊन से बनी अलग-अलग चीजें, जैसे- कालीन, आसन, वॉल हैंगिंग आदि खराद कहलाते हैं।
तेजाशीभाई के बेटे सामतभाई ने इस बारे में द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया कि कैसे उनके पिता ने इस कला के संरक्षण के लिए नई पीढ़ी को तैयार किया है।
क्या है खराद?
कच्छी खराद एक पारंपरिक कला है, जिसे हाथ से बुनकर तैयार किया जाता है। इसे राजस्थान में जिरोई कहते हैं और अंग्रेजी में इसे रग्स कहा जाता है। वहीं, सिंधी भाषा में इसे खराद कहते हैं, जिसका मतलब होता है मजबूत। कच्छ की बांधनी और गलीचा बनाने की कला की तरह ही इसे बनाने की भी अलग तकनीक है।
फिलहाल, तेजशीभाई और उनके दोनों बेटे, हीरा और सामत, खराद बुनाई का काम कर रहे हैं। सामतभाई ने बताया, “पहले हम बकरी और ऊंट के ऊन से खराद बनाते थे। लेकिन अब हम खराद बनाने के लिए भेड़ की ऊन का इस्तेमाल कर रहे हैं।”
साथ ही उन्होंने बताया कि सालों पहले राजा महाराजा के महलों के लिए, प्रोडक्ट्स बनाने में बकरी और ऊंट के ऊन का प्रयोग किया जाता था। हालांकि उस समय ऊन उन्ही की ओर से दिया जाता था। खराद कलाकर का काम होता था कालीन या दूसरी सजावटी चीजें बनाकर देना, जिसके बदले में उन्हें अनाज या घर का जरूरी सामान मिलता था। इसी तरह इन कलाकारों का गुजारा चलता था। इसके अलावा, ऊंट पालने वाले भी इन कलाकारों को ऊन दिया करते थे। अभी भी वास्तविक खराद के प्रशंसक, ऊंट या बकरी के ऊन से बने कालीन की ही मांग करते हैं।
पीढ़ी दर पीढ़ी संभाल रहे खानदानी कला
मूल रूप से मारवाड़ के रहनेवाले तेजशीभाई का परिवार इस कला से 700 से अधिक सालों से जुड़ा हुआ है। सामतभाई के दादाजी और उनके पिताजी बचपन से ही इस कला से जुड़े हैं। जबकि वह पिछले 18 सालों से अपने पिता के साथ मिलकर यह काम कर रहे हैं। इस तरह यह कच्छ का एकमात्र परिवार है, जो इस बुनाई की कला को आगे बढ़ा रहा है।
सामतभाई बताते हैं, “हम खावड़ा से 15 किमी दूर कुरान गांव में रहते थे। चूँकि हमारा गांव भारत-पाकिस्तान बॉर्डर के पास का आखरी गांव था। इसलिए कई पर्यटकों को हमारे गांव में आने की अनुमति नहीं मिलती थी और हमारे बनाए प्रोडक्ट्स लोग खरीद नहीं पाते थे। इस बात से परेशान होकर, साल 2001 में मेरे पिता ने अंजार के पास कुकमा गांव में बसने का फैसला किया। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इस कला के बारे में जान सकें।”
उस समय तेजशीभाई के ऊपर दो जिम्मेदारियां थीं, एक तो पारंपरिक कला का संरक्षण करना और दूसरा परिवार का पालनपोषण करना। इसके लिए तेजशीभाई ने बुनाई के साथ मजदूरी का काम भी शुरू कर दिया, ताकि परिवार की आजीविका चलाने में कोई कठिनाई न हो।
सालों की मेहनत से बनाई पहचान
तेजशीभाई बड़े नाम और ज्यादा पैसों की चाह किए बिना ही काम कर रहे थे। तभी 2001 के भूकंप के बाद ऑस्ट्रेलिया से सिडनी संग्रहालय के निदेशक कैरल डगलस ने भुज का दौरा किया था। उन्होंने उस समय के कच्छ के कारीगरों को अपनी कला में भूकंप की स्थिति दिखाने के लिए कहा था। सामतभाई ने बताया, “उस समय मेरे पिताजी ने 3*6 फुट का मोटा कालीन बनाया था। जो काफी पसंद किया गया और हमें उस समय 750 डॉलर का पुरस्कार भी मिला था। यह कालीन अभी भी महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी संग्रहालय में है।”
इसके बाद, उनके जीवन में कई बदलाव आए, तेजशीभाई मजदूरी का काम छोड़कर मात्र कालीन बनाने के काम में लग गए। उन्हें देश-विदेश से कई ऑर्डर्स भी मिलने लगे।
समातभाई ने बताया, “साल 2011 में कैरल डगलस फिर कच्छ आए और इस बार उन्होंने हमें अलग-अलग वॉल हैंगिंग बनाने को कहा, जिसमे अलग-अलग भारतीय कहानियां दिखाई गई हों। हमने सात से आठ प्रोडक्ट्स बनाए, जिसमें शादियों, त्योहारों, भारतीय रीति-रिवाजों, भूकंप और पर्यावरण की कहानियां दिखाई गई थीं। इसके बाद कैरल डगलस ने ऑस्ट्रेलिया में अपने खर्च पर, हमारे लिए एक प्रदर्शनी भी आयोजित की थी। जिनमें से कुछ चार प्रोडक्ट्स सिडनी संग्रहालय ने ही खरीदे थे और वे आज भी सिडनी म्यूजियम में रखे हुए हैं।”
इस प्रदर्शनी से उन्हें वैश्विक स्तर पर नई पहचान तो मिली ही, साथ ही उन्हें कई ऑर्डर्स भी मिले।
जीते कई अवॉर्ड्स
उन्हें साल 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पुरस्कार मिला था। फिर साल 2017 में इंटरनेशनल अवॉर्ड और दिल्ली के सूरजकुंड मेले में कलामणि अवॉर्ड भी मिला। अब तक तेजशीभाई को कई पुरस्कार मिल चुके हैं, जिसमें 2018 में गुजरात राज्य के सर्वश्रेष्ठ कारीगर का पुरस्कार भी शामिल है।
खराद बनाने के लिए वह आज भी 700 साल पुराने लूम का इस्तेमाल करते हैं। खराद लूम पर बन जाने के बाद, वह इसे डाई करते हैं। वह इसमें ग्राहक की पसंद के अनुसार डिजाइन बनाते हैं। कुछ कालीनों में दोनों तरफ कढ़ाई होती है, तो कुछ में एक तरफ। यह सारे काम हो जाने के बाद, कैंची से कालीन की फिनिशिंग की जाती है।
सामतभाई ने बताया कि वे दिन में आठ से नौ घंटे काम करते हैं। बिना किसी डिज़ाइन वाला एक खराद बनाने में 10 से 15 दिन लगते हैं। वहीं किसी विषय को दर्शाने वाला खराद बनाना हो, तो कम से कम 2 से 3 महीने लग जाते हैं। इसकी कीमत की बात की जाए, तो यह एक-दो हजार से शुरू होकर 25 हजार तक बिक जाते हैं। इसपर की गई कारीगरी से इसकी कीमत तय की जाती है।
मूल लेख- विवेक
संपादन- अर्चना दुबे
यह भी पढ़ें: गाय के गोबर से बनते हैं इनके सभी प्रोडक्ट्स, इस्तेमाल के बाद बन जायेगा खाद
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें।