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आधी लागत पर मिट्टी और वेस्ट से बनी ये इमारतें हैं ज्यादा सस्ती और ठंडी

गुजरात के प्रसिद्ध आर्किटेक्ट, मनोज पटेल, विद्यानगर में डीसी पटेल स्कूल ऑफ़ आर्किटेक्चर के तीसरे वर्ष के छात्र थे, जब उन्हें पहली बार सस्टेनेबल आर्किटेक्चर के बारे में जाना।

हालांकि, उन्होंने इस विषय की पढ़ाई केवल कुछ सेमेस्टर में ही की थी। लेकिन, इस पूरे कॉन्सेप्ट से वह इतने प्रभावित हुए कि 2014 में अहमदाबाद के सीईपीटी यूनिवर्सिटी से उन्होंने क्लाइमेट चेंज एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट में मास्टर्स किया। लेकिन मास्टर्स करने के बाद उन्होंने इस विषय पर ज्ञान प्राप्त करने और इसे फील्ड में लागू करने के बीच एक बड़ा अंतर महसूस किया। मनोज अपने कुछ साथी आर्किटेक्ट से मिले, जो ग्रीन हाउस बनाने के लिए इको-फ्रेंडली तकनीक को लागू कर रहे थे, लेकिन वो तकनीक मनोज को ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाई।

मनोज सोचते थे कि क्यों लोग सोलर पैनल या रेन वाटर हार्वेस्टिंग मॉडल लगवाते हैं जब घर या ऑफिस बिल्डिंग बनाने के लिए वही लोग सीमेंट, कांच और संगमरमर जैसी आधुनिक निर्माण सामग्री का इस्तेमाल कर रहें हैं। उन्हें थोड़ी हैरत थी कि लोग आधुनिक अपार्टमेंट्स के साथ मिट्टी और लकड़ी जैसी टिकाऊ चीजों को क्यों नहीं जोड़ सकते हैं।


द बेटर इंडिया के साथ बात करते हुए मनोज बताते हैं, “क्योंकि घर बनाना काफी महंगा हो गया है, और ज्यादातर लोग पारंपरिक तरीके अपनाना चाहते हैं। मेरा उद्देश्य था, आधुनिक डिज़ाइन के साथ पारंपरिक तरीके और स्थानीय निर्माण सामग्री को मिलाकर इमारत बनाना। मैं बड़े पैमाने पर उत्पाद होने वाले प्रोडक्ट्स आयात नहीं करना चाहता था, इसके बजाय मैं कुछ अलग और हाथ से बनी चीजें चाहता था।”

कुछ अलग करने की चाहत के साथ, 32 वर्षीय मनोज ने 2015 में ‘मनोज पटेल डिज़ाइन स्टूडियो’ (एमपीडीएस) नाम से अपनी खुद की फर्म शुरू की। मनोज की इको-फ्रेंडली आर्किटेक्चरल फर्म आज पारंपरिक तरीकों को पुनर्जीवित कर रही है। मनोज अपार्टमेंट, रेस्तरां, ऑफिस और यहां तक कि डिस्को के निर्माण के लिए प्राकृतिक रोशनी और दोबारा इस्तेमाल करने लायक चीज़ों का उपयोग करते हैं।

उनके तकनीकों में से सबसे अलग और खास बात यह है कि वह लोकल सामान और मिट्टी के लाल टाइल्स का इस्तेमाल करते हैं। मनोज 40 प्रतिशत मिट्टी की टाइल का उपयोग करते हैं, जिससे निर्माण की लागत कम होती है। खूबसूरत दिखने के लिए वह उन्हें लहरदार और बॉक्स के आकार में डिज़ाइन करते हैं। इन टाइल्स को इमारत के सामने वाले भाग में लगाने के अलावा मनोज इनका इस्तेमाल पौधों के गमले के लिए भी करते हैं। इसमें पानी लंबे समय तक रहता है और यहां तक कि यह हवा को भी ठंडा करता है।


मिट्टी की टाइल इस्तेमाल करने के पीछे की प्रेरणा के बारे में मनोज कहते हैं, “गुजरात में छत बनाने के लिए लाल मिट्टी की टाइल्स का इस्तेमाल करना पुराने घरों की एक खास विशेषता है। जब मैंने इसपर अध्ययन किया, तो मैंने पाया कि ये गर्मी और बारिश जैसी स्थितियों का सामना करने के लिए डिज़ाइन किए गए थे। ये कीट-प्रतिरोधी और फायर प्रूफ हैं, साथ ही यह लंबे समय तक टिकने वाले भी हैं। किसी भी आर्किटेक्ट के लिए, ये विशेषताएं एक खजाने की तरह है।”

मिट्टी के टाइल्स को प्रमुख सामग्री के रूप में इस्तेमाल करने का फैसला करने से पहले मनोज ने बाजारों का भी अध्ययन किया। मनोज को यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ कि गुजरात के मोरबी जिले में मिट्टी के टाइल्स बनाने वाली 50 फीसदी फैक्ट्रियां कुछ साल पहले मांग कम होने के कारण बंद हो गई थीं। उन्होंने आगे बताया, “इस कारोबार में होने वाला घाटा कारखानों तक सीमित नहीं है, छोटे कुम्हार भी इससे प्रभावित हैं। उनकी केवल नौकरियां ही नहीं गई हैं बल्कि उनका कौशल भी खत्म हो रहा है।”
इसलिए, लाल टाइल्स का इस्तेमाल मनोज, उनके ग्राहक और कुम्हार सबके लिए फायदेमंद है।

लाल टाइल्स से लेकर दोबारा इस्तेमाल करने वाले सामान तक, आइए नज़र डालते हैं मनोज के 3 टिकाऊ और स्थायी परियोजनाओं पर

1. घर के सामने वाले भाग के लिए मिट्टी की टाइल्स

ग्राहक की मांग थी कि एक सस्टेनेबल दृष्टिकोण के साथ आधुनिक सामग्रियों का उपयोग किया जाए जो उनके बजट के भीतर हो। हालांकि मनोज खासे उत्साहित थे क्योंकि यह टाइल्स के साथ उनका पहला प्रयोग था। उन्होंने इमारत के बाहरी हिस्से में वी-आकार की ढलान वाली मिट्टी की टाइल्स का उपयोग किया।


ग्राहक को यह दिखाने से पहले मनोज के ऑफिस में इसका 50 दिनों का ट्रायल किया गया था। मौसम की स्थिति, रिसाव और टिकाऊपन की कसौटी पर यह प्रोटोटाइप सफल रहा था। यहां तक कि वाटरप्रूफ जांच के लिए उन्होंने टाइल्स को 24 घंटे के लिए पानी में भी रखा। 40 प्रतिशत टाइल्स के लिए उनकी लागत शून्य रही और बाकी के लिए 15,000 रुपये खर्च हुए। उन्होंने बताया, “हमने टूटे हुए टाइल्स का उपयोग किया, जिनमें से 20 प्रतिशत ट्रांसपोर्टेशन के दौरान क्षतिग्रस्त हुए थे।”


सूरज की रौशनी को ध्यान में रखते हुए टाइल्स की ज़िग-ज़ैग लेयरिंग की गई थी। टाइल पूरे दिन छाया प्रदान करती है और इससे तापमान भी ठंडा बना रहता है। घर के मालिक संजय गांधी कहते हैं, “हम अपने नए घर से संतुष्ट हैं क्योंकि इसमें बड़े ही रचनात्मक और जलवायु को ध्यान में रखते हुए गर्मी की परेशानी का हल निकाला गया है, जिसका सामना हम अपने पुराने घर में कर रहे थे। यह कई लोगों को आकर्षित करती है और स्थानीय लोगों के साथ-साथ कई पर्यटक भी इस अनोखे डिज़ाइन के बारे में पूछताछ करते हैं।”

2. शून्य कार्बन फुटप्रिंट के साथ रेस्तरां


वडोदरा में रहने वाले मनोज के ग्राहक अपने रेस्तरां ‘केशव कुटीर’ का निर्माण 5 साल की पट्टे पर ली गई जमीन पर करना चाहते थे, जिसमें कॉन्ट्रैक्ट समाप्त होने की संभावना भी थी। ऐसे में, इतने कम समय के भीतर एक और रेस्तरां का निर्माण काफी महंगा पड़ेगा। इसलिए उन्हें सुझाव दिया गया कि इसे आसानी से नष्ट किया जा सके और कहीं और स्थानांतरित भी किया जा सके। ग्राहक इसके लिए राज़ी तो हो गए लेकिन उन्होंने शर्त रखी कि यह आकर्षक, जीवंत, रंगीन दिखना चाहिए और वातावरण भी ठंडा होना चाहिए।


छत से आने वाली गर्मी को कम करने के लिए बेकार पड़े थर्मोकोल को इंसुलेशन के रूप में लगाया गया। इंसुलेशन की लागत काफी कम थी। 1,600 वर्ग फुट के क्षेत्र के लिए केवल 2,000 रुपये खर्च किये गए। एक डाइनैमिक लुक देने के लिए, रेस्तरां का इंटिरियर ज़िग-ज़ैग पैटर्न में किया गया। खूबसूरत दिखने के अलावा, मेटल शीट को भी स्थानांतरित कर इसे कई बार दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह, इस प्रक्रिया में कार्बन फुटप्रिंट शून्य होता है।

3. दोबारा इस्तेमाल की जाने वाली 90 प्रतिशत सामग्री से बना डिस्को


ऊपर बताए गए रेस्तरां की तरह यहां भी ग्राहक अपने डिस्को का निर्माण इस तरह करना चाहता था कि वह जीवंत भी लगे और जिसे आसानी से हटाया भी जा सके। यह उनकी सबसे चुनौतीपूर्ण प्रोजेक्ट में से एक थी, क्योंकि मनोज और उनकी टीम को दोबारा इस्तेमाल कर सकने वाले उन सामग्रियों की तलाश करनी था जो तेज़ गाने की आवाज़ और थिरकते पैरों की कंपन से ना बिखरे।

कई महीने के रीसर्च और प्रयोग के बाद मनोज कुछ वेस्ट प्रोडक्ट मिला। उन्होंने डिस्को के एंट्रेंस में  टिन के ढक्कन का इस्तेमाल किया और युवाओं को आकर्षित करने के लिए रंगों से पेंट किया। बार बनाने के लिए उन्होंने चार बैरल का इस्लेमाल किया। प्रवेश द्वार का निर्माण बेकार पड़े प्लाइवुड से किया। बैठने की व्यवस्था के लिए डंप यार्ड से 76 कार सीटें खरीदी गईं। रसोई, मॉकटेल, डीजे बूथ और बैठने की जगह के बीच डिवाइडर के तौर पर राख से बनी ईंटें लगाई गई। सजावट के लिए, उन्होंने बेकार बीयर की बोतलें, पाइप और कागज के आर्टिफिशियल फूल लगाए।

मनोज पटेल

अपने पांच साल के करियर में, मनोज ने 50 से अधिक टिकाऊ परियोजनाओं पर काम किया है और उनमें से करीब 12 में दोबारा इस्तेमाल की गई मिट्टी के टाइल्स का उपयोग किया है। इससे कई मजदूरों को रोजगार मिला है। एक अनुभवी आर्किटेक्ट के रूप में, वह ना केवल इको-फ्रेंडली तरीकों को बढ़ावा दे रहें हैं बल्कि इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि इसमें लागत कम हो जिससे ग्राहकों को भी लाभ मिले।

मनोज के अनुसार, इन प्रयोगों से इंटिरियर डिज़ाइन की लागत 50 प्रतिशत सस्ती होती है और पूरे बिल्डिंग के निर्माण की लागत में 20-30 प्रतिशत की कमी आती है। इससे टिकाऊपन, खूबसूरती, तापमान नियंत्रण सुविधाओं के साथ-साथ कम लागत भी लगती है। कौन जानता था कि इमारत निर्माण भी हमारे पर्यावरण की बेहतरी की दिशा में योगदान दे सकता है।

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मूल लेख – गोपी करेलिया

संपादन – अर्चना गुप्ता


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