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पिता के कैंसर ने किसान को जैविक खेती के लिए किया प्रेरित, सालाना हुआ 27 लाख का फायदा

सूरत के ओलपड में रहने वाले किसान रामचंद्र पटेल को जब पता चला कि उनके पिता को कैंसर है तो उनके सिर पर आसमान टूट पड़ा। वह किसान थे और खेती से अपने घर के लिए अनाज उगाते थे। उन्हें सिगरेट या शराब की कोई लत नहीं थी। वह समय पर स्वस्थ भोजन करते थे। फिर उन्हें कैंसर कैसे हो गया!

रामचंद्र, मुंबई के अस्पताल में लगभग 13 बार गए और तब जाकर उन्हें डॉक्टरों से अपने पिता की बीमारी का कारण पता चला। उन्हें पता चला कि अच्छी उपज के लिए फसलों पर रसायन और हानिकारक कीटनाशक के छिड़काव के कारण वह कैंसर की चपेट में आए।

यह सुनकर रामचंद्र की आंखें खुल गई। उनके पिता ने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के कारण दम तोड़ दिया लेकिन रामचंद्र ने रासायनिक खेती छोड़कर प्राकृतिक तरीके से खेती करने का फैसला किया। 1991 से उन्होंने गैर-कृषि भूमि के एक प्लॉट पर जीरो बजट नैचुरल फॉर्मिंग (ZBNF) अपनाते हुए काम करना शुरू किया और इसे एक उपजाऊ जमीन में बदल दिया।

आज, रामचंद्र कहते हैं कि यह उनका अब तक का सबसे अच्छा निर्णय था। जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग तकनीक से उनकी इनपुट लागत काफी कम हुई और रिटर्न को बढ़ाने में मदद मिली। हर साल उन्हें एक एकड़ भूमि से डेढ़ लाख रुपए और 18 एकड़ से 27 लाख रुपये का मुनाफा होता है।

रामचंद्र

रामचंद्र ने द बेटर इंडिया को बताया, “मेरी इनपुट लागत शून्य है। मेरे खेत की मिट्टी काफी उपजाऊ है। जिसमें अधिक पैदावार होती है और मुनाफा भी अधिक होता है। सच कहूँ तो अब मेरा इम्युनिटी सिस्टम पहले से बेहतर हुआ है और अब मैं अपने ग्राहकों को जहर नहीं खिला रहा हूँ।”

रामचंद्र के खेत में केला, हल्दी, गन्ना, अमरूद, लीची, पर्पल यम, पारंपरिक चावल की किस्में, फिंगर बाजरा, गेहूँ आदि फसलें उगायी जाती हैं।

बंजर भूमि को उपजाऊ बनाना

रामचंद्र के लहलहाते खेत

रामचंद्र का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था। वहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी खेती का कार्य होता चला आ रहा था। रामचंद्र अपनी बीकॉम डिग्री पूरी करने के बाद खुद को खेती से दूर नहीं रख पाए। 80 के दशक में उन्होंने खेती के पेशे को गंभीरता से लिया।

एक किसान परिवार में जन्म होने के नाते रामचंद्र को प्रकृति और खेती के बीच के संबंधों को गहराई से समझने का मौका मिला, जो लगभग हर किसी के लिए जरूरी होता है। प्राकृतिक खेती के बारे में जानने के बाद उनकी समझ बढ़ी। वह एक ऐसा कृषि मॉडल विकसित करना चाहते थे जिसमें प्रकृति से जुड़ा सबकुछ हो।

उन्होंने कहा, “जंगल के पेड़ों की देखभाल कोई नहीं करता और न ही कोई उन्हें सींचने जाता है। जंगल,  पेड़-पौधों को जीवन देते हैं लेकिन फल की चिंता नहीं करते हैं। मैं भी अपनी भूमि को उपजाऊ बनाने पर ध्यान देता हूँ। जमीन जितनी स्वस्थ होगी, उत्पादन उतना ही बेहतर होगा। इसके खेत में केचुओं और मिट्टी में रहने वाले जीवों की संख्या बढ़ाना बेहद जरूरी है।”

रामचंद्र ने अपने ज्ञान और समझ के आधार पर ही बंजर भूमि पर खेती की नई तकनीक शुरू करने का जोखिम उठाने का फैसला किया।

“मुझे लोगों ने इस सस्ती और बंजर भूमि को खरीदने से रोकना चाहा। लोगों का कहना था कि इससे कोई फायदा नहीं होने वाला। मेरे आगे बढ़ने का एकमात्र कारण यह था कि मैं प्रकृति की शक्ति में विश्वास करता था। इसी विश्वास के चलते मैं जोखिम उठाने के लिए तैयार था ”, उन्होंने कहा।

रामचंद्र कहते हैं, “मिट्टी में केचुओं की सबसे बड़ी भूमिका होती है। केचुआ बायोमास की अधिकता होने पर मिट्टी में तेजी से पनपता है। ये कार्बनिक पदार्थ जैसे कि सड़े गले पत्ते, मिट्टी के साथ-साथ गाय का गोबर खाते हैं। बदले में, वे हर 24 घंटे में खाद को समृद्ध बनाते हैं जिससे पौधों को सभी पोषक तत्व मिलते हैं। केचुए मिट्टी को चालते हैं और मिट्टी में एक झरझरी संरचना या सुराख बनाते हैं। मिट्टी में सुराख होने के कारण पानी को जमीन के अंदर प्रवेश करने में आसानी होती है। इससे फसल को पर्याप्त पानी मिलता है। यह लंबे समय तक हवा और नमी को बनाए रखता है जो जड़ों के लिए आवश्यक हैं।”

रामचंद्र के खेत में लगी केले की फसल

रामचंद्र ने इस चक्र को विकसित करने के लिए पहले अपनी भूमि को उपजाऊ बनाया। इसके लिए उन्होंने फसल के सभी अवशेषों और बायोमास को रिसाइकिल करके खेत को मल्च और हरी खाद से ढंक दिया। इसके बाद उन्होंने मिट्टी में जीवामृत (गाय के गोबर, गोमूत्र, पानी और गुड़ का मिश्रण) मिलाया। ये दो जैव-पदार्थ मिट्टी की उर्वरता और बैक्टीरियल एक्टिविटी को बढ़ाते हैं।

इसका इस्तेमाल करने से खरपतवार भी नष्ट हो जाते हैं। उन्होंने बताया, “मैं आमतौर पर पौधों की जड़ों को उखाड़े बिना खरपतवार को साफ करता हूँ। जमीन की सतह के नीचे की जड़ें मल्च का काम करती हैं और वे मिट्टी में रहने वाले प्राणियों के लिए भोजन का काम करती हैं। ”

रामचंद्र को प्राकृतिक खेती की इस तकनीक में गहरी आस्था है। तीन साल की कड़ी मेहनत और अनगिनत असफलताओं के बाद अंततः उन्हें कामयाबी मिली।

ज़ीरो बजट खेती कैसे शुरु की?

रामचंद्र कहते हैं कि किसी भी व्यवसाय में पहला नियम यह तय करना है कि इनपुट लागत कम से कम हो या रेवेन्यू से कम हो। इसमें कोई रहस्य नहीं है कि देश भर के कई किसान रसायनों पर बहुत अधिक निर्भर हैं जो पूरे इनपुट लागत को बढ़ाते हैं।

जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग का मकसद बाहरी चीजों से जुड़ी अधिक लागत को खत्म करना है जिससे न सिर्फ ऋण बढ़ता है बल्कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचने के साथ ही मिट्टी की उर्वरता भी कम होती है।

इसलिए रामचंद्र ने जीवामृत और मल्चिंग बनाने की प्रक्रिया पर अधिक ध्यान दिया।

जैविक खेती है भविष्य

रामचंद्र बताते हैं, “जीवामृत मिट्टी की उर्वरता और माइक्रोबियल गतिविधियों को बढ़ाता है जिससे फंगल इंफेक्शन की समस्या बहुत आसानी से दूर हो जाती है। गायों से हमें कृषि चक्र पूरा करने में मदद मिलती है। गाय घास चरने में मदद करती हैं और उनके अपशिष्ट (मूत्र और गोबर) का उपयोग बिना किसी लागत के जीवामृत बनाने के लिए किया जाता है।”

मल्चिंग के लिए वह प्लास्टिक की चादरों के बजाय मिट्टी को ढकने के लिए सूखी पत्तियों का इस्तेमाल करते हैं। मल्चिंग एक बागवानी तकनीक है जो खरपतवार को दबाती है और फसल उत्पादन में पानी को बचाती है।

उन्होंने मल्चिंग शीट पर तीन 3-4 फीट गहरे छेद बनाए और फिर बीजों को बोया। ये छेद भारी बारिश के दौरान फसलों को नुकसान से बचाते हैं। वे अतिरिक्त पानी को अवशोषित करते हैं और बदले में भूजल को रिचार्ज करते हैं।

बीज बोने के लिए रामचंद्र इंटरक्रॉपिंग विधि का इस्तेमाल करते हैं, जहाँ एक ही भूमि पर दो या अधिक पौधों को रोपा जाता है। वह ऐसे पौधे चुनते हैं जो एक दूसरे के पूरक होते हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने केले और हल्दी को एक साथ उगाने के लिए इस विधि का इस्तेमाल किया है, क्योंकि इससे फंगल संक्रमण को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। इसके अलावा, हल्दी को कम धूप की जरूरत होती है और केले के पत्तों से उन्हें छाया मिलती रहती है।

भावनगर के एक किसान वनराजसिंह गोहिल ने द बेटर इंडिया को बताया, “अलग से लगाए गए पौधों की अपेक्षा इंटरक्रॉपिंग में धूप और पानी का अधिक प्रभावी तरीके से इस्तेमाल होता है। इसके अलावा पौधों के बीच कम दूरी भी इन्हें कीड़े से बचाती है।  जीवामृत और मल्चिंग पौधों के विकास में अधिक मदद करते हैं।” जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग के जरिए गोहिल की आय सिर्फ छह महीने में दोगुनी हो गई। उनकी कहानी यहां पढ़ें।

फसलों को रोगों से बचाने के लिए रामचंद्र नीम और गोमूत्र का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा, वह ड्रिप इरिगेशन मेथड का इस्तेमाल करते हैं जिससे सीधे जड़ों को पानी मिलता है और 50 प्रतिशत पानी की बचत होती है।

प्रभाव

रामचंद्र कहते हैं कि जब से उन्होंने अपने खेत में रासायनिक छिड़काव बंद किया है, उनकी स्किन एलर्जी काफी कम हो गई है और उनकी इम्युनिटी में भी सुधार हुआ है।

रामचंद्र की कोशिश यही रहती है कि उनकी अपनी उपज की कीमत बाजार में मिलने वाले केमिकल युक्त उत्पादों के बराबर ही हो जिससे अधिक से अधिक लोग स्वस्थ अनाज खरीदें।  वह कहते हैं, “इनपुट लागत कम होने के कारण मैं अपने फसलों की कीमत कम रखता हूँ। लेकिन मौसम की स्थिति के आधार पर कभी-कभी कीमतें बढ़ानी पड़ती है।”

आय के अतिरिक्त स्रोत के रूप में, रामचंद्र वैल्यू एडेड प्रोडक्ट भी बनाते हैं जिसमें केले के चिप्स, गन्ने का रस, यम वेफर्स, हल्दी पाउडर, रतालू पुरी भजिया और टमाटर की प्यूरी शामिल हैं। अपने खेत के ठीक आगे बने आउटलेट में वे ये आइटम बेचते है। सूरत जिले में रहने वाले लोग भी होम डिलीवरी का फायदा उठा सकते हैं।

सूरत के उनके ग्राहकों में से एक मदन शाह कहते हैं कि अपने परिवार को सुरक्षित रखने के लिए थोड़ा अधिक खर्च करना खराब नहीं लगता है।

सूरत में रामचंद्र का आउटलेट

मदन कहते हैं, “रामचंद्र ने मुझे अपने खेत और तकनीकों को दिखाया। हम अभी कुछ सालों से उनके खेत से फल-सब्जी आदि ले रहे हैं और मैंने अपने स्वास्थ्य में बदलाव देखा है – अब मैं बीमार नहीं पड़ता। सही भोजन करने से बहुत फर्क पड़ सकता है। ”

रामचंद्र ने पर्यावरण और इंसानों पर रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के हानिकारक प्रभाव को काफी करीब से देखा है। लेकिन उन्हें उम्मीद है कि अधिक से अधिक किसान पर्यावरण के अनुकूल खेती की तकनीकों को अपनाएंगे और स्वस्थ भोजन पैदा करेंगे। इससे उपभोक्ताओं को लंबे समय तक स्वस्थ जीवन जीने में मदद मिलेगी।

मूल लेख- GOPI KARELIA

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