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बेकार पराली से उगाये मशरूम, कमाई बढ़कर हो गयी 20 लाख

ओडिशा में बारगढ़ जिले के गोड़भगा में रहने वाली 38 वर्षीया जयंती प्रधान एक प्रगतिशील किसान हैं। उन्होंने धान और गेहूं की सामान्य खेती को छोड़कर, ‘एकीकृत खेती’ के मॉडल को अपनाया है, जिससे उन्हें अच्छी आमदनी हो रही है। इलाके में उनके खेतों को ‘गोपाल बायोटेक एग्रो फार्म’ के नाम से जाना जाता है। द बेटर इंडिया से बात करते हुए जयंती ने अपने सफर के बारे में बताया। जयंती का कहना है कि उनके पति, बीरेंद्र प्रधान और दूसरे सदस्य भी फार्म को आगे बढ़ाने में जुटे हैं। 

उन्होंने कहा, “मैं किसान परिवार से हूँ और बचपन में मैंने दादाजी को खेती के साथ पशुपालन करते हुए भी देखा था। लेकिन, पिताजी चाहते थे कि मैं खूब पढूं और जीवन में कुछ अच्छा करूँ। इसलिए, मैंने बॉटनी विषय से ग्रैजुएशन की और इसके बाद, ‘ऑनट्रप्रन्योर मैनेजमेंट’ में एमबीए की डिग्री की। लेकिन एमबीए की डिग्री के दौरान, मैं स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र से जुड़ गयी। क्योंकि, मैं कृषि क्षेत्र में आगे बढ़कर कुछ ऐसा करना चाहती थी, जिससे न सिर्फ मेरी बल्कि हमारे आसपास के लोगों की भी उन्नति हो।” 

लेकिन, जयंती सामान्य खेती में आगे नहीं बढ़ना चाहती थीं। वह कहती हैं कि हर किसी के पास इतनी जमीन नहीं होती है कि वे बड़े स्तर पर गेहूं, धान की खेती कर सकें। इसलिए उन्होंने ऐसे विकल्प तलाशे, जिससे किसान और महिलाएं कम से कम लागत और कम जगह में खेती कर पाएं। उनकी यह तलाश ‘मशरूम’ पर खत्म हुई और उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र से मशरूम की खेती और उनके बीज तैयार करने की ट्रेनिंग ली। इस तरह, उन्होंने साल 2003 में मशरूम की खेती शुरू कर दी। 

मशरूम से शुरू किया काम: 

जयंती आगे बताती हैं कि उनके इलाके में पानी की अच्छी उपलब्धता है, इसलिए वहां धान की खेती बड़े पैमाने पर होती है। धान की खेती से बची पुआल/पराली को किसान जला देते हैं, जिस वजह से बहुत प्रदूषण होता है। इसलिए जब उन्होंने मशरूम उगाने शुरू किये, तो इन्हीं पुआलों का इस्तेमाल किया। धान की पुआल के बेड बनाकर जो मशरूम उगाई जाती है, उसे ‘पैरा मशरूम’ (पैडी स्ट्रॉ या चायनीज़ मशरूम) कहते हैं।

बहुत से किसान जहां ओएस्टर और बटन मशरूम उगाते हैं, वहां जयंती ने ‘पैडी स्ट्रॉ मशरूम’ उगाने की शुरुआत की। ताकि, उनकी लागत कम हो और पर्यावरण संरक्षण भी हो सके। धान के किसानों के लिए जो पुआल बेकार कचरे के सामान थी, वह जयंती के लिए मशरूम उगाने का मुफ्त साधन बन गई। मशरूम की खेती तो उन्होंने शुरू कर दी, लेकिन इसकी मार्केटिंग करना कोई आसान काम नहीं था। 

उन्होंने लगभग छह-सात महीने लोगों को मुफ्त में मशरूम बांटी। जिससे उनके अधिक ग्राहक बनने लगे और स्थानीय बाजारों में उनके मशरूम की मांग बढ़ गयी। मशरूम की मार्केटिंग करके-करते, वह बहुत से किसानों और महिलाओं से भी जुड़ गईं। जयंती ने उन सभी को मशरूम की खेती के बारे में बताया और ट्रेनिंग दी।उन्होंने कहा, “मैंने छोटे स्तर पर शुरुआत की। मशरूम की खेती से जो भी कमाई होने लगी, उसे मैं अपना काम बढ़ाने के लिए इन्वेस्ट करती रही। मुझे कृषि विज्ञान केंद्र का साथ मिला और मैं गाँव-गाँव जाकर भी लोगों को मशरूम की ट्रेनिंग देने लगी। हमने अलग-अलग गाँवों में, 100 से ज्यादा महिला-समूह बनाए। प्रत्येक समूह में आठ से दस  महिलायें रहती थीं।” 

वह आगे बताती हैं कि तीन-चार बार मशरूम की फसल लेने के बाद, पुआल का रंग एकदम काला हो जाता है। ज्यादातर मशरूम किसान पुआल को फेंक देते हैं। लेकिन जयंती ने पुआल को फेंकने की बजाय, इसका इस्तेमाल वर्मीकंपोस्ट यूनिट में किया। केंचुआ खाद बनाने के लिए, भूसी/पुआल की जरूरत होती है। लेकिन जयंती ने इसके लिए, खेती के बाद बचने वाले पुआल को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।

उन्होंने कहा, “किसानों और महिलाओं को मशरूम की ट्रेनिंग देने के साथ-साथ, हमने उन्हें केंचुआ खाद तथा मशरूम के खाद्य उत्पाद बनाने और पशुपालन की भी ट्रेनिंग दी है। हमारे पास सिर्फ अपने जिले से ही नहीं बल्कि दूसरे जिलों से भी किसान आते हैं। हमारा अपना एक ट्रेनिंग सेंटर है, जिसमें एक बार में 50 लोग रुककर, ट्रेनिंग ले सकते हैं। इस ट्रेनिंग सेंटर को तैयार करने के लिए हमें ‘नेशनल हॉर्टिकल्चर मिशन’ से मदद मिली थी। यहां पर हमने कम से कम 10 हजार लोगों को ट्रेनिंग दी है, जिनमें से लगभग पांच हजार लोग मशरूम और दूसरे कामों में आगे बढ़ रहे हैं।”

जयंती से ट्रेनिंग हासिल करने वाली महिला किसान, तरुलता पटेल कहती हैं, “मैंने जयंती जी से साल 2013 में मशरूम की खेती की ट्रेनिंग ली थी। उनसे ट्रेनिंग लेकर मैंने ‘पैरा मशरूम’ और ओएस्टर मशरुम की खेती शुरू की। मैंने अपने घर के बाहर खाली पड़ी जमीन पर ही सेट-अप करके काम शुरू किया था। मशरूम से मैं सालाना लगभग पांच लाख रुपए तक की कमाई कर लेती हूँ।”

‘एकीकृत खेती’ मॉडल: 

मशरूम की खेती में सफलता हासिल करने के बाद, जयंती ने ‘एकीकृत मॉडल’ पर काम करना शुरू किया। 2008 में उनकी शादी, कालाहांडी के बीरेंद्र प्रधान से हुई, जो एक सरकारी नौकरी करते थे। लेकिन, 2013 में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर कृषि की राह अपना ली। बीरेंद्र बताते हैं, “मैं खुद भी किसान परिवार से हूँ। मैंने MBA किया है और ‘टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज, मुंबई’ से ‘सोशल वेलफेयर’ में भी एक कोर्स किया है। इसके बाद, मैंने कई सामाजिक संगठनों के साथ काम किया और फिर मुझे जिला ग्रामीण विकास एजेंसी (DRDA) में सरकारी नौकरी मिली। लेकिन, अपनी जमीन से हमेशा मेरा जुड़ाव रहा और जयंती के आने के बाद, मुझे यह महसूस हुआ कि खेती में ही आगे बढ़ा जाए।” 

फिलहाल, जयंती और बीरेंद्र बारगढ़ और कालाहांडी, दोनों जगह काम कर रहे हैं। वह कहते हैं, “बारगढ़ में हमारा मशरूम फार्म, ट्रेनिंग सेंटर, वर्मीकम्पोस्टिंग यूनिट और पौधों की नर्सरी का सेटअप है। वहीं, कालाहांडी में हमने पांच एकड़ जमीन पर तालाब खुदवाया हुआ है। जिसमें हम केतला और रोहू जैसी मछलियों को पालते हैं। हमने दो साल पहले ही मछली पालन करना शुरू किया है। इसके अलावा, हम मुर्गी पालन, बत्तख पालन, और बकरी पालन भी करते हैं।” 

बीरेंद्र कहते हैं कि किसानों को अपने इलाके को ध्यान में रखकर खेती करनी चाहिए। जैसे- कुछ किसान मुर्गीपालन के साथ-साथ बत्तख पालन भी कर रहे हैं, क्योंकि उनके इलाके में बत्तख के अंडों की अच्छी बिक्री होती है। 

वह बताते हैं कि उनके पास एक हजार बत्तख हैं, जिनसे वह प्रतिदिन तीन हजार रुपए की कमाई करते हैं। इसके अलावा, वह मौसमी सब्जियों और फूलों की जैविक खेती भी कर रहे हैं। वह लगभग छह-सात एकड़ जमीन पर गेंदा, गुलाब, टमाटर, मिर्च, बीन्स, कद्दू, मोरिंगा जैसी फसलें भी उगाते हैं। उन्होंने पिछले साल एक एकड़ गेंदा की खेती से लगभग 80 हजार रुपए की कमाई की थी।

कुछ अलग है इनका ट्रेनिंग प्रोग्राम: 

इस दंपति ने आगे बताया कि ट्रेनिंग प्रोग्राम में वे लोगों को सिर्फ मशरूम उगाना या वर्मीकंपोस्ट बनाना नहीं सिखाते हैं। बल्कि उनका उद्देश्य लोगों को ‘कृषि उद्यमी’ बनाना है। उन्होंने कहा, “जो लोग हमारे पास ट्रेनिंग के लिए आते हैं, उन्हें तकनीक सिखाने के साथ-साथ, हम अपना खुद का ब्रांड तैयार करना और मार्केटिंग करना भी सिखाते हैं। ट्रेनिंग के बाद भी हम उनसे संपर्क में रहते हैं। अगर उन्हें अपना काम शुरू करने में कोई परेशानी आती है, तो हम उनकी मदद करते हैं।” 

बात ट्रेनिंग प्रोग्राम की फीस की करें, तो किसानों को ट्रेनिंग के लिए रुकना पड़ता है। इसलिए, वे उनके रहने और खाने के लिए एक न्यूनतम फीस लेते हैं। जयंती कहती हैं, “हम फीस भी सिर्फ उन्हीं से लेते हैं, जो आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। लेकिन अगर कोई किसान भाई या महिला, फीस नहीं जुटा सकते हैं, लेकिन कुछ सीखकर अपना काम शुरू करना चाहते हैं, तो हम उन्हें मुफ्त में ट्रेनिंग देते हैं। साथ ही, उनकी आगे बढ़ने में भी पूरी मदद करते हैं। लेकिन यह सिर्फ ऐसे लोगों के लिए ही है, जो सही मायनों में इस क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं।” 

उन्होंने आगे कहा कि मशरूम की खेती के अलावा, वह मशरूम की प्रोसेसिंग करके पापड़, अचार, बड़ी और पाउडर जैसे खाद्य उत्पाद भी बनाती हैं। लेकिन उन्होंने इन्हें अलग से कोई ब्रांड नाम नहीं दिया हुआ है, क्योंकि ये खाद्य उत्पाद सिर्फ स्थानीय लोगों को ही बेचे जाते हैं। वह अपने खाद्य उत्पादों की कोई ऑनलाइन मार्केटिंग या बिक्री नहीं करती हैं। 

अपने इस फार्म मॉडल से जयंती और उनके परिवार ने लगभग 40 लोगों को रोजगार दिया हुआ है। साथ ही, उनका सालाना टर्नओवर 20 लाख रुपए से ज्यादा है। जयंती को कृषि क्षेत्र में उनके योगदान के लिए बहुत से पुरस्कार और सम्मान भी मिले हैं। वह बताती हैं कि उन्हें कृषि विज्ञान केंद्र से ‘बेस्ट मशरूम फार्मर’ का सम्मान मिला हुआ है। इसके अलावा, उन्हें थाईलैंड में अंतरराष्ट्रीय संगठन, ‘फ़ूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन ‘ द्वारा भी सम्मानित किया गया है। उन्हें नीति आयोग द्वारा ‘विमन ट्रांसफॉर्मिंग अवॉर्ड 2019‘ से भी नवाजा गया है।

जयंती और बीरेंद्र कहते हैं कि उनका उद्देश्य, ज्यादा से ज्यादा ग्रामीण किसानों और महिलाओं की आय दुगुनी करने में मदद करना है। इसके लिए, वे अपने स्तर पर काम भी कर रहे हैं। जयंती और उनके पूरे परिवार की सोच व कार्य काबिल-ए-तारीफ हैं। हमें उम्मीद है कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनसे प्रेरणा लेंगे।  

अगर आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं, तो 9692060536 पर कॉल कर सकते हैं। 

संपादन- जी एन झा

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