मध्यप्रदेश के झबुआ जिले में कम बारिश और सूखे की वजह बहुत से किसानों ने खेती छोड़कर शहरों का रुख कर लिया। शहरों में जाकर वे सभी दिहाड़ी-मजदूरी करने लगे ताकि अपने घर-परिवार का पेट पाल सकें। ऐसे ही एक किसान हैं रमेश बरिया। लेकिन उनकी कहानी कुछ अलग है। वह शहर से लौटकर फिर गाँव आ गए और खेती की दुनिया में एक नया प्रयोग कर डाला।
झबुआ जिले के रोटला गाँव के रमेश बरिया भी दूसरे किसानों की तरह ही परेशानियों से जूझ रहे थे। जब खेतों में कुछ नहीं हो रहा था तो उन्होंने गुजरात और राजस्थान में जाकर दिहाड़ी-मजदूरी की।
वह बताते हैं, “मुझे किसी भी तरह अपने परिवार का पेट पालना था और ज़मीन में कुछ नहीं हो रहा था। इसलिए मुझे जो भी काम मिलता मैं करता था ताकि परिवार के लोग भूख से न मरे।”
लेकिन रमेश कुछ समय बाद अपने गाँव लौट आए क्योंकि उन्हें बाहर भी कोई खास काम नहीं मिल रहा था। वैसे तो बहुत से किसानों की कहानी यही है लेकिन रमेश की कहानी थोड़ी अलग है। क्योंकि उन्होंने हर संभव मेहनत करके अपनी परेशानियों का हल ढूंढा- एक अनोखा ड्रिप इरीगेशन सिस्टम, जिससे न सिर्फ उन्हें कम पानी में अच्छी उपज मिली बल्कि यह कचरे को फिर से इस्तेमाल करने का ज़रिया भी बन गया।
एक वक़्त था जब रमेश कुछ खास नहीं कमा पाते थे लेकिन इस सिस्टम को लगाने के बाद पहले ही साल में उन्हें 25 हज़ार रुपये की कमाई हुई। इसके बाद, वह अपने क्षेत्र में बदलाव का उदहारण बन गए। उनके बदलाव का यह सफ़र झाबुआ के कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के साथ शुरू हुआ था।
हुई नई शुरूआत:
साल 2009 में झाबुआ में केवीके के अंतर्गत किसानों की आय बढ़ाने के लिए नेशनल एग्रीकल्चर इनोवेशन सब प्रोजेक्ट शुरू हुआ था। उनके इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम का लक्ष्य बारिश पर आधारित ग्रामीण क्षेत्रों की आजीविका बढ़ाना था। रमेश ने इस योजना के तहत कृषि वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में 0.1 हेक्टेयर से भी कम क्षेत्र में सब्जियां उगाना शुरू किया। साल 2012 में उन्होंने करेला और तोरी के बीज अपनी ज़मीन पर बोए।
रमेश आगे बताते हैं, “उसी समय के आस-पास मुझे पपीता किसान बलराम पाटीदार के खेत पर जाने का मौका मिला। उनके पूरे खेत में हरे-भरे स्वस्थ पेड़ थे। उन्होंने हमसे कहा कि हम फल तोड़कर टेस्ट भी कर सकते हैं। बाकी किसान तो कुछ समय बाद केवीके गाइड के साथ अगली जगह चले गए। पर मैं वहीं हैरान खेत में खड़ा रहा। मुझे देखकर बलराम जी ने मुझसे पूछा कि मैं खामोश क्यों हूँ? मैंने उन्हें अपनी हालत के बारे में बताया। तब उन्होंने मुझे अपना मिट्टी के घड़ों से बनाया हुआ ड्रिप इरीगेशन सिस्टम दिखाया। बाद में कृषि वैज्ञानिकों ने मुझे भी सेलाइन की बोतलों का इस्तेमाल करके ड्रिप इरीगेशन सिस्टम बनाने के लिए प्रोत्साहित किया।”
उस वक़्त रमेश इतने ज्यादा मिट्टी के घड़े अपने खेत के लिए नहीं खरीद सकते थे। एक तो मिट्टी के घड़े टूट सकते थे और इतने ज्यादा घड़े खरीदना रमेश के लिए बहुत बड़ी बात थी। इसलिए उन्होंने सेलाइन की बोतलों से अपना DIY ड्रिप इरीगेशन सिस्टम बनाया। उन्होंने कहा, “अस्पताल में ग्लूकोज की एक बोतल भी मरते हुए आदमी की जान बचा सकती है तो फिर वही बोतल मेरी मरती हुई फसल को क्यों नहीं बचा सकती? यह आईडिया सही था और इसलिए मैंने आस-पास पता किया और 20 रुपये प्रति किलो के हिसाब से 6 किलो (350 बोतल) प्लास्टिक की ग्लूकोज बोतल खरीदीं।”
रमेश का यह तरीका सस्ता और कारगर साबित हुआ। लेकिन इस सिस्टम को लगाने और पानी आदि भरने में समय के साथ काफी मेहनत भी लगती है। लेकिन रमेश हर मेहनत करने को तैयार थे।
कैसे बनाया ड्रिप इरीगेशन सिस्टम:
सबसे पहले हर एक सब्ज़ी के पेड़ के पास एक लकड़ी का डंडा लगाया गया। फिर ग्लूकोज की बोतल के निचले तले को काट दिया। अब इस बोतल को उल्टा करके लकड़ी के डंडे पर लगाया। बोतल के निचले भाग को ऊपर की तरफ रखा, जिससे पानी डाला जाता है। नीचे की तरफ बोतल के मुंह पर जो प्लास्टिक की ट्यूब लगी होती है, उसे नीचे ज़मीन में पेड़ की ज़ड के पास लगाया गया। इससे पानी सीधा जड़ों में ही जाता है।
रमेश को अब खेत में सीधा पानी देने की ज़रूरत नहीं है। वह बाद इन बोतलों में पानी डालते हैं और ट्यूब की मदद से पौधों की जड़ों को पानी मिलता है। पानी धीरे-धीरे जड़ों में जाता है इसलिए काफी समय तक मिट्टी में नमी बनी रहती है और पानी की बिल्कुल बर्बादी नहीं होती।
रमेश का पूरा परिवार इस काम में उनकी मदद करता है। सुबह सभी बोतलों में पानी भरा जाता है। सबसे पहले दो ड्रम में हैंडपंप या फिर कुएं से पानी भरा जाता है और फिर इसमें से बोतलों में। सुबह के बाद फिर शाम में एक बार पानी भरा जाता है। इस तरह हर दिन उनकी फसलों को दो लीटर पानी मिलता है। इस पूरे सिस्टम पर रमेश ने मुश्किल से 500 रुपये खर्च किए और कुछ ही महीनों में उन्होंने अपनी फसल से 25 हज़ार रुपये कमा लिए।
ICAR की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस तरह के सिस्टम से रमेश जैसे किसानों को एक मौसम में प्रति हेक्टेयर 1.5 लाख रुपये से 1.7 लाख रुपये तक का फायदा हो सकता है। रमेश की मदद और मार्गदर्शन से इलाके के और भी किसान इस तरीके को अपना रहे हैं। उनके प्रयासों को मध्यप्रदेश सरकार के जिला प्रशासन और कृषि मंत्रालय ने भी सराहा है और उन्हें दस हज़ार रुपये की प्रोत्साहन राशि से सम्मानित किया। इसके बाद, आने वाले सालों में केवीके की मदद से उनके खेतों में मुफ्त में ड्रिप इरीगेशन सिस्टम लगाया गया।
“एक वक़्त था जब मैं कर्ज में डूबा हुआ था और दिन में 5 रुपये भी नहीं कमाता था। लेकिन अब मैं किसानी के ज़रिए साल में 2 लाख रुपये तक कमा लेता हूँ। मेरे तीन बेटे और एक बेटी है और मैं बहुत खुश हूँ क्योंकि अब मैं उन्हें एक बेहतर भविष्य दे सकता हूँ,” उन्होंने अंत में कहा।
द बेटर इंडिया रमेश जैसे जुझारू किसान के जज्बे को सलाम करता है।
यह भी पढ़ें: सेना में रहते हुए इकट्ठे किए पूरे देश से बीज, हर राज्य की सब्ज़ियां मिलेंगी इनके खेत में