हम सभी जानते हैं कि हमारा भारत असल में कृषि प्रधान देश है। देश आज भी किसानों की वजह से जाना जाता है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि खेतीबाड़ी में किसानों को आए दिन संघर्ष और तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है। किसानों की जगह यदि कोई और हो तो इन मुसीबतों से त्रस्त होकर खेती ही छोड़ दे, लेकिन हमारे अन्नदाता किसान हैं कि जुटे रहते हैं, डटे रहते हैं और आख़िरकार अपनी परेशानियों पर जीत हासिल कर लेते हैं।
यह कहानी भी एक ऐसे ही प्रगतिशील किसान जितेंद्र मलिक की है, जिन्होंने लाख असुविधाओं के बावजूद भी खेती में मन रमाए रखा और अंततः कामयाबी को गले लगाया।
‛ग्वार हब’ कहलाने वाले हरियाणा के पानीपत जिले के सींख गाँव में रहने वाले जितेंद्र मलिक बताते हैं, “मैंने 1995 में गाँव में सफेद बटन मशरूम की खेती शुरू की। दस साल तक तो जैसे-तैसे मशरूम की उपज लेता रहा, मगर मुझे खेती के इस काम में कोई उत्साह नज़र नहीं आ रहा था। मेरी परेशानी का सबब यह था कि मुझे हर रोज लेबर की समस्या पेश आ रही थी। मन इतना उठ गया था कि मैंने मशरूम की खेती से ही तौबा करने तक की सोच ली थी।”
लेकिन उनकी एक सोच यह भी थी कि यदि खेती से नाता तोड़ लूंगा तो करूंगा क्या? इसी सकारात्मक सोच के बलबूते उन्होंने ‛खुम्बी कंपोस्ट मिक्सचर मशीन’ बनाने की सोची। शुरुआती चरण में मशीन बनाने के बाद इस मशीन को ट्रैक्टर के पीछे जोड़कर ट्रायल लिया तो मन माफ़िक़ सफलता नहीं मिली। एक बार फिर से वह उन्हीं तकलीफ़ों के साथ बड़े भारी और बेमन से खेती में जुट गए पर अंदर ही अंदर कसक खाए जा रही थी कि मुझे कामयाब होना है।
शुरू से ही मन में मशीन निर्माण की चाह रही
नवाचार पसंद किसान जितेंद्र के मन में शुरू से ही कुछ क्रिएटिव करने की सोच रही थी। पढ़ाई के दौरान उनकी रुचि खेतीबाड़ी के कामों में कम ही थी, पढ़ाई में भी उनका मन कुछ खास लगा नहीं। अंततः दसवीं क्लास के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ ही दी।
“बचपन से ही मन में इच्छा थी कि खेतीबाड़ी में आने वाली समस्याओं के निवारण के लिए अपनी सूझबूझ का इस्तेमाल कर कोई ऐसी मशीन बनाऊं ताकि मेरे ही समान पीड़ित किसान भाइयों की कुछ मदद हो सके,” जितेन्द्र बताते हैं।
एक घटना ने बदल दी जीवन की दिशा
बात 2008 की है। एक दिन मशरूम उगाने के लिए उन्होंने तूड़ा भिगोया। उस दिन 4-5 लेबर को छोड़कर बाकी की सारी लेबर छुट्टी पर चली गई। इस पर जितेंद्र को तूड़ा खराब होने का अंदेशा सताने लगा। एक बार तो उन्हें ऐसा लगा कि जैसे आज तो मशरूम हाथ से गई, अब मशरूम उगाई भी न जा सकेगी। लेबर की दिन रात की समस्या के चलते उनका मन्न खिन्नता से भर गया। फिर वही ख्याल सताने लगा कि ऐसे कैसे होगी खेती? इस बार बुरी तरह से दु:खी होने के बाद और रोज की परेशानियों से पीछा छुड़वाने के उद्देश्य से एक बार फिर मन में मशरूम की मशीन बनाने का विचार हो आया।
इस बार उनके भाई साहब ने उन्हें हिम्मत बंधाई। मशीन बनाते वक़्त उनके मन में यही विचार चल रहे थे कि फसल तो खराब हो ही रही है, यदि इस बीच सफलता हाथ लग गई तो आनन्द ही आ जाएगा और यदि सफलता नहीं मिली तब भी फसल तो बर्बाद हो ही रही है।
“एक बात जो मुझे भीतर से मोटिवेट कर रही थी, यह थी कि कामयाबी मिल जाने पर भविष्य में न सिर्फ मुझे बल्कि मेरे जैसे ही कई किसान भाइयों को भी इस नवाचार से फायदा मिलना शुरू हो जाएगा,” वे बताते हैं।
भाई साहब द्वारा हिम्मत बंधाने पर मशीन निर्माण से जुड़े सभी उपकरणों को उन्होंने 15 दिन के अंदर ही जुटा लिया। मशीन तैयार की और ट्रायल लिया, इस बार किस्मत मेहरबान थी, सब कुछ सही हुआ। मशीन उस साल भरपूर इस्तेमाल की गई। अगले बरस उन्होंने उसमें कुछ मामूली बदलाव किए, जो आज तक कायम हैं। इसके निर्माण में 2 लाख रुपए खर्च हुए।
इस तरह काम करती है मशीन
जितेंद्र ने इस मशीन को ‛कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ नाम दिया है। खेती से जुड़े होने के कारण उनको यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई कि उन्नत उपज के लिए उन्नत किस्म की कंपोस्ट का बहुत बड़ा योगदान होता है। यही बात उनके दिमाग में तब भी रही जब वे इस मशीन को बना रहे थे।
यह मशीन खाद डालने पर पड़ी हुई सभी गांठों को खोल देती है। इन गांठों को तोड़ने के लिए छत में एक जाली लगाई गई है जिसके सम्पर्क में आने से कंपोस्ट की गांठें भी टूट जाती हैं। यह अंदरूनी परत को बाहर तथा बाहरी परत को अंदर की तरफ धकेलने का भी काम करती है, जिससे अमोनिया की निकासी में बहुत सहायता मिलती है।
इस मशीन से क्वालिटी कंपोस्ट तैयार होता है। मशीन के चलते लेबर भी कम हुई है और उत्पादन भी बढ़ गया है। यह अकेली मशीन 50 लेबर के बराबर का काम एक दिन में कर सकती है। मशीन न होने की वजह से पहले 15 लेबर मिलकर 2000 मण भूसे का कंपोस्ट तैयार करते थे, अब 15 लेबर मिलकर 6000 मण भूसे का कंपोस्ट तैयार कर देते हैं। चूंकि खेती में लेबर से ही अधिक खर्च आता है, इससे न सिर्फ पैदावार बढ़ेगी बल्कि ख़र्च भी कम होगा। जो काम पहले 40-50 लेबर से होता था, वह अब मात्र 10 लेबर में ही हो जाता है।
इस मशीन द्वारा मात्र 60 मिनट में 500 से 600 मण यानी 300 क्विंटल के करीब कंपोस्ट बनती है। शुरू में कंपोस्ट पूरी तरह भीगता नहीं था, पर अब पाइप चलाने पर फंवारे से पानी मिल जाता है। मशीन को चलाना भी बड़ा ही आसान है। यह बिजली और डीजल दोनों से चल सकती है।
जितेंद्र ने बीते सालों में एक और मशीन बनाई, जो सवा 3 लाख की पड़ी। पहले वाली मशीन तैयार कंपोस्ट को सीधा एक ही लाइन में रखती जाती थी। नवनिर्मित मशीन मनचाही जगह दाएं-बाएं रखती है, ट्रॉली में भी लोड कर सकती है, ताकि दूसरी जगह ले जाया जा सके। नवनिर्मित मशीन जेसीबी की तरह का काम करती है।
बड़े मंचों पर सम्मानित हुए हैं मलिक
संघर्ष से गुजरकर जीतने वालों का यह दुनिया सम्मान करती आई है। अपने नवाचारों के लिए जितेंद्र को भी अब तक कई मान-सम्मान भी मिल चुके हैं। इसमें ‛राष्ट्रीय फार्म इन्नोवेटर मीट’ 2010 में आईसीएआर, हरियाणा के चौधरी चरणसिंह कृषि विश्वविद्यालय, सोलन के मशरूम निदेशालय, नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन सहित तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी उन्हें ‛कंपोस्ट टर्निंग मशीन’ के निर्माण के लिए 3 लाख रुपए का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया है।
जितेंद्र का यह इनोवेशन काफी सराहनीय है, इससे किसान भाइयों को मदद मिलेगी। जितेंद्र की शोध यात्रा निरंतर जारी है, वे अब भी यही सोचते हैं कि किस तरह अन्य समस्याओं से अपने किसान साथियों को मुक्त करे।
अगर आपको जितेंद्र की यह कहानी पसंद आई और आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो 09813718528 पर बात कर सकते हैं। आप उन्हें ई-मेल भी कर सकते हैं।
संपादन – भगवती लाल तेली