एक साल पहले बुधलाडा बागवानी विभाग के अधिकारी विपेश गर्ग ने पंजाब के मानसा जिले में कीनू फल की हो रही भारी बर्बादी को रोकने के लिए एक प्रस्ताव रखा था। वह नहीं जानते थे कि उनके द्वारा सुझाए गए समाधान से एक बड़े बदलाव की शुरुआत होगी।
पंजाब में फलों का राजा माना जाने वाला फल, कीनू दो खट्टे कृषि प्रजाति (साइट्रस नोबिलिस और विलो लीफ) का मिश्रण है। देश में होने वाले कीनू उत्पादन में से करीब 24 फीसदी कीनू पंजाब में उगाए जाते हैं।
स्वास्थ से भरपूर गुणों के कारण कीनू की मांग ज़्यादा है। यह फल खनिज, विटामिन सी और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होता है। लेकिन फिर भी कीनू की खेती करने वाले किसानों को उत्पादन में नुकसान का सामना करना पड़ता है।
गर्ग बताते हैं, “औसतन, कीनू की खेती करने वाले को फसल कटाई के मौसम से पहले उपज के 40 प्रतिशत के नुकसान का सामना करना पड़ता है। इसका कारण फलों का प्राकृतिक रूप से गिर जाना है। फल पकने से पहले ही गिर जाते हैं, जिसका उपभोग नहीं किया जा सकता है।”
बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट कॉन्सेप्ट का इस्तेमाल करते हुए गर्ग ने अपने विभाग के सामने यह समाधान रखा। पहले जहां किसान ज्यादातर कीटों के डर से फलों को मिट्टी में दफना रहे थे, वहीं वे अब गिरे हुए फल का इस्तेमाल बायो एंजाइम बनाने के लिए कर रहे हैं, यह एक प्राकृतिक उर्वरक है जो एक बेहतर कीट विकर्षक की तरह कार्य करता है।
अब तक, इस परियोजना से जिले भर के पांच किसान लाभ उठा रहे हैं।
कीनू फल अपशिष्ट और गुड़ मिलाकर ऑर्गेनिक रूप से तैयार किया गया यह बायो-एंजाइम का मिश्रण, महंगे और जहरीले केमिकल खादों पर किसानों की निर्भरता को भी कम कर रहा है।
इसके अलावा, बायो एंजाइमों में मिट्टी के पोषक चक्र को बहाल करने, जड़ बढ़ाव और पौधों के बढ़ने और बायोमास को बढ़ाने की क्षमता है। कुल मिलकार यह सबके लिए ही एक बेहतर समाधान है।
समस्या का आकलन करना
गर्ग ने द बेटर इंडिया को बताया, “जब बेकार कीनू गलने लगता है तो यह पर्यावरण को प्रदूषित करता है, आगे बीमारियों और रोगजनकों को आमंत्रित करता है।”
इसलिए, इनका समय पर निपटान करना महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह कीटों के माध्यम से स्वस्थ फलों को संक्रमित कर सकता है। ज़्यादातर किसान इसे मिट्टी में दफना देते हैं।
इसके अलावा, एक वेक्टर-संचरित रोगजनक के कारण, कीनू हुआंगबेलिंग (पहले साइट्रस ग्रीनिंग बीमारी के रूप में जाना जाता है) के लिए भी अतिसंवेदनशील है।
बीमारी से लड़ने के लिए, किसान अक्सर केमिकल खाद का उपयोग करते हैं जो मिट्टी की उर्वरता को और कम कर देते हैं। इसका प्रभाव केवल इतना ही नहीं होता है। उपभोक्ता के रूप में, हम अंततः वही केमिकल-संक्रमित फल खाते हैं।
कीटनाशकों और बर्बाद होने जैसी दोनों समस्याओं का सामना करने के लिए, गर्ग ने समाधान सुझाया है जिसमें इन फलों का इस्तेमाल प्राकृतिक खाद और क्लीनर बनाने के लिए किया जा सकता है।
कैसे तैयार किया जाता है बायो एंजाइम
इसके लिए सभी किसानों को एक ड्रम में पेड़ से गिरे हुए फलों को डालना है और इसमें पानी और गुड़ मिलाना है।
गर्ग कहते हैं, “1: 3: 10 का अनुपात होना चाहिए। उदाहरण के लिए 30 किलो कीनू, 10 किलो गुड़ और 100 लीटर पानी। मिश्रण को एक ढक्कन से बंद कर दें। “
किसानों के लिए चीजों को आसान बनाने के लिए, गर्ग ने इसे तैयार करने के दो तरीके बताए हैं।
बायो एंजाइम को तैयार करने के लिए पहली प्रक्रिया में लगभग 45 दिन लगते हैं, जिसमें किसान को 15 दिनों के लिए हर दिन ढक्कन खोलना पड़ता है और फिर बाद में सप्ताह में एक बार ढक्कन खोलते हैं। हर बार ढक्कन खोलने पर, किसान को मिश्रण को मिलाना पड़ता है।
90-दिनों की प्रक्रिया में, किसानों को किण्वन के लिए तीन महीने समर्पित करने होंगे। गर्ग बताते हैं “पहले महीने में हर दिन ढक्कन खोलना होगा, फिर हफ्ते में दो बार और अंतिम दौर में, हफ्ते में केवल एक बार ढक्कन खोलना होगा।”
प्रभाव को समझना
फरीदकोट के करीब माल सिंह वाला गाँव के कुलदीप सिंह कुछ महीने पहले बयो एंजाइम परियोजना में शामिल हुए हैं।
उनकी 11 एकड़ की पैतृक ज़मीन पर, जामुन और अन्य फलों के पेड़ों के साथ 2,000 से अधिक कीनू के पेड़ हैं, जो परिवार दशकों से उगा रही है।
सिंह ने पहले पेड़ से गिरे हुए जामुन के फल से 10 लीटर बायो-एंजाइम तैयार किया और प्रयोग के तौर पर अपने 2 एकड़ के मिर्च के खेतों में इसे छिड़का।
परिणाम उम्मीदों से परे थे। सिंह ने बताया, “दिखने में मिर्च ताजी थी और उनका रंग चमकीला हो गया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात, मिर्च तेजी से बढ़ने लगी। फलों की बर्बादी की समस्या के इस समाधान ने मेरी आँखों खोल दी और मुझे पता चला कि केमिकल के इस्तेमाल के बिना भोजन उगाना संभव है।”
अच्छे परिणाम को देखते हुए, वर्तमान में सिंह 400 लीटर बायो एंजाइम तैयार कर रहे हैं। वह न केवल अपने खेतों में इसका इस्तेमाल करेंगे, बल्कि इसे बेचेंगे भी, जिससे उन्हें अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होगा।
मुस्कुराते हुए सिंह बताते हैं, “मैं हानिकारक कीटों को मारने वाले दो लीटर कीटनाशक खरीदने के लिए लगभग 5,000 रुपये खर्च करता हूं। चालीस दिन पहले, मैंने एक ड्रम में अपने सभी बेकार कीनू को जमा किया। अगले महीने, इससे बने बायो-एंजाइम का छिड़काव मैं अपने पूरे खेत में करूंगा।”
एक अन्य उदाहरण रिटायर्ड कर्नल रशनील चहल का है जो नरिंदरपुरा गांव के रहने वाले हैं। 23 वर्षों तक भारतीय सेना की सेवा करने के बाद, वह गांव वापस आ गए और अपने 15 एकड़ के बाग पर खेती करना शुरू किया।
उनके खेत में 1,800 कीनू के पेड़ हैं और हर मौसम में उनके फलों का कुछ हिस्सा बर्बाद हो जाता है। इन बर्बाद फलों को मिट्टी में दफनाते हुए वह परेशान हो चुके थे। जब बागवानी विभाग ने उनसे संपर्क किया तो चहल यह प्रयोग करने के लिए फौरन राजी हो गए।
उन्होंने कहा, “मैं वर्तमान में 200 लीटर बायो एंजाइम तैयार कर रहा हूं। मुझे उम्मीद है कि परिणाम अच्छे ही होंगे।”
चहल और सिंह जैसे किसानों की सफलता पर भरोसा करते हुए बागवानी विभाग अब अधिक किसानों को इसमें शामिल करने की योजना बना रहा है ताकि खेतों की उपज में कम नुकसान हो और भोजन उगाने के लिए कम से कम केमिकल का इस्तेमाल हो।
इसी बात की पुष्टि करते हुए, पंजाब के हॉर्टिकल्चर विभाग के डॉयरेक्टर, शैलेंद्र कौर ने द बेटर इंडिया को बताया, “हम इसे बढ़ावा देने जा रहे हैं ताकि यह भ्रम दूर किया जा सके कि भोजन उगाने के लिए विदेशी कीटाणुनाशक आवश्यक हैं। अपनी जड़ों तक वापस लौटने का यह एक सही समय है और यह एक बहुत व्यवहार्य समाधान है।”
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यह कोई नई बात नहीं है कि पंजाब में किसान हानिकारक कीटनाशकों के उपयोग के चक्र में फंस गए हैं। उस पृष्ठभूमि के खिलाफ, यह पर्यावरण के अनुकूल समाधान न केवल पंजाब में बल्कि पूरे भारत में अच्छी कृषि आदतों को विकसित कर सकता है।
इसके बारे में अधिक जानने के लिए, विपेश गर्ग से यहां संपर्क करें।